चुनाव के मुहाने पर खड़ा होकर एक वोटर या नागरिक के नाते यदि आप यह सोचे कि आपने क्या खोया और क्या पाया है तो शायद आपका मन वितृष्णा से भर जायगा। हांलाकि दो रात के बाद एक दिन के उलट हम दो दिन के बीच एक रात देखने की सकारात्मक नजरिये से देखे तो निश्चय ही इस लोकतंत्र की कुछ उपलब्धियां आपको दिखेगी। लेकिन आपको यह मानना होगा कि इस देश ने यह तमाम उपलब्धियां आज के कर्णधारों, नेताओं के कारण नहीं बल्कि उनके बावजूद हासिल की है। जहां तक आज के राजनीति एवं नेताओं का सवाल है तो यह निश्चय ही शर्मनाक है कि भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी एवं असुरक्षा के अलावा कुछ भी नहीं दिया है इन राजनीतिक दलों ने देश को।
क्या यह सच है कि इस चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है? महंगाई से कतराते निम्न मध्य वर्ग, आत्महत्या करते किसान, घुटने टेकता स्वाभिमान, आतंक की भट्ठी में मांस के लोथड़े मे तब्दील होते आसाम से लेकर अहमदाबाद, बंगलौर से लेकर बस्तर तक आम इंसान आदि क्या ऐसे विषय नहीं है, जिस पर बहस होती और इस मुद्दे पर जनमत का निर्माण किया जाता? क्या विभिन्न तरह के जातिगत सामाजिक, क्षेत्रिय, समीकरण से ज्यादा महत्वपूर्ण उपरोक्त मुद्दे नहीं है?
विभिन्न समाचार माध्यमों द्वारा परोसे जा रहे चुनावी खबरों को आप देखे तो यह लगेगा कि गांव, गरीब, किसान, मध्यवर्ग आदि के सरोकारों से जुड़ा कुछ है ही नहीं इस लोकसभा चुनाव में। शायद साजिशपूर्वक इस पूरे चुनाव को मुद्दाविहीन करार दिया जा रहा है। क्या यह सच है कि इस चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है? महंगाई से कतराते निम्न मध्य वर्ग, आत्महत्या करते किसान, घुटने टेकता स्वाभिमान, आतंक की भट्ठी में मांस के लोथड़े मे तब्दील होते आसाम से लेकर अहमदाबाद, बंगलौर से लेकर बस्तर तक आम इंसान आदि क्या ऐसे विषय नहीं है, जिस पर बहस होती और इस मुद्दे पर जनमत का निर्माण किया जाता? क्या विभिन्न तरह के जातिगत सामाजिक, क्षेत्रिय, समीकरण से ज्यादा महत्वपूर्ण उपरोक्त मुद्दे नहीं है? आखिर आज इस विडंबना पर किसी का ध्यान क्यूं नहीं जाता कि जब पिछले पांच साल में अनाजों के दाम आसमान छू रहे थे, तो आखिर उसे उगाने वाला किसान आत्महत्या क्यूं कर रहा था? आखिर यह कौन सा अर्थशास्त्र है, जिसमें उत्पादक और उपभोक्ता दोनो परेशान है और मालामाल हो रहे थे बिचौलिया और जमाखोर। अर्थशास्त्र के वैश्विक धुरंधर के रूप में पहचान रखने वाले प्रधानमंत्री, तात्कालीन वित्त मंत्री योजना आयोग के उपाध्यक्ष आदि की क्षमता या नीयत पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगता यह विषय? क्या जनता यह जानने का हक नहीं रखती कि क्यों बढ़ रहीं थी मंहगाई? इस मुद्दे पर कोई युक्ति संगत सफाई भी देने की जरूरत नहीं समझी उपरोक्त धुरंधरों ने। क्या इस आशंका के पर्याप्त आधार नहीं है कि महंगाई के नाम पर यह भी एक ”घोटाला” ही था। और यदि यह घोटाला था तो शायद यह भारत के इतिहास का सबसे बड़ा स्कूप साबित हो सकता है। आखिर इस बिडंबना का क्या करें कि भारत का कृषि मंत्री जिस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते है, वहीं के किसानों ने सबसे ज्यादा खुदकुशी की है। और उस कृषि मंत्री का अपने किसानों से ज्यादा क्रिकेट की चिंता करना ”नीरो” की तरह बंशी बजाना नहीं माना जाना चाहिए? आप याद करें, बहुत ज्यादा दिन नहीं हुआ जब दिल्ली की सरकार केवल प्याज के मुद्दे पर पराजित हो गई थी लेकिन उस बार इतना तो जरूर था कि जिस भी किसान के पास प्याज का स्टॉक था वे मालामाल हो गये थे। यहां तो आलम ये है कि केवल विदर्भ में पिछले साल 1200 किसानों ने आत्महत्या की।
इसी तरह पिछले लगभग सभी चुनावों में बेरोजगारी एक बड़ा मसला हुआ करता था, लेकिन अभी पहली बार ऐसा हुआ है कि लोगों को अपने अच्छे-खासे रोजगार या व्यवसाय से हाथ धोना पड़ रहा है। विश्व बैंक के एक रिपोर्ट के अनुसार मात्र पिछले तीन महीनों में देश के 5 लाख लोगों को अपनी नौकरी गवांनी पडी है। स्वयं केन्द्र सरकार के श्रम मंत्रालय की हालिया जारी 48 वीं रिपोर्ट यह कहता है, कि केवल सरकारी नौकरियों में 48000 रोजगार के अवसरों का खत्मा हुआ है। एक आकलन यह कहता है कि अगले कुछ हफ्तों में एक करोड़ लोगो को बेरोजगार होने की आशंका है। भारत के सबसे बड़े कॉर्पोरेट घोटाले ”सत्यम” के कारण ही 53000 लोगो का भविष्य दांव पर है, और अपनी गाढ़ी कमाई लगाने वाले लाखों निवेश्क कंगाल हो गये हैं। क्या खातों के हेरफेर कर इतने बड़े महाघोटाले को रोके जाने की जिम्मेदारों से ”सेबी” जैसी संख्या पल्ला झाड़ सकती है?
आतंकवाद की बात करें ! क्या यह चुनाव मुंबई के ताज समेत तमाम महत्वपूर्ण हमलों पर चर्चा करने का अवसर नहीं है? लोगों को यह भूल जाना चाहिए कि जब भारत की आर्थिक रीढ़ कहे जाने वाले मुंबई को बंधक बना लिया गया था तब केन्द्रीय गृह मंत्री जो उसी प्रदेश से ताल्लुक रखते हैं, वे फैशन और कपड़े बदलने में, सजने संवरने में मशगूल थे। हमले के बाद वहां का मुख्यमंत्री अपने अभिनेता पुत्र और अपने प्रोडयूसर दोस्त के साथ वहां फिल्म निर्माण की संभावना तलाश रहा था। और तो और केन्द्र का एक मंत्री उसी हमले में अपने जांबाज जवानों की शहादत पर अल्पसंख्यक कार्ड खेल रहा था। संसद पर हमले के आरोप में सर्वोच्च अदालत तक से मौत की सजा पाये अफजल की मेहमान-नवाजी क्या भारी नहीं पड़ना चाहिए केन्द्र की इस सरकार पर? क्या बाटला हाउस एनकाऊंटर मै शहीद जवान की शहादत पर सवाल खड़ा करना अर्जुन नामधारी कौरवों को शोभा देता है ?
वैसे तो उपरोक्त के अलावा भी दर्जनों ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर चर्चा की जा सकती है। लेकिन खासकर लोगों के जान और माल की सुरक्षा करना किसी भी सरकार का प्राथमिक कर्तव्य है। पिछले कुछ वर्षों ने यह साबित किया है कि सरकार अपनी अक्षमता के कारण या जानबूझकर इन दोनों मामले में बुरी तरह असफल रहीं है। जन, जंगल, जमीन, गांव, गरीब, किसान, आम इंसान से ताल्लुक रखने वाले इन तमाम मुद्दों को केन्द्र बिन्दु बनाना लोकतंत्र के इस महापर्व में उचित होना चाहिए। लेकिन मीडिया मिडिएटर और मसल्समैन की तिकड़ी शायद जानबूझकर इन मुद्दों को उभरने नही दे रही है। इस चुनाव कों मुद्दा विहीन बनाने का षंडयंत्र निश्चय ही प्रौढ़ होते इस लोकतंत्र पर बदनुमा दाग की तरह हैं।
चूंकि बात आम मतदाता से शुरू हुई थी, तो गेंद अब उसी के पाले में है, कि वह अपनी समझदारी का परिचय देते हुए क्षेत्र, जाति, सम्प्रदाय आदि राष्ट्रतोड़क विषय को नजरअंदाज करते हुए राष्ट्रीय हित और अपने सरोकार एवं उसके जान-माल की सुरक्षा करने वाले दलों को अपना समर्थन दें।
– लेखक पत्रिका दीपकमल के संपादक हैं।