महंगाई की सुनामी में फंसा देश

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सतीश सिंह

पिछले साल के 25 दिसम्बर को मंहगाई साल के उच्चतम स्तर 18.32 फीसदी तक पहुँच गई थी। ‘करैला और नीमचढ़ा’ वाले कहावत को चरितार्थ करते हुए सरकारी तेल कंपनियों ने कच्चे तेल की कीमत में इजाफा होने का बहाना करते हुए नए साल के पहले महीने में फिर से पेट्रोल की कीमत में 2.5 से 2.54 रुपये तक की बढ़ोतरी की है। जाहिर है कि मंहगाई को कम करने का सरकार का हर प्रयास विफल हो चुका है।

दूध-सब्जी जैसे खाद्य पदार्थों की कीमत बढ़ने से आज की तारीख में मंहगाई बेलगाम हो चुकी है। सरकार ने पूरी तरह से हथियार डाल दिया है और बौखलाहट में अतार्किक बयान दे रही है। सरकार कह रही है कि मंहगाई पर काबू सिर्फ कृषि उत्पादों की उत्पादकता को बढ़ाकर किया जा सकता है, जबकि जगजाहिर है कि खाद्य पदार्थों की कीमतों में उछाल जमाखोरों और कालाबाजारी के कारण आया है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कार्यालय भी इस बात से इत्तिफाक रखता है कि मुद्रास्फीति में उफान आने का मूल कारण सब्जियों और फलों की कीमतों का आसमान छूना है। पीएमओ कार्यालय यह भी मानता है कि चूँकि ऐसे खाद्य उत्पादों का बहुत दिनों तक भंडारण नहीं किया जा सकता है, इसलिए मंहगाई पर फिलहाल काबू पाना सरकार के वश में नहीं है।

वित्त मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी का भी मानना है कि आर्थिक मोर्चे पर मंहगाई एक चुनौती है और इसको बढ़ाने में मुख्य योगदान प्याज, लहसुन, दूध, फल, सब्जी और अन्यान्य खाद्य पदार्थों का रहा है। प्याज का भाव 22 महीनों के उच्चतम स्तर पर पहुँच चुका है। इसकी कीमत 100 फीसदी से भी अधिक बढ़ चुकी है।

वैसे सरकार इस मुद्दे पर चुप नहीं है। उसने मंहगाई को कम करने के लिए अनेकानेक घोषणाएँ की है, मसलन नैफेड और मदर डेरी के माघ्यम से प्याज 35 रुपये किलो (सब्सिडायज्ड) दर पर बेचा जाएगा, आयात और निर्यात को नियंत्रित और उदार बनाया जाएगा, जमाखोरों और कालाबाजारी करने वाले व्यापारियों और दलालों के खिलाफ सख्त कारवाई की जाएगी, राज्य की एजेंसियों के द्वारा खाद्य पदार्थों को खरीदने का निर्देश जारी किया जाएगा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को और भी मजबूत बनाया जाएगा, बागवनी उत्पादों को एपीएसी कानून से बाहर किया जाएगा, अनाज और दूध-सब्जी के वितरण प्रणाली को और मजबूत किया जाएगा तथा केबिनेट सचिव की निगरानी में सचिवों की समिति नियमित तौर पर खाद्य पदार्थों की कीमतों की समीक्षा करेगी।

सरकार की योजना किसान मंडी और मोबाईल बाजार स्थापित करने की भी है। केन्द्र सरकार राज्यों से मंडी टैक्स, चुंगी तथा अन्यान्य प्रकार की शुल्क को कम करने के लिए जल्द ही निर्देश देने वाली है। महानगरों की जनता को राहत देने के लिए सरकार ने फल और सब्जियों के खुदरा दुकान खोलने के लिए निजी क्षेत्र के बड़े उद्यमियों से अपील की है। यहाँ विडम्बना यह है कि व्यापारियों को ही मुख्य रुप से मंहगाई को बढ़ाने के लिए जिम्मेवार बताया जा रहा है। सरकार 1000 टन प्याज आयात करने के बारे में भी विचार कर रही है, किन्तु प्याज के आयात की जरुरत को नैफेड जरुरी नहीं मानता है। इस विरोधाभास पूर्ण स्थिति पर सरकार चुप है। उल्लेखनीय है कि नैफेड सरकार की ही एक एजेंसी है। बावजूद इसके फिलवक्त पाकिस्तान से प्याज का आयात किया जा रहा है।

हाल ही में दिल्ली के आजादपुर सब्जीमंडी पर आयकर विभाग के द्वारा छापे मारने के बाद व्यापारियों ने हड़ताल कर दी थी। ज्ञातव्य है कि आयकर विभाग की टीम पर व्यापारियों ने हमला बोल दिया था। आयकर कर्मचारियों को पुलिस का संरक्षण लेना पड़ा था। इस घटना से साफ हो जाता है कि या तो हमारी सरकार कमजोर है या फिर वह व्यापारियों की यूनियन के सामने घुटने टेक चुकी है।

दूसरा वाकया भी दिलचस्प है। हाल ही में खाद्य उत्पादों की बढ़ी कीमत पर हुई बैठक में देश के गृह मंत्री श्री पी चिदंबरम और खाद्य और कृषि मंत्री श्री शरद पवार 5 लाख टन चीनी निर्यात के अनुबंध से होने वाले खुदरा कीमतों एवं चीनी अर्थव्यवस्था पर असर को लेकर बहस-मुबाहिस कर रहे थे। किसी भी मुद्दे पर विचार-विमर्श करना तो अच्छी बात है, लेकिन अतार्किक बहस कभी भी फायदेमंद नहीं हो सकता है। सचमुच, इस तरह की नकारात्मक स्थिति का सरकार के काबीना मंत्रियों के बीच पनपना देश के भविष्य के लिए बेहद ही खतरनाक है।

मुद्रास्फीति को कम करने के लिए रिजर्व बैंक इस महीने के अंत में होने वाली मौद्रिक नीति की समीक्षा में फिर से ब्याज दरों में बढ़ोत्तारी का रास्ता साफ कर सकती है। ताकि मंहगाई पर कुछ हद तक लगाम लगाया जा सके। वित्ता मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी भी जल्द ही राज्यों के वित्ता मंत्रियों के साथ बैठक कर पुनष्च: मंहगाई को कम करने के उपायों के बारे में चर्चा करने वाले हैं।

सरकार द्वारा उठाए गए हालिया कदमों के बावजूद क्रिसिल से जुड़े आर्थिक विशेषज्ञ श्री सुनील सिन्हा का मानना है कि सरकार ने जो भी कदम उठाये हैं वे पूरी तरह से नाकाम हो चुके हैं।

उदाहरण के तौर पर एक तरफ सरकार नैफेड और मदर डेरी के माध्‍यम से प्याज 35 रुपये किलो बेचने का दावा कर रही है तो दूसरी तरफ प्याज नैफेड और मदर डेरी दोनों जगहों पर 35 किलो की दर से आम नागरिकों के लिए उपलब्ध नहीं है। मोबाईल वैन के द्वारा एनसीआर में प्याज बेचने की दिल्ली सरकार की योजना भी असफल हो चुकी है। सच कहा जाए तो प्याज बेचते मोबाईल वैन को एनसीआर में किसी आम आदमी ने अभी तक नहीं देखा है।

एनडीए तो मंहगाई को लेकर बार-बार यूपीए सरकार पर हमला कर ही रही है। आम लोगों का हमेशा से सबसे बड़ा हिमायती बताने वाले वाम ट्रेड यूनियनें भी बेकाबू मंहगाई को लेकर बेहद चिंतित हैं। इनका मानना है कि वायदा कारोबार के कारण ही मंहगाई पर काबू पाना मुश्किल हो गया है। लिहाजा इस पर रोक लगाना सबसे अहम है।

हालांकि व्यावहारिक तरीके से इस मुद्दे पर विचार करने पर मंहगाई का मूल कारण आसानी से समझ में आ सकता है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि राहत पैकेज और बाजार में नगदी की ज्यादा उपस्थिति के कारण मंहगाई बढ़ी है।

कृषि उत्पादों की कमी को भी कुछ हद तक ही जिम्मेदार माना जा सकता है। यह ठीक है कि केन्द्र और देश के सभी राज्यों में अनाज या सब्जी भंडारण की समुचित व्यवस्था नहीं है। फिर भी हम इसे मंहगाई के लिए महत्वपूर्ण कारण नहीं मान सकते हैं।

हकीकत तो यह है कि आज भी हमारे देश में जमाखोरों और कालाबाजारी करने वाले दलालों की चाँदी है। अस्तु मंहगाई पर नियंत्रण मंडी व्यवस्था में सुधार लाकर और जमाखोरों पर नकेल कसकर ही किया जा सकता है।

मंडी व्यवस्था में व्याप्त खामियों की वजह से खुदरा बाजार तक पहुँचते-पहुँचते खाद्य पदार्थों की कीमत आसमान को छूने लगती है। इस कीमत को बढाने का काम करते हैं बिचौलिए या दलाल। कभी-कभी सरकार द्वारा आरोपित कर व शुल्क के कारण भी खाद्य पदार्थों की कीमत बढ़ जाती है।

आष्चर्यजनक रुप से प्याज के मामले में ऐसा नहीं हुआ। अचानक ही दलालों और वायदा कारोबार करने वाले व्यापारियों ने प्याज की कीमत को 70 से 80 रुपये किलो तक पहुँचा दिया। कभी हर्षद मेहता भी अपनी ऊंगलियों पर शेयर बाजार के सूचकांक को नचाता था। आज वही काम कोई एक खाद्य व्यापारी या सभी व्यापारी सम्मिलित रुप से मिलकर कर रहे हैं। जिसको जहाँ भी मौका मिल रहा है, वह वहीं प्याज की कालाबाजारी कर रहा है। इस संबंध में मीडिया की भूमिका भी नकारात्मक रही है।

अर्थशास्त्र का सामान्य सा सिंध्दात है कि किसी भी उत्पाद का मूल्य कम करने के लिए उसका उत्पादन बढाना जरुरी है। लेकिन इसके साथ-साथ यह भी जरुरी है कि उत्पादित उत्पाद का 100 फीसदी उपभोक्ता तक पहुँचे।

हमारे देश में विसंगति यह है कि कोई भी चीज 100 फीसदी गंतव्य स्थल तक कभी भी पहुँच नहीं पाती है। कभी राजीव गाँधी ने भी इस तथ्य को माना था। अपने शासनकाल के दौरान उन्होंने कहा था कि 1 रुपये में मात्र 10 से 15 पैसे ही हितग्राही तक पहुँच पाते हैं।

आज राजीव गांधी की धर्मपत्नी सोनिया गांधी अप्रत्यक्ष रुप से यूपीए सरकार की सर्वेसर्वा हैं। अगर वे राजीव गांधी द्वारा बताए गए विसंगति को दूर करने का प्रयास करती हैं तो स्वत:-स्फूर्त तरीके से मंहगाई पर काबू पाया जा सकता है।

जितना कृषि उत्पाद का उत्पादन हो रहा है, उसे जनसंख्या के अनुपात में कम जरुर कहा जा सकता है, लेकिन वह इतना भी कम नहीं है कि उसकी कीमत 70 से 80 रुपये तक पहुँच जाए। मंहगाई की मार झेलते हुए नौकरी पेशा और मध्यम वर्ग किसी तरह गुजर-बसर कर भी लेंगे, किन्तु मनरेगा की मजदूरी से कैसे किसी का पेट भरेगा ?

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