अमिताभ त्रिपाठी
मिस्र में तहरीर चौक की तथाकथित क्रांति के बाद तत्कालीन तानाशाह और राष्ट्रपति होस्नी मुबारक के शासन की समाप्ति के बाद सम्पन्न हुए आम चुनावों में मुस्लिम ब्रदरहुड के मोहम्मद मोर्सी काफी कम अंतर से पूर्व प्रधानमंत्री अहमद शफीक से विजयी हो गये और इसके साथ ही मिस्र के भविष्य को लेकर अटकलों का बाजार गर्म हो गया है। मुस्लिम ब्रदरहुड को मिली सफलता से अनेक विशेषज्ञ सशंकित भी हैं। सभी इस बात से आशंकित हैं कि मिस्र में तहरीर चौक से जिस लोकतंत्र की आवाज उठी थी उसका वास्तविक भविष्य अब होगा क्या? मुस्लिम ब्रदरहुड की छवि एक कट्टरपंथी इस्लामी संगठन की है और इसे अनेक दशकों से मिस्र में प्रतिबंधित किया हुआ था। अचानक इस संगठन को मिली सफलता ने सभी को चौंका दिया है। वैसे तो सरसरी तौर पर इस घटनाक्रम को देखा जाये तो यही लगता है कि मिस्र में काफी कुछ बदल गया है और अब किसी न किसी रूप में यह देश नया स्वरूप अवश्य ग्रहण करेगा लेकिन यदि बारीक नजर से देखा जाये तो तहरीर चौक की भावना के अनुरूप मिस्र में कुछ भी नहीं घटित हुआ है।
मिस्र में निर्वाचन प्रक्रिया पर जो विश्लेषक दृष्टि लगाये थे उन्हें यह आभास होता गया कि मिस्र में अब भी सेना का वर्चस्व कायम है। चुनाव परिणाम आने के बाद अहमद शफीक के समर्थक टीवी चैनल पर यही कहते सुने गये कि अब मिस्र को सेना ही बचा सकती है। वास्तव में मिस्र में पिछले 6 दशक से लोकतन्त्र नहीं है और 1952 में सेना द्वारा शासन पर नियन्त्रण स्थापित करने के बाद से मिस्र में केवल दो शक्तियाँ ही हैं एक तो सेना और दूसरी इस्लामवादी और दोनों ने समय समय पर एक दूसरे का सहयोग किया है। मिस्र में अनवर अल सादात जैसे उदारवादी का शासन रहा हो या होस्नी मुबारक का या फिर तहरीर चौक क्रांति के बाद मोहम्मद तंतावी का सभी ने इस्लामवादियों को अपने अनुसार उपयोग किया । इन शासकों ने इस्लामवादियों के साथ एक स्तर पर सहयोग भी बनाये रखा लेकिन सत्ता का नियंत्रण इनके हाथ में नहीं जाने दिया और इनका भय दिखाकर पश्चिमी शक्तियों से धन और हथियार की आपूर्ति करते रहे।
मध्य पूर्व की राजनीति की इस कूटनीतिक चाल को समझना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि इसी आधार पर मिस्र में हुए चुनावों के परिणाम के निहितार्थ को समझा जा सकता है।
तहरीर चौक में हुई क्रांति में जो लोग शामिल थे उनमें से अधिकाँश लोग उदारवाद और लोकतन्त्र के समर्थक थे और यही कारण है कि इस क्रांति का स्वरूप कहीं से इस्लामवादी, पश्चिम या इजरायल विरोधी नहीं था लेकिन यह भी सत्य है कि क्रांति की इसी मूलभावना का उपयोग मिस्र की सेना ने अपने लाभ के लिये किया और समय समय पर इस्लामवादी प्रदर्शनों को होने दिया (जैसे कि इजरायल दूतावास पर आक्रमण) ताकि सेना की भूमिका को लेकर सभी विवश हो जायें। इसके बाद आरम्भ हुई निर्वाचन प्रक्रिया में सेक्युलर और इस्लामवादियों को एक दूसरे के सामने लाकर सेना ने दोनों की शक्ति सीमित कर दी और एक स्तर पर मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठनों को शक्तिशाली बनाकर चुनावी लाभ उठाने का अवसर भी दिया। मध्य पूर्व राजनीति के जानकार डा. डेनियल पाइप्स ने अपने दो लेखों में प्रमाण के साथ यह तथ्य विश्व के समक्ष रखा कि मोहम्मद तंतावी सुनियोजित ढंग से इस्लामवादियों को आर्थिक सहायता प्रदान कर रहे हैं ताकि इनका कैडर मजबूत हो।
यह कोई पहला अवसर नहीं है कि जब मिस्र में सेना ने रणनीतिक ढंग से मुस्लिम ब्रदरहुड या इस्लामवादियों को मजबूत कर पश्चिम सहित समस्त विश्व को अपना नेतृत्व स्वीकार करने को विवश किया है। इससे पूर्व होस्नी मुबारक के समय में जब बुश प्रशासन ने मिस्र में लोकतंत्र स्थापित करने के लिये दबाव डाला तो संसद में मुस्लिम ब्रदरहुड की सदस्य संख्या 88 हो गयी और उसे कुल 20 प्रतिशत मत मिले । इसके बाद वाशिंगटन की ओर से लोकतंत्र की आवाज मद्धिम कर दी गयी।
मिस्र में तहरीर चौक की क्रांति के बाद सम्पन्न हुए चुनावों से अनेक प्रश्न उठ खडे हुए हैं। क्या इस्लामी देशों में लोकतन्त्र की प्रक्रिया में इस्लामवादी आंदोलनों या संगठनों के इर्द गिर्द एक लोकतांत्रिक समाज के पुनर्गठन की सम्भावना पर विश्व को विचार करना चाहिये और इस प्रक्रिया को गति देनी चाहिये ताकि वास्तविक लोकप्रिय जनमत का स्वरूप सामने आ सके या फिर इस्लामवादी शक्तियों को लेकर आशंका का वातावरण बना रहना चाहिये और मध्य पूर्व सहित कुछ अन्य इस्लामी देशों में सेना को मौन और रणनीतिक समर्थन देते रहने की नीति जारी रहनी चाहिये।
मिस्र में सम्पन्न हुए चुनावों ने इन्हीं कुछ ज्वलन्त प्रश्नों को हमारे समक्ष खडा किया है।
मध्य पूर्व सहित विश्व के अन्य इस्लामी देशों में सेना और इस्लामवादी शक्तियों में विचारधारा के स्तर पर अधिक अंतर नहीं है। दोनों के मध्य विभेद केवल सत्ता पर नियंत्रण का है। मिस्र में हुए घटनाक्रम ने एक नया अध्याय जोड दिया है और वह है दोनों में आपसी समन्वय बनाये रखने की मजबूरी। मिस्र की स्थिति को देखकर तो यही लगता है कि अभी तो मोहम्मद मोर्सी किसी भी स्तर पर सेना के साथ कोई टकराव लिये बिना यथास्थिति को बनाये रखेंगे जिसमें कि पश्चिम के साथ आर्थिक, सैन्य और रणनीतिक सम्बन्ध हैं जैसे कि इजरायल के साथ मिस्र की संधि। इसके बाद भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस्लामवाद वैचारिक स्तर पर मिस्र में कोई प्रभाव नहीं बढायेगा। पिछले कुछ वर्षों में जिस प्रकार तुर्की की सत्तारूढ एकेपी ने उदारवादी मुखौटे के साथ नव ओटोमन भावना के साथ नीतियों का निर्माण किया है और शनैः शनैः मुस्तफा कमाल अतातुर्क की विरासत की रक्षक सेना को अप्रासंगिक बना दिया है उसने समस्त मध्य पूर्व सहित विश्व के अन्य इस्लामी देशों के समक्ष प्रशासन का माडल खडा किया है । निश्चित रूप से ट्यूनीशिया के बाद मिस्र मे चुनावों से तात्कालिक रूप से भले ही कुछ न बदला हो लेकिन एक परिवर्तन की आहट मिलने लग़ी है और यह आहट नई सम्भावनाओं और आशंकाओं से भरी है।
पश्चिम ने मध्य पूर्व के देशों में सेना का उपयोग किया और सेना ने इस्लामवादियों के सहारे पश्चिम का दोहन किया लेकिन तहरीर चौक की क्रांति और ट्यूनीशिया में घटनाक्रम ने कृत्रिम लोकतंत्र के स्थान पर कुछ अधिक की भूमिका रख दी है जिसके चलते इस क्षेत्र की रणनीतिक स्थिति में परिवर्तन आ गया है।
मिस्र के चुनाव परिणाम यदि किसी बात का संकेत हैं तो यही कि खिलाफत के पतन के बाद से पश्चिम ने इस क्षेत्र के लिये जो भी नीतियाँ अपनाईं उनमें भय और स्वार्थ अधिक था लेकिन ऐतिहासिक चेतना को मिटाकर आधुनिक युग में ले जाने की दृष्टि का अभाव था। अब आने वाले दिनों में समस्त विश्व को फिर से उस प्रश्न का उत्तर ढूँढना होगा जिसे प्रथम विश्व युद्ध के बाद हल हुआ मान लिया गया था।