राजनीति के कालिदास

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cagहिमांशु शेखर

 

‘सीएजी सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं है. उसे अपनी रिपोर्ट में सरकार की आलोचना करने का अधिकार मिला हुआ है. संसद में अगर कोई सीएजी की आलोचना करता है तो इसका अर्थ यह माना जाएगा कि वह बगैर किसी भय और पक्षपात के साथ उसके कार्य करने के संवैधानिक अधिकार को चुनौती दे रहा है.’

जवाहरलाल नेहरू, भारत के पहले प्रधानमंत्री

 

‘मैं देश को आश्वस्त करना चाहता हूं कि हमारा पक्ष काफी मजबूत और विश्वसनीय है. सीएजी की बातें विवादास्पद हैं और जब यह मामला संसद की लोक लेखा समिति के सामने आएगा तो इन्हें चुनौती दी जाएगी.’

मनमोहन सिंह, प्रधानमंत्री

 

भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) को लेकर ये दो बातें दो कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों ने अपने-अपने समय में कही हैं. जब 1952 के दिसंबर में भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संसद में सीएजी पर हमले होते देखा तो वे सीएजी के बचाव में उठ खड़े हुए. हालांकि, उस वक्त भी सीएजी पर हमले करने वाले नेता कांग्रेसी थे. लेकिन पंडित नेहरू को चिंता पार्टी के कुछ नेताओं की नहीं बल्कि एक संवैधानिक संस्था की थी. सीएजी भी एक वैसी ही संवैधानिक संस्था है जिसका गठन हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में लोकतंत्र की खूबसूरती को बनाए रखने के मकसद से किया है. लेकिन इसके ठीक 60 साल बाद जब सीएजी रिपोर्ट से कांग्रेस के नेताओं और खुद प्रधानमंत्री को परेशानी होती है तो पहले पार्टी अपने दूसरे नेताओं को आगे करती है और फिर खुद प्रधानमंत्री सीएजी पर हमला करने के लिए सामने आ जाते हैं.

कोयला ब्लॉक आवंटन में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है. कोयला ने अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग लोगों का साम्राज्य विस्तार किया है. लेकिन जब सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि 2006 से 2010 के बीच कोयला ब्लॉकों का आवंटन जिस तरह से किया गया उससे देश को 1.86 लाख करोड़ रुपये का नुकसान देश को हुआ है तो हर ओर बवाल मच गया. ये आवंटन उसी दौरान हुए जब कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास था. इसलिए विपक्ष उनके इस्तीफे की मांग पर अड़ा रहा और संसद के मॉनसून सत्र की बलि ले ली. अपने दफ्तर में पंडित नेहरू की तस्वीर टांगने वाले और गाहे-बगाहे अपने भाषणों में उन्हें याद करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अन्य कांग्रेसी नेताओं ने सीएजी को लेकर नेहरू की राय को खारिज करने में देर नहीं लगाई और तरह-तरह के आरोप सीएजी विनोद राय पर मढ़े.

 

क्या बदल गई सियासी संस्कृति?

सवाल यह है कि 60 सालों में एक ही पार्टी के प्रधानमंत्री की राय बदलने का मतलब सिर्फ पार्टी के चरित्र का बदलना है? या फिर यह बदलाव या भटकाव विचारधारा का है? या फिर देश की सियासी संस्कृति इस कदर बदल गई है कि वह हर संवैधानिक संस्था को ही कठघरे में खड़ा करना चाहती है? क्योंकि यहां मामला सिर्फ सीएजी पर हमले का नहीं है. इस दौर में जब चुनाव आयोग चुनाव आचार संहिता की कड़ाई से पालन की कोशिश करता है तो सत्ता में रहने वाले उस पर हमले करने से भी बाज नहीं आते और कार्रवाई करने की चुनौती देते नजर आते हैं. अगर देश की सर्वोच्च अदालत जनविरोधी नीतियों के खिलाफ कोई राय रखती है उसे सरकार की तरफ से हद में रहने की चेतावनी संकेत की भाषा में दी जाती है. और तो और देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद में भी इसे अपने ढंग से चलाने की हठ के आगे सरकार जनभावनाओं और दूसरे दलों की बातों की अनदेखी करने से बाज नहीं आती.

संसदीय समितियों का भी हाल बुरा है. लोक लेखा समिति (पीएसी) और संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) में झगड़ा इस बात पर हो जाता है कि अपनी पार्टी के लोगों पर आंच न आने पाए. तो स्थायी समितियों में किसी विधेयक को सिर्फ इसलिए लटकाए रखा जाता है कि कहीं दूसरा दल इसका चुनावी फायदा न उठा ले. तो क्या यह माना जाए कि पंडित नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह के बीच सिर्फ वक्त का फर्क नहीं बल्कि राजनीतिक संस्कृति का फर्क कुछ इस तरह से पैदा हो गया है कि लोगों के प्रति जवाबदेही और सहनशीलता की जगह असहनशीलता और किसी भी तरह से चुनावी जीत हासिल करने की प्रवृत्ति हावी हो गई है? इसे जानने के लिए कुछ संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थिति और पिछले कुछ साल में इनके प्रति राजनीतिक वर्ग के बदले रवैये को समझना होगा.

 

सीएजी की जरूरत

भारत में बार सीएजी का गठन 1860 में अंग्रेजों ने किया था. लेकिन जब आजाद भारत का संविधान बन रहा था तो ड्राफ्टिंग समिति के प्रमुख भीमराव आंबेडकर ने संविधान सभा की बैठक में कहा कि भारत के संविधान के तहत सीएजी सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी होगा. जब सीएजी से संबंधित नियमों को लेकर संविधान सभा में बहस चल रही थी तो उन्होंने 30 मई, 1949 को कहा, ‘सीएजी एक ऐसा व्यक्ति होगा जिस पर यह जिम्मेदारी होगी कि वह देखे की संसद द्वारा अनुमोदित खर्च कहीं बढ़ तो नहीं रहा या फिर इसमें कोई अंतर तो नहीं आ रहा. अगर इसे अपने कर्तव्यों का निर्वहन सही ढंग से करना है तो इसे भी न्यायपालिका जितनी ही स्वतंत्रता देनी होगी. मेरा मानना है कि सीएजी का कार्य न्यायपालिका के कार्य से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. लेकिन उच्चतम न्यायलय और ऑडिटर जनरल के अनुच्छेदों की तुलना करके मैं पाता हूं कि हमने न्यायपालिका को जितनी स्वतंत्रता दी है उतनी सीएजी को नहीं. लेकिन निजी तौर पर मेरा मानना है कि सीएजी को न्यायपालिका की तुलना में कहीं अधिक आजादी मिलनी चाहिए.’

इसके बाद संविधान के अनुच्छेद-148 से 151 के तहत सीएजी का गठन किया गया. तय किया गया कि सीएजी की नियुक्ति छह साल के लिए होगी और बीच में हटाने के लिए वही प्रक्रिया अपनाई जाएगी जो उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिए अपनाई जाती है. यानी रास्ता महाभियोग का है. माना गया कि इससे सीएजी के कार्य पर कोई दबाव नहीं रहेगा. सीएजी को केंद्र और राज्य सरकारों के खर्चों का लेखा-जोखा रखने का अधिकार दिया गया. सीएजी के कर्तव्यों, अधिकार और सेवा की शर्तों को निधारित करने के लिए 1971 में संसद ने एक खास कानून भी बनाया. सीएजी हर साल 64,000 ऑडिट करती है. रॉ, आईबी और एनटीआरओ के खर्च की जांच सीएजी के दायरे में नहीं है. लेकिन फिर भी सरकार जरूरत पड़ने पर इनकी ऑडिट सीएजी से करा सकती है लेकिन ऐसे रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं किए जाते बल्कि अतिगोपनीय रखे जाते हैं. सैन्य बलों के रणनीतिक परियोजनाओं की ऑडिट के लिए भी विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है.

 

सीएजी पर सांस्‍थानिक हमले

सीएजी ने जब-जब ऐसी रिपोर्ट दी जिससे सरकार को दिक्कत हो तब-तब इस पर हमले किए गए. लंबे समय के बाद सीएजी अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में तब चर्चा में आया जब बोफोर्स मामले में इसकी रिपोर्ट आई. उस वक्त सीएजी टीएन चतुर्वेदी थे. सरकार को परेशान करने वाली रिपोर्ट जब सीएजी ने जारी कि तो सीएजी पर खूब हमले हुए लेकिन प्रधानमंत्री ने सीधे तौर पर हल्ला नहीं बोला. हालांकि, कांग्रेसी नेता लगातार हमले कर रहे थे. माहौल कुछ इस तरह का बना कि खुद चतुर्वेदी ने लोकसभा और राज्यसभा के स्पीकर को पत्र लिखकर यह कहा कि अगर सरकार को उनसे इतनी दिक्कत हो रही है तो महाभियोग लाकर उन्हें हटा दे. यह जानकारी खुद चतुर्वेदी ने तहलका को दी. वे कहते हैं, ‘इस पत्र का कोई जवाब नहीं आया लेकिन सरकार में उस वक्त काफी हलचल थी. कोई मुझ पर राजनीतिक एजेंडा चलाने का आरोप लगा रहा था तो कोई कुछ और. लेकिन अभी की तुलना में उस वक्त अच्छी बात यह थी कि खुद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कभी हमला नहीं किया.’ मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ अपने राज्यसभा के दिनों को याद करते हुए चतुर्वेदी कहते हैं, ‘हम दोनों राज्यसभा में साथ रहे हैं. मुझे वे एक सज्जन व्यक्ति लगे लेकिन अब जब मैं उन्हें सीएजी पर हमला करते हुए देखता हूं तो मुझे हैरानी होती है. मुझे हैरानी इस बात पर भी होती है कि कैसे कोई प्रधानमंत्री संसद में यह कह सकता है कि सीएजी की रिपोर्ट को पीएसी में चुनौती दी जाएगी. पीएसी सरकार की नहीं होती बल्कि संसद की होती है और इसके कामकाज का निर्धारण सरकार का मुखिया नहीं कर सकता. यह बात बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मालूम होनी चाहिए थी.’

प्रधानमंत्री ने भले ही पिछले दिनों संसद में सीएजी पर सीधा हमला किया हो लेकिन परोक्ष रूप से उन्होंने पहले भी सीएजी को हद में रहने की सलाह दी थी. जब पिछले साल वे टेलीविजन संपादकों से मिले तो उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा, ‘ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि सीएजी ने प्रेस वार्ता की हो. जबकि मौजूदा सीएजी ऐसा कर रहे हैं. इसके पहले कभी भी सीएजी ने नीतिगत मसलों पर टिप्पणी नहीं की. सीएजी को संविधान के तहत परिभाषित भूमिका में ही रहना चाहिए.’ इसके पहले 16 नवंबर, 2010 को भी प्रधानमंत्री ने सीएजी के 150 साल पूरा होने पर आयोजित कार्यक्रम में हिस्सा लेते हुए बड़ी सावधानी से सीएजी को कहा था कि गड़बडि़यों और गलतियों के फर्क को समझते हुए रिपोर्ट तैयार करनी चाहिए क्योंकि सीएजी की रिपोर्ट को न सिर्फ मीडिया बहुत गंभीरता से लेती है बल्कि जनता, सरकार और संसद भी.

दरअसल, मौजूदा सरकार में सीएजी पर हल्ला बोलने वालों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पहले या आखिरी व्यक्ति नहीं हैं. हां, उनके सामने आने से इतना जरूर हुआ कि कांग्रेस में जिस नेता की कोई हैसियत भी नहीं है, वह भी सीएजी के खिलाफ बोलने लगा है. जिस दिन प्रधानमंत्री सीएजी के 150 साल पूरा होने के कार्यक्रम में बोल रहे थे उसी दिन 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन पर सीएजी की रिपोर्ट संसद में पेश हुई थी. इसमें बताया गया था कि आवंटन में हुई गड़बडि़यों की वजह से देश को 1.76 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ. इसके एक दिन बाद ही उस समय के दूरसंचार मंत्री ए. राजा को इस्तीफा देना पड़ा था. लेकिन राजा के बाद दूरसंचार मंत्रालय संभालने वाले कपिल सिब्बल ने न सिर्फ सीएजी पर हल्ला बोला बल्कि यह भी कह डाला कि आवंटन से तो कोई नुकसान ही नहीं हुआ है. कुछ ऐसी ही बात कोयला ब्लॉक आवंटन को लेकर चिदंबरम ने कही थी लेकिन बाद में उन्हें अपने बयान को बदलना पड़ा. सिब्बल की ‘जीरो लॉस’ की थ्योरी भी नहीं चल पाई और सर्वोच्च न्यायालय ने 122 लाइसेंस रद्द करके सीएजी की बातों को मजबूती दी. अब सरकार इनका नए सिरे से निलामी करने वाली है और अनुमान है कि इससे अरबों रुपये की आमदनी होगी. सीएजी कार्यालय के सूत्रों की मानें तो 2जी मामले में रिपोर्ट को तोड़ने-मरोड़ने का दबाव विनोद राय पर था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.

सीएजी पर हमला करते-करते कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह उस स्तर तक चले गए जो एक लोकतां‌त्रिक व्यवस्‍था के संवैधानिक संस्‍थाओं के लिए बेहद खतरनाक है. मनीष तिवारी ने विनोद राय पर भाजपा के एक नेता के इशारे पर काम करने का आरोप लगाया. वहीं ‌दिग्‍विजय सिंह ने कहा कि सीएजी विनोद राय जिस तरह से काम कर रहे हैं उससे लगता है कि उनका अपना एक राजनीतिक एजेंडा है. उन्होंने टीएन चतुर्वेदी का उदाहरण देते हुए बताया कि कांग्रेस सरकार के खिलाफ रिपोर्ट देने वाले चतुर्वेदी सीएजी पद से सेवानिवृत्त होने के बाद भाजपा की टिकट पर राज्यसभा चले गए और बाद में राज्यपाल भी बने. दिग्विजय सिंह की मानें तो विनोद राय भी किसी ऐसे ही एजेंडे पर काम कर रहे हैं. लोकसभा के महासचिव रहे और कानून विशेषज्ञ सीके जैन कहते हैं, ‘अगर संवैधानिक पद से हटने के बाद किसी के किसी राजनीतिक दल से जुड़ने की आशंका से उसके काम को जोड़कर देखा जाएगा तो कई तरह की दिक्कतें होंगी. और अगर राजनीतिक दलों को ऐसा लगता है तो वे संविधान में संशोधन करके संवैधानिक पदों पर रहने वाले लोगों के लिए इस बारे में प्रतिबंध लगा सकते हैं. संवैधानिक पदों पर रहने वालों के लिए यह नियम पहले से है कि वे न तो केंद्र या राज्य सरकार में कोई पद ले सकते हैं और न ही कोई संवैधानिक पद. लेकिन राजनीतिक पद को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं है.’ अगर संवैधानिक पदों से हटने के बाद किसी दल से जुड़ने की दिग्विजय सिंह की बात को ही आधार माना जाए तो कांग्रेस भी आरोपों के घेरे में होगी. मुख्य चुनाव आयुक्त रहे मनोहर सिंह गिल को इस पद से हटने के बाद कांग्रेस ने केंद्र में मंत्री बनाया.

 

बचाव में ‌विशेषज्ञ

मशहूर सांसद और सातवें दशक में लोक लेखा समिति के अध्यक्ष रहे एरा सेझियन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान पर इन शब्दों में हैरानी जताई, ‘मैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की प्रतिक्रिया से सहम गया हूं.’ संवैधानिक प्रक्रियाओं की जानकारी रखने वाले लोग सरकार की इस बात पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं कि वह सीएजी की रिपोर्ट पर संसद में चर्चा कराना चाहती है. क्योंकि सीएजी की रिपोर्ट में संसद में नहीं बल्कि जेपीसी में चर्चा हो सकती है. विपक्ष की तरफ से इस संवैधानिक गड़बड़ी के बारे में कुछ नहीं बोला जा रहा है. चतुर्वेदी कहते हैं, ‘प्रक्रिया यह है कि सीएजी अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेजता है. इसके बाद रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में पेश की जाती है. फिर इसे पीएसी के पास भेजा जाता है. वहां इस पर चर्चा होती है और फिर कार्रवाई रिपोर्ट तैयार होती है.’

अगर मनमोहन सिंह अपनी ही सरकार के सहयोगी मंत्री वीरप्पा मोइली से विचार-विमर्श कर लेते तो शायद वे सीएजी पर हमले नहीं करते. वीरप्पा मोइली हाल तक कानून मंत्री रहे हैं और उन्हीं की अगुवाई में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन हुआ था. 2007 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में उन्होंने सिफारिश की थी कि सीएजी अपनी जांच में जैसे ही घोटाले को पाए वैसे ही वह ऐसी व्यवस्था करे कि सरकार को उसका पता चल जाए. इससे पहले मोइली ने ही 2006 में एक गोष्ठी में कहा था, ‘सीएजी की रिपोर्ट पर कार्रवाई करने के लिए समुचित व्यवस्था होनी चाहिए. व्यवहार में सरकार कार्रवाई करने के लिए अनिच्छुक रहती है.’

केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने तो सीएजी पर हमला करने के क्रम में यह भी कह डाला कि कुछ संवैधानिक संस्थाएं और बड़ी हस्तियां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि खराब करने का षडयंत्र कर रही हैं. जब पत्रकारों ने उनसे नाम जानना चाहा तो उनका जवाब था कि आप सब अच्छी तरह से उनके बारे में जानते हैं. यहां 50 साल पहले की एक घटना का उल्लेख जरूरी हो जाता है. 1962 में जब उस समय के रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने सेना जीप खरीद पर सीएजी की रिपोर्ट पर सीएजी के खिलाफ टिप्पणी की थी तो उनके खिलाफ अवमानना का नोटिस दिया गया था और उस वक्त लोक सभा के स्पीकर ने कहा था कि सीएजी के खिलाफ टिप्पणी नहीं की जा सकती. इसके बाद कृष्ण मेनन को माफी मांगनी पड़ी थी. सीएजी पर हो रहे हमलों पर लोकसभा के महासचिव रहे और कानून विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं, ‘यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. अगर इस तरह से संवैधानिक संस्थाएं पर हमले होंगे तो देश का लोकतांत्रिक ढांचा कमजोर होगा.’

 

विपक्ष भी नहीं पाक साफ

ऐसा नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस ही संवैधानिक संस्थाओं को अपमानित करने का काम कर रही है. पिछले कुछ समय से यह देखा जा रहा है कि जो भी दल सत्ता में रहती है, वह इन संस्थाओं पर अपनी सुविधानुसार हमले करती है. भाजपा की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार जब केंद्र में थी तो उस वक्त भी इसकी तरफ से सीएजी पर कई बार हमले हुए. एक बार तो यहां तक कहा गया कि इस संस्था को अंग्रेजों ने स्थापित किया था इसलिए यह बेवकूफी वाली संस्था है. यह बात 2001 में उस समय के विनिवेश मंत्री अरुण शौरी ने मुंबई के सेंटूर होटल 145 करोड़ रुपये में बेचने के मामले में आई सीएजी रिपोर्ट पर जवाब देते हुए कही थी. करगिल की लड़ाई के बाद सामने आए ताबूत घोटाले पर चर्चा करते हुए अरुण जेटली ने एक टेलीविजन चैनल पर यह कहा था कि ऑडिट करने वाले अधिकारी जंग लड़ने नहीं जाते लेकिन सेना के जनरल जाते हैं.

सीएजी कार्यालय की नींव रखते हुए नई दिल्ली में देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने जुलाई, 1954 में कहा था, ‘एक ऐसे समय में जब सरकार कल्याणकारी योजनाओं पर काफी पैसे खर्च कर रही है तब यह जरूरी हो जाता है कि हर रुपये का हिसाब रखा जाए. यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सीएजी पर है. जिस तरह के अधिकारी सीएजी को मिले हैं, उसे देखते हुए इसे अपना काम बगैर किसी भय या पक्षपात के राष्ट्रहित में करना होगा.’ जिस वक्त राजेंद्र प्रसाद काफी खर्च की बात कर रहे थे उस वक्त सरकार का कुल बजट खर्च 1,354 करोड़ रुपये था. आर्थिक समीक्षा के मुताबिक यह 2011-12 में बढ़कर 22.92 लाख करोड़ रुपये हो गया है. जाहिर है कि सीएजी की भूमिका और जिम्मेदारी बड़ी हो गई है.

 

सुधार की मांग

बढ़ी जिम्‍मेदारियों को देखते हुए सीएजी ने तीन सुधारों का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा है. हालांकि, दो साल पहले भेजे गए इन प्रस्तावों पर सरकार ने अब तक अपनी तरफ से स्थिति साफ नहीं की है. इनमें सबसे पहला यह है कि सरकारी एजेंसियों के लिए सूचना का अधिकार के तर्ज पर सीएजी द्वारा मांगे गए दस्तावेज मुहैया कराने के लिए 30 दिन की समयसीमा निर्धारित की जाए. केजी बेसिन मामले में जब सीएजी रिपोर्ट तैयार कर रही थी तो उस दौरान दस्तावेज मिलने में काफी दिक्कतें आईं. यही वजह है कि 2006 से इस मामले पर काम शुरू करने के बावजूद रिपोर्ट 2011 में पूरी तरह तैयार हो पाई. केजी बेसिन में गैस निकालने के लिए रिलायंस के साथ जो करार किया गया है उसमें नियम कुछ इस तरह बनाए गए हैं कि जब तक रिलायंस अपनी लागत न निकाल ले तब तक सरकार को मुनाफे में हिस्सा नहीं मिलेगा. सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में यह बताया है कि इस परियोजना की लागत रिलायंस ने जानबूझकर इस तरह बढ़ाकर दिखाया है कि सरकार को लंबे समय तक कोई राजस्व नहीं मिले. इससे सरकारी खजाने को भारी नुकसान की बात सीएजी ने कही है.

दूसरी बात यह है कि जब सीएजी की रिपोर्ट सरकार को मिले तो वह इसे जल्द से जल्द संसद में पेश करे. अभी होता यह है कि सरकार महीनों तक सीएजी की रिपोर्ट दबाकर बैठी रहती है. कोयला ब्लॉक आवंटन की रिपोर्ट भी सरकार को पिछले संसद सत्र में ही मिल गई थी लेकिन इसे पेश किया गया मॉनसून सत्र में. दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन की रिपोर्ट भी साल भर बाद पेश की गई थी. सीएजी चाहती है कि जिस सत्र में सरकार को रिपोर्ट मिले उसी में इसे संसद में पेश किया जाए. सीएजी की तीसरी मांग यह है कि पिछले बीस सालों में जिस तरह से सरकार की आर्थिक गतिविधियों में बदलाव आया है उसके आधार पर इस बारे में उसके आॅडिट के दायरे के बारे में स्थिति और साफ की जाए. दरअसल, सीएजी इसके जरिए सार्वजनिक निजी भागीदारी यानी पीपीपी मॉडल के तहत चल रही परियोजनाओं और संयुक्त उपक्रमों के आॅडिट का अधिकार भी चाहती है. एक अनुमान के मुताबिक 80,000 करोड़ रुपये से अधिक का सालाना खर्च सीएजी के ऑडिट दायरे से बाहर है. इस वजह से संसद को भी यह पता नहीं चल पाता कि यह पैसा कैसे खर्च हो रहा है.

चतुर्वेदी कहते हैं, ‘जो लोग यह कह रहे हैं कि सीएजी को नीतिगत मसलों पर टिप्पणी का अधिकार नहीं है, उन्हें यह पता होना चाहिए कि सीएजी ऐसे मामलों में अपनी बात रख सकती है जिससे सरकारी खजाने को नुकसान उठाना पड़ रहा हो. सीएजी पर भले ही राजनीतिक वर्ग तरह-तरह के आरोप लगा रहा हो लेकिन लोगों की नजर में इसकी प्रतिष्ठा बढ़ी है. सीएजी की इन रिपोर्टों का असर कम से कम इतना तो होगा कि भविष्य में प्राकृतिक संसाधनों का आवंटन नहीं बल्कि इनकी निलामी होगी.’ वे बताते हैं, ‘विनोद राय ने अपने कर्तव्य का निर्वहन किया है. सरकार सीएजी के तौर पर उनके अधिकारों को चुनौती दे रही है. जो दुर्भाग्यपूर्ण है. उन्होंने जो भी अपनी रिपोर्ट में कहा है वह सरकारी दस्तावेजों पर आधारित है.’

जब जर्मनी में हिटलर सत्ता में आया था तो उसने नाजी पार्टी को छोड़कर सभी पार्टियों को प्रतिबंधित कर दिया था. इसके बाद उसने कानून में संशोधन करके सरकारी धन के ऑडिट की व्यवस्था भी खत्म कर दी थी. क्या मनमोहन सिंह सरकार भी उसी रास्ते पर जाना चाहती है?

 

दलीय राजनीति की शिकार संसदीय समितियां

सीएजी अपनी रिपोर्ट संसद की जिस पीएसी के पास भेजती है उसकी हालत भी खराब है. इस समिति का मुख्य कार्य है सीएजी की रिपोर्ट का परीक्षण करना. आम तौर पर 22 संसद सदस्यों वाली इस समिति का अध्यक्ष आम तौर पर विपक्ष का कोई वरिष्ठ नेता होता है. 1967 से यही परंपरा चली आ रही है. इस समिति का गठन जब हुआ था तो इसके पीछे सोच यह थी कि सदस्य दलों के दायरे से ऊपर उठकर इस समिति में राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर काम करेंगे. लेकिन आज स्थिति यह है कि यह समिति भी दलीय राजनीति को हवा देने का जरिया बन गई है. बात पिछले साल की है जब 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन पर आई सीएजी की रिपोर्ट पर पीएसी में विचार-विमर्श हो रहा था. विचार-विमर्श के बाद भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली इस समिति ने जब अपनी रिपोर्ट का मसौदा तैयार किया तो इसे कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के सदस्यों ने खारिज कर दिया. इसके बाद समिति में काफी देर तक बहस होती रही और तनातनी बढ़ती गई. ये सब होने के बाद समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी बैठक से निकल गए. इसके बाद विरोध कर रहे सदस्यों ने कांग्रेस नेता सैफुद्दीन सोज को अध्यक्ष चुन लिया और जोशी की अनुपस्थिति में समिति में वोटिंग हुई. इसमें 21 सदस्यों में से 11 ने रिपोर्ट के मसौदे को खारिज करने के लिए वोट दिया. इसके बाद संवैधानिक जानकारों ने रिपोर्ट खारिज किए जाने को यह कहते हुए असंवैधानिक करार दिया कि राज्यसभा का सदस्य पीएसी की बैठक की अध्यक्षता नहीं कर सकता. सोज राज्यसभा के सांसद हैं.

अब सवाल यह उठता है कि आखिर पीएसी की बैठक में सत्ता पक्ष से संबंधित सांसदों ने इतना बवाल क्यों किया? इसकी वजह यह है कि इस रिपोर्ट में 2जी मामले को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उस समय के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की भूमिका की आलोचना की गई थी. खुद मुरली मनोहर जोशी ने सत्ता पक्ष से संबंधित सांसदों को तिलमिलाने की वजह रिपोर्ट में कांग्रेस नेताओं की भूमिका पर उठाए गए सवाल को माना था. पीएसी में कांग्रेस और उनके समर्थक सांसदों ने हल्ला मचाया तो 2जी पर बने संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की बैठक में भाजपा सांसदों ने यही काम किया और बैठक से बाहर निकल गए. इतना ही नहीं भाजपा सांसदों ने समिति से बाहर निकलने की धमकी भी दी. दरअसल, जेपीसी में विवाद तब पैदा हुआ जब भाजपा सांसद लगातार यह मांग करते रहे कि 2जी मामले में पूछताछ के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी. चिदंबरम को बुलाया जाए. इस पर कांग्रेस सांसद तैयार नहीं हुए. बाद में इस जेपीसी के अध्यक्ष और कांग्रेस के नेता पीसी चाको ने यह बयान दिया कि बैठक से वाकआउट करने कोई स्‍थिति पैदा नहीं हुई थी बल्‍कि भाजपा सांसद ऐसा करने की तैयारी के साथ आए थे. वहीं भाजपा सांसदों का आरोप था कि उनके साथ बैठक में अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया गया. जैन कहते हैं, ‘आज यह हालत सिर्फ पीएसी और जेपीसी की नहीं है बल्कि संसद की ज्यादातर समितियों की है. जिन समितियों का गठन दलीय दायरे से ऊपर उठकर लोकतंत्र की रक्षा के लिए किया गया था, वे भी आज दलीय राजनीति की शिकार हो गई हैं.’

स्‍थायी संसदीय समितियां इसकी उदाहरण हैं. इसमें सबसे दिलचस्प मामला है ग्रामीण विकास पर संसद की स्‍थायी समिति का. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों को लेकर जब राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में लगातार दौरे करके किसानों के मसलों को उठा रहे थे तो उन्होंने कई जगह पर बोला कि संप्रग सरकार जल्द से जल्द किसानपरस्त जमीन अधिग्रहण कानून लाएगी. 9 जुलाई, 2011 को अलीगढ़ की एक सभा में राहुल गांधी ने कहा, ‘जमीन अधिग्रहण कानून बहुत पुराना है और इसलिए मुश्किलें आ रही हैं. हमारी पूरी कोशिश होगी कि हम इस कानून को बदलें, लोकसभा में आपको एक ऐसा कानून दें जिससे आप सबको फायदा हो, किसानों को फायदा हो और मजदूरों को फायदा हो.’ 9 जुलाई को राहुल गांधी अलीगढ़ में बोले और 12 जुलाई को दिल्ली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल हुआ. ग्रामीण विकास मंत्रालय में सीपी जोशी की जगह ली अपेक्षाकृत तेज-तर्रार माने जाने वाले जयराम रमेश ने. नया मंत्रालय संभालने के दो महीने के अंदर-अंदर 7 सितंबर, 2011 को सालों से लटक रहे जमीन अधिग्रहण कानून के नए मसौदे को संसद में पेश कर दिया गया. 13 सितंबर को इसे स्थायी संसदीय समिति में भेज दिया गया. समिति में दलीय राजनीति इसके बाद शुरू हुई. भाजपा और बसपा को लगा कि अगर जमीन अधिग्रहण कानून संसद के शीतकालीन सत्र में पारित हो गया तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका फायदा मिल सकता है. इसलिए समिति में इन दोनों दलों के सदस्यों ने यह सुनिश्‍चित किया कि किसी भी तरीके से विधेयक का मसौदा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के पहले संसद को नहीं लौटाया जाए. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव निपटने के तकरीबन दो महीने बाद ही इस विधेयक को स्‍थायी संसदीय समिति ने संसद को भेज दिया. यह घटना बताती है कि किस तरह से सियासी दल अपने चुनावी नफा-नुकसान को देखते हुए स्‍थायी संसदीय समितियों का इस्तेमाल कर रही हैं. जबकि इन समितियों के गठन के पीछे सोच यह थी कि इनमें दलगत भावन से ऊपर उठकर राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर काम किया जाएगा.

 

संकट संसदीय मर्यादा का

जैन कहते हैं कि पीएसी, जेपीसी और स्‍थायी संसदीय समितियां ही क्यों, आज तो पूरी संसद ही अपनी जिम्मेदारियों से अनजान दिखती है. मौजूदा सरकार पर यह आरोप भी लग रहा है कि इसने संसद की गरिमा को भी ठेस पहुंचाई है. संसदीय व्यवस्था को ठीक ढंग से समझने वाले लोग इस संदर्भ में कुछ मामले गिनाते हैं. इनमें सबसे प्रमुख है लोकपाल का विषय. जब जनलोकपाल की मांग के साथ अन्ना हजारे दिल्ली के रामलीला मैदान में अगस्त, 2011 में अनशन कर रहे थे तो उस वक्त संसद ने या यों कहें कि खास तौर पर संसद में मौजूद सत्ता पक्ष के नुमाइंदों ने कोई खास ध्यान नहीं दिया. लेकिन जब स्थितियां बिगड़ने लगीं तो फिर संसद में इस मामले पर चर्चा हुई और संसद ने एक स्वर में अन्ना हजारे से कुछ वायदे किए.

लेकिन जब ये वादे नहीं पूरे हुए तो एक बार फिर अन्ना हजारे 2011 के दिसंबर में मुंबई के आजाद मैदान में विरोध प्रदर्शन करने पहुंचे. इसी दौरान लोकपाल का मसौदा लोकसभा में कई संशोधनों के साथ पारित होने के बाद राज्यसभा में पहुंचा. 31 दिसंबर, 2011 की रात 12 बजे राज्यसभा के सभापति और उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने अचानक से संसद की कार्यवाही अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी. बाद में उन्होंने इसके लिए काफी सफाई दी और यह भी कहा कि राष्ट्रपति से उन्हें इससे अधिक समय तक राज्यसभा चलाने की अनुमति नहीं मिली थी. लेकिन विपक्ष और कई जानकार यह कहते रहे कि अंसारी ने ऐसा सत्ता पक्ष की मुश्किलों को कम करने के लिए किया. कई लोग तो बतौर उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की दोबारा हुई नियुक्ति को भी सत्ता पक्ष के प्रति उनके समर्पण से जोड़कर देखते हैं.

इसके बाद एक घटना हाल की है. जब कोयला ब्लॉक आवंटन पर संसद लगातार विपक्ष के हो-हल्ले का शिकार होकर नहीं चल पा रही थी तो एक दिन संसदीय कार्य राज्य मंत्री राज्य सभा के उपसभापति पीजी कूरियन को यह सलाह देते हुए सुने गए कि हंगामा होने वाला है इसलिए पूरे दिन के लिए सदन की कार्यवाही स्थगित कर दीजिए. इस घटना पर जैन कहते हैं, ‘राजीव शुक्ला को बतौर संसदीय कार्य राज्य मंत्री ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है. राजीव शुक्ला ने जो किया वह सिर्फ सभापति का अपमान नहीं है बल्कि यह तो सदन का अपमान है. क्योंकि सभापति को सदन चुनती है और उसे डिक्टेट करने का मतलब यह है कि आप पूरे सदन को डिक्टेट कर रहे हैं.’ कई ओर से आलोचना होने के बावजूद न तो सरकार ने राजीव शुक्ला के इस कृत्य पर कुछ सफाई दी और न ही शुक्ला ने माफी मांगी.

 

आज संसद की हालत यह है कि अगर सत्ता पक्ष से बाहर का कोई सांसद सरकार की स्वस्थ्य आलोचना भी करे तो सत्ता पक्ष के सांसद उस पर टूट पड़ते हैं. यह बात खास तौर पर तीन लोगों के बारे में दिखती है. सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मनमोहन सिंह की अगर कोई आलोचना करे तो इनकी निगाह में नंबर बढ़ाने के मकसद से विपक्षी सदस्य पर हल्ला मचाने में कांग्रेसी सदस्यों में होड़ मच जाती है. जब पिछले साल अगस्त में अन्ना हजारे रामलीला मैदान में अनशन कर रहे थे उसी दौरान राहुल गांधी ने संसद में इस मसले पर बोलते हुए लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने की बात की थी. जब राहुल गांधी अपना लिखा हुआ भाषण पढ़ रहे थे उसी वक्त विपक्ष के कुछ सदस्यों ने टोका-टाकी की तो कांग्रेस के युवा नेताओं की फौज विपक्षी सदस्यों पर बुरी तरह टूट पड़ी. ये है इस दौर की राजनीति की सहनशीलता?

 

अब एक बार फिर से यहां पंडित नेहरू का उल्लेख जरूरी हो जाता है. बात 1963 की है. संसद में योजना आयोग के उस दावे पर बहस हो रही थी जिसमें कहा गया था कि देश में गरीब आदमी की आमदनी पंद्रह आने है. यानी एक रुपये से भी कम. उस बहस में हिस्सा लेते हुए राममनोहर लोहिया ने यह साबित किया कि देश के 27 करोड़ लोगों की आमदनी तीन आने से भी कम है. इसका नतीजा यह हुआ कि सरकार ने अपने अनुमान को खिसका कर आठ आने कर दिया. इसी बहस के दौरान डॉ. लोहिया ने पंडित नेहरू की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘इन हजरत को देखिए. इनके कुत्ते का रोज का खर्च 25 रुपये है और देश के आम आदमी की रोजाना आमदनी 25 पैसे से भी कम है.’ उस वक्त नेहरू अपने बाएं हाथ पर अपनी ठोड़ी टेके हुए यह वार चुपचाप झेल गए थे. किसी कांग्रेसी सांसद ने नेहरू की नजर में अपना नंबर बढ़ाने के लिए लोहिया पर हल्ला बोलने का साहस नहीं जुटाया था. क्या अब ऐसा दृश्य संभव है?

पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा संसद के अवमूल्य को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं, ‘देश के प्रधानमंत्री को जब भी समय मिलता है तो वह संसद के सदन में आकर बैठता है. चाहे वह लोकसभा में बैठे या राज्य सभा में. जब संसद में प्रश्नकाल चल रहा होता है तब मनमोहन सिंह सदन में आते हैं. इसके बाद शून्य काल शुरू होता है और सांसद कहते रह जाते हैं कि मैं प्रधानमंत्री जी को यह बताना चाहूंगा, वह बताना चाहूंगा लेकिन मनमोहन सिंह इन बातों की अनदेखी करते हुए सदन से उठकर चले जाते हैं. संसद की इतनी अवज्ञा और किसी शासन में नहीं हुई जितनी मनमोहन सिंह सरकार के दौरान हुई है.’

यशवंत सिन्हा जो कह रहे हैं, वह एक तथ्य है लेकिन क्या संसद की साख को कम करने के लिए सिर्फ मनमोहन सिंह या कांग्रेस ही जिम्मेदार है्? मुख्य विपक्षी दल भाजपा समेत दूसरे दलों की इसमें कोई भूमिका नहीं है? यह भी एक तथ्य है कि कई मौके ऐसे आए हैं जब भाजपा पर भी संसद का अवमूल्यन का आरोप लगा. 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला ब्लॉक आवंटन के मामले में भाजपा द्वारा संसद को पूरी तरह से ठप कर देने की भी आलोचन न सिर्फ कांग्रेस ने बल्‍कि संसदीय परंपरा के कई जानकारों ने भी की. भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्‍ण आडवाणी ने जब देश की जनता द्वारा चुनी गई संप्रग सरकार को अवैध बताया तो उनके इस बयान की आलोचना भी संसद की परंपरा को जानने-समझने वालों ने की. हालांकि, तुरंत ही आडवाणी ने इस मामले पर माफी मांग कर इसे रफा-दफा किया. अभी हाल में जब प्रोन्नति में आरक्षण देने को लेकर राज्य सभा में संविधान संशोधन विधेयक सरकार ने पेश किया तो समाजवादी पार्टी के नरेश अग्रवाल और बहुजन समाज पार्टी के अवतार सिंह करीमपुरी के बीच हाथापाई हो गई. सबने टेलीविजन पर देखा कि इसे रोकने के बजाए दोनों दलों के कुछ और सदस्य इस झगड़े में शामिल हो गए. बाद में मार्शल को बुलाना पड़ा. जानकारों का मत है कि ऐसे मामलों में संसद को कठोर कार्रवाई करके नजीर पेश करना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं किया गया. पहले भी कई मौके ऐसे आए हैं जब विपक्षी दलों ने संसद की मर्यादा को ठेस पहुंचाई है. इस आधार पर नतीजा यह निकलता है कि संसद की अवमूल्यन के लिए सीधे तौर पर देश का पूरा राजनीतिक वर्ग जिम्मेदार है.

 

संसदीय बहस का स्तर गिरते हुए किस कदर दलीय दायरों में सिमटकर रह गया है कि सत्ताधारी दल का कोई भी सांसद ऐसे सवाल नहीं पूछता या ऐसी कोई भी बात नहीं बोलता जिसके उसके दल के किसी मंत्री को कोई परेशानी हो. जबकि एक वक्त वह था जब अपने ही दल के लोग जनहित के मसलों पर प्रधानमंत्री पर हमला करने से भी नहीं परहेज करते थे. बात 1965 की है. उस वक्त लाल बहादुर शास्‍त्री प्रधानमंत्री थे. अनाट के संकट की वजह से महंगाई बढ़ रही थी. सरकार नाकाम और जनता परेशान दिख रही थी. 24 मार्च को कांग्रेसी सांसद विजय लक्ष्मी पंडित ने लोक सभा से कांग्रेसी प्रधानमंत्री शास्‍त्री की सरकार पर जमकर हल्ला बोला. शास्‍त्री की ओर देखते हुए उन्होंने कहा, ‘लोग कहीं भी ठोस निर्णय नहीं ले रहे हैं. ऐसे में आगे की राह में रोड़े ही रोड़े दिखते हैं. केरल से कश्मीर ओर शेख अब्दुल्ला से लेकर वियतनाम तक कोई फैसला नहीं किया जा रहा है. हम अनिर्णय के शिकार हो रहे हैं.’ हमला होता रहा, पक्ष-विपक्ष के सांसद प्रधानमंत्री की ओर देखते रहे लेकिन शास्‍त्री चुपचाप इस हमले को झेल गए. थोड़ी देर बाद प्रधानमंत्री शास्‍त्री चुपचाप संसद के अपने कार्यालय में जाते हैं और विजय लक्ष्मी पंडित भी उनसे मिलने पहुंचती हैं.वे आकर पूछती हैं कि क्या मैंने आपके खिलाफ कुछ ऐसा बोल दिया जो नहीं बोलना चाहिए था. इस पर शास्‍त्री ने जवाब दिया कि आपने जो ठीक समझा वो कहा. यह एक प्रधानमंत्री या यों कहें कि राजनेता का बड़प्पन था जिसकी क्षमताओं पर थोड़ी ही देर पहले अपनी ही पार्टी के सांसद ने सवाल उठाया था. लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के कार्यकाल में जब तेलंगाना ओर विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक के मसले पर पार्टी के सांसद केशव राव ने पार्टी लाइन से अलग लाइन ली तो उनके पर कतरने में देर नहीं की गई.

 

चुनाव आयोग पर चोट

मौजूदा सरकार में शामिल लोगों ने चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था पर भी हमले करने से परहेज नहीं किया. इसी साल हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान चुनावी आचार संहिता की खुल्लेआम धज्जी उड़ाने वालों में दो केंद्रीय मंत्री भी शामिल हो लिए. हद तो तब हो गई जब इस बारे में पूछे जाने पर इन लोगों ने अपनी गलती मानने से इनकार कर दिया. दरअसल, विवाद तब शुरू हुआ जब कांग्रेस का चुनाव घोषणापत्र जारी होने और आचार संहिता लगने के बाद केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने मुस्लिम आरक्षण का जुमला चुनाव प्रचार के दौरान उछाल दिया. उन्होंने कहा कि अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो मुसलमानों को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में नौ फीसदी आरक्षण दिया जाएगा. चुनाव आयोग ने आचार संहिता का उल्लंघन माना. लेकिन इसके बावजूद खुर्शीद ने फर्रुखाबाद में एक और चुनावी सभा में कहा कि अगर उन्हें चुनाव आयोग सूली पर भी लटका दे तो वे यह सुनिश्चित करेंगे कि पसमांदा मुसलमानों को उनका हक मिले.

इसके बाद विवाद गहरा गया और चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कानून मंत्री सलमान खुर्शीद की औपचारिक शिकायत की और तत्काल हस्तक्षेप की मांग की. हर तरफ से जब सरकार पर दबाव बढ़ा तो सलमान खुर्शीद को औपचारिक तौर पर माफी मांगनी पड़ी तब जाकर यह मामला ठंढा हुआ. इसके ठीक दो दिन बाद केंद्रीय इस्पात मंत्री और उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी नेता बेनी प्रसाद वर्मा ने भी मुसलमानों को आरक्षण देने संबंधी बयान देकर चुनाव आचार संहिता या यों कहें कि चुनाव आयोग को अपमानित करने का काम किया. उन्होंने आयोग को चुनौती के लहजे में कहा कि अगर वह उनके खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकता है तो करके दिखाए. वर्मा फर्रुखाबाद के जिस चुनावी मंच से आयोग को चुनौती दे रहे थे उस पर उनके साथ सलमान खुर्शीद और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भी मौजूद थे.

इस पूरे मामले पर मुख्य चुनाव आयुक्त के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद एसवाई कुरैशी ने कहा, ‘कुछ नेताओं ने आयोग पर हमले किए और हमने नियम के हिसाब से उनके खिलाफ नोटिस जारी किए और अंततः उन्हें माफी मांगना पड़ा. लेकिन सरकार की नीयत और समय अहम है. जिस तरह से और जिस समय चुनाव आचार संहिता में बदलाव की बात कुछ नेताओं ने उठाई उससे उनकी मंशा को लेकर संदेह पैदा होता है. क्योंकि अब तक इसका अनुभव बढि़या रहा है. किसी संस्था में बदलाव की आवश्यकता तब महसूस होती है जब वह ठीक से काम नहीं कर पा रही हो. जबकि चुनाव आयोग का प्रदर्शन शानदार रहा है. पूरी दुनिया चुनाव कराने संबंधी बातों को लेकर हमारी ओर देखती है.’ जो बात कुरैशी बचते-बचाते कह रहे हैं उसे सुभाष कश्यप सीधे तौर पर रखते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि सलमान खुर्शीद को चुनाव के कायदे नहीं पता थे. इसके बावजूद अगर वे आयोग से टकरा रहे हैं तो इसके छिपे अर्थों को समझना होगा. एक ऐसे समय में जब देश के ज्यादातर संवैधानिक संस्थाओं की साख घटती जा रही है, चुनाव आयोग पर जिम्मेदार मंत्रियों द्वारा इस तरह के हमले किया जाना लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है.’

चुनाव आयोग को दलीय रंग देने की भी कोशिश कांग्रेस ने की है. जब नवीन चावला को मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया जा रहा था तो उस वक्त भाजपा नेता अरुण जेटली ने शाह आयोग द्वारा उन्हें दोषी ठहराए जाने को कांग्रेस से उनके संबंध से जोड़कर सामने रखा था. इसके बाद उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी ने उस समय की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को पत्र लिखकर चावला को हटाने की मांग की थी. लेकिन इसके बावजूद चावला को मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया गया. हालांकि, चुनाव आयोग पर हमला करने के मामले में भी भाजपा पीछे नहीं रही है. 2002 में गुजरात में हुए दंगों के बाद जब उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह ने कड़ा रुख अपनाते हुए पहले चुनाव कराने से इनकार कर दिया था तो उस वक्त भाजपा चुनाव आयोग पर जमकर हमले बोल रही थी. खुद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी लिंगदोह का पूरा नाम जेम्स माइकल लिंगदोह सार्वजनिक सभाओं में बार-बार दोहराकर यह संदेश देना चाह रहे थे कि चुनाव आयोग उन्हें जानबूझकर धार्मिक आधार पर निशाना बना रहा है.

 

सीवीसी का राजनीतिकरण

केंद्रीय सतर्कता आयोग भी एक ऐसी संवैधानिक संस्‍था है जिसके अवमूल्यन का आरोप कांग्रेस पर है. मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति में कांग्रेस ने नैतिक और कानूनी तकाजों की अनदेखी की और पीजे थॉमस को यह पद दे दिया. उन पर पामोलिन तेल आयात घोटाले में शामिल होने के आरोप थे. यह मामला उच्च स्तरीय चयन समिति में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने उठाया भी था लेकिन सरकार ने उनकी अनदेखी करते हुए ‌‌थॉमस को नियुक्त किया. कांग्रेस ने इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया कि जिस व्यक्‍ति पर भ्रष्टाचार के मामलों की जांच की सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है, उस पर खुद अगर भ्रष्टाचार के आरोप हों तो इसके क्या नकारात्मक परिणाम होंगे. कांग्रेस द्वारा सीवीसी के राजनीतिकरण का परिणाम यह हुआ कि नियुक्‍ति का यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा और वहां थॉमस की नियुक्ति को अवैध बताया गया. इसके बाद थॉमस को सीवीसी के पद से इस्तीफा देना पड़ा और सरकार की बड़ी फजीहत हुई.

 

न्यायपालिका को चुनौती

कांग्रेस की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के प्रतिनिधियों ने कई मौकों पर परोक्ष रूप से ही सही न्यायपालिका को भी अपने दायरे में रहने की सलाह दे डाली है. इस सरकार को उच्चतम न्यायालय से सबसे अधिक दिक्कत हो रही है. क्योंकि सरकार को परेशान करने वाले कुछ मामले तो अदालत ने खुद अपने हाथ में लिया है और कुछ जनहित याचिका के जरिए. जिस ढंग से 2जी मामले की जांच की निगरानी सर्वोच्च अदालत ने अपने हाथ में ली है, उससे भी सरकार को दिक्कत हो रही है. हालांकि, न्यायपालिका के भ्रष्टाचार के मामले उठते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ समय से खास तौर पर उच्चतम न्यायालय ने जिस तरह से काम किया है उससे लोगों का इस तंत्र पर भरोसा बढ़ा है.

सरकार और अदालत का टकराव उस वक्त ज्यादा बढ़ता हुआ दिखता है जब अदालत चुनावी लाभ से चलाई जा रही सरकारी योजनाओं पर चोट करती है. ताजा मामला हज सब्सिडी का है. सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को हाल ही में केंद्र सरकार को यह निर्देश दिया है कि हज सब्सिडी कम करते हुए इसे अगले दस सालों में खत्म किया जाए. सरकार के स्तर पर दबी जुबान में ही सही उच्चतम न्यायालय के इस फैसले का विरोध हुआ लेकिन सार्वजनिक तौर पर आक्रामक रवैया नहीं अपनाया गया.

पिछड़ी जाति के लोगों को प्रमोशन में आरक्षण देने के प्रस्ताव को केंद्रीय कैबिनेट ने हरी झंडी दे दी है लेकिन जानकार बता रहे हैं कि पहले की तरह ही इस प्रस्ताव का उच्चतम न्यायालय में अटकना लगभग तय है. इस बारे में खबर यह भी है कि अटॉर्नी जनरल जीई वहानवती ने कानून मंत्रालय को एक पत्र लिखकर बताया है कि प्रोन्नति में जाति के आधार पर आरक्षण देने का प्रस्ताव कानूनी तौर पर संभव नहीं है और सरकार के ऐसे किसी फैसले को उच्चतम न्यायालय पलट सकती है. इसी साल अप्रैल में उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार के एक ऐसे ही फैसले को पलट दिया था. इसके बावजूद सरकार ने न सिर्फ कैबिनेट से इस प्रस्ताव को मंजूर कराया बल्‍कि इसके लिए जरूरी संविधान संशोधन विधेयक को संसद में भी पेश किया. यह एक ऐसा मामला है जिसमें सरकार तीन-तीन संस्‍थाओं का अवमूल्यन कर रही है. पहली बात तो यह है कि सरकार अटॉर्नी जनरल के राय को कोई महत्व नहीं दे रही. वहीं दूसरी तरफ सरकार न्यायपालिक के पहले के फैसले से कोई सबक नहीं ले रही. तीसरी बात यह कि जब ज्यादातर कानूनी जानकार यह कह रहे हैं कि सरकार का यह फैसला उच्चतम न्यायालय में पलट दिया जाएगा तो फिर इसे संसद से मंजूरी दिलाकर संसद के लिए भी अपमानजनक परिस्‍थिति पैदा करने की तैयारी कर रही है. जैन कहते हैं, ‘अदालत ने पिछली बार सरकार से ऐसा कोई आरक्षण लागू करने से पहले आंकड़े मांगे थे. जिससे इसकी जरूरत को साबित किया जा सके. क्या सरकार ने ऐसा कोई अध्ययन कराया है? मेरी जानकारी में तो ऐसा नहीं हुआ है. तो फिर सरकार कैसे सोच रही है कि इस बार उच्चतम न्यायालय सरकार के इस फैसले को हरी झंडी दे देगी. साफ है कि सरकार वोट बैंक राजनीति को ध्यान में रखकर ऐसा कर रही है.’

 

भविष्य के संकेत

टीएन चुतर्वेदी, सीके जैन और सुभाष कश्यप समेत संविधान की जानकारी रखने वाले लोगों का स्पष्ट मत है कि संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्‍थाओं की साख गिराने से अंततः लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होंगी और मौजूदा व्यवस्‍था पर से लोगों का भरोसा उठने लगेगा. लोग फिर न तो व्यवस्‍था चलाने वाले पर और न ही उनकी बातें व कार्यों पर विश्वास करेंगे. पहले से ही आम जनमानस के बीच नेताओं और राजनीति को लेकर बहुत बुरी छवि बनी हुई है लेकिन अगर राजनी‌तिक वर्ग बार-बार इसी तरह से संवैधानिक संस्‍थाओं से टकराता रहा तो स्‍थितियां और खराब होंगी. खतरा यह है कि पहले से ही विश्वसनीयता के संकट से सबसे अधिक जूझ रहे राजनीतिक वर्ग के औचित्य पर ही देश की जनता सवाल न उठाने लगे. फिर पूरी व्यवस्‍था में कोई भी केंद्र ऐसा नहीं बचेगा जिस पर लोग भरोसा कर सकें. ऐसे में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर अराजकता का खतरा स्वाभाविक है. इसकी आंच की शिकार जनता तो होगी ही लेकिन लपटें उस राजनीतिक वर्ग तक भी पहुचेंगी जिसकी सभी गतिविधियों के केंद्र में किसी भी कीमत पर सत्ता में बने रहना या फिर उसे हासिल करना है. ऐसे में न सिर्फ वह सपना कहीं खो जाएगा जिसके सहारे आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी बल्‍कि उस दृष्‍टि का भी कोई मोल नहीं रहेगा जिसे आधार बनाकर देश के लोकतांत्रिक व्यवस्‍था की बुनियाद रखी गई थी.

 

प्रधानमंत्री की संस्‍था का अवमूल्यन

पिछले साल के आखिरी दिनों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को रूस के दौरे पर जाना था. वहां उन्हें भारत और रूस की प्रमुख कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में हिस्सा लेना था. इस कार्यक्रम का आयोजन इंडो-रशिया सीईओज़ काउंसिल के बैनर तले होना था. भारत की तरफ से इस संगठन की अध्यक्षता रिलायंस इंडस्ट्रीज के कर्ताधर्ता मुकेश अंबानी करते हैं. लेकिन आखिरी वक्त पर मुकेश अंबानी ने प्रधानमंत्री के साथ रूस के दौरे पर जाने से मना कर दिया. हालांकि, प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों ने मुकेश अंबानी को मनमोहन सिंह के साथ रूस चलने के लिए मनाने की कोशिश की लेकिन बड़े अंबानी समय की कमी की बात कहकर रूस दौरे पर नहीं गए. इसका नतीजा यह हुआ कि प्रधानमंत्री के लिए प्रस्तावित यह कार्यक्रम उस ढंग से नहीं हो पाया जैसी योजना बनाई गई थी.

 

यह घटना साबित करती है कि देश का कॉरपोरेट तबका इस कदर ताकतवर हो गया है कि उसके लिए प्रधानमंत्री कार्यालय से लगातार किए जा रहे अनुरोध की कोई कीमत नहीं है. इस घटना का दूसरा संदेश यह भी है प्रधानमंत्री की संस्‍था कुछ इस तरह कमजोर हो गई है कि सरकार के सहारे अपना कारोबार चमकाने वाले आज सरकार की मुखिया को ही चुनौती देते नजर आ रहे हैं. दरअसल, मनमोहन सिंह पर प्रधानमंत्री की संस्‍था के अवमूल्य का आरोप तब से ही लग रहा है जब से उन्होंने यह पद संभाला है. उस समय से ही लोग मानते रहे हैं कि उन्हें सर्वोच्च राजनीतिक पद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की कृपा से मिला है और वे एक कठपुतली प्रधानमंत्री हैं. मनमोहन सिंह पर यह आरोप भी लगता है कि वे कई फैसले सोनिया गांधी के दबाव में आकर करते हैं और इससे प्रधानमंत्री की संस्‍था का अवमूल्यन हुआ है. मनमोहन सिंह पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी के दबाव को लेकर जनभावना का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मनमोहन सिंह को लेकर आज तरह-तरह के सबसे अधिक चुटकुले और कार्टून बन रहे हैं. सबका लब्बोलुआब यही है कि वे गांधी परिवार के इशारे पर काम करते हैं.

 

इसे गांधी परिवार के इशारे पर काम करने का परिणाम कहें या कुछ और लेकिन आज हालत यह है कि मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री की बात को गंभीरता से नहीं लेने वाले भी कुछ मंत्री मौजूद हैं. यह बात कांग्रेसी नेता भी आपसी बातचीत में स्वीकारते हैं. मनमोहन सिंह पार्टी के आदमी तो कभी रहे नहीं हैं. इसलिए संगठन में मनमोहन सिंह को महत्व मिलना अस्वाभाविक नहीं लगता. लेकिन किसी ऐसे व्यक्‍ति को देश का सबसे बड़ा राजनीतिक पद अगर कोई पार्टी देती है तो साफ है कि वह प्रधानमंत्री की संस्‍था की मर्यादा को लेकर गंभीर नहीं है. कांग्रेस ने सरकार के ऊपर सोनिया गांधी की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) बना रखी है. इसका नतीजा यह हो रहा है कि सरकार जो भी अच्छा कर रही है उसका श्रेय एनएसी यानी सोनिया गांधी ले रही हैं और सरकार की हर गलती का ठीकरा मनमोहन सिंह के सर फूट रहा है. संप्रग सरकार की कामयाबी के तौर पर रोजगार गारंटी योजना, सूचना का अधिकार और शिक्षा का अधिकार के तौर पर गिना जाता है. लेकिन इसका श्रेय मनमोहन सिंह को न देकर एनएसी को दिया जाता है.

 

मनमोहन सिंह की इस स्‍थिति पर पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा कहते हैं, ‘मनमोहन सिंह भले ही प्रधानमंत्री के पद पर बैठे हुए हों लेकिन उनके पास कोई ताकत नहीं है. ताकत है सोनिया गांधी के पास लेकिन उनके पास कोई जिम्मेदारी नहीं है. मनमोहन सिंह के पास जिम्मेदारी तो है लेकिन ताकत नहीं है. मनमोहन सिंह के पास न नैतिक ताकत है, न राजनीतिक ताकत है और न सरकारी ताकत है. इस वजह से जिस नेतृत्व की आवश्यकता इस देश को अभी है, वह नहीं मिल पा रहा है.’ हालांकि, प्रधानमंत्री का बचाव करते हुए मनमोहन सिंह के पहले मंत्रिमंडल में उनके सहयोगी रहे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर कहते हैं, ‘विपक्ष का आरोप है कि कहने को मनमोहन सिंह सरकार के मुखिया हैं लेकिन नियंत्रण कहीं और है इसलिए वे खुलकर काम नहीं कर पा रहे हैं. अब इसमें देखने वाली बात यह है कि अगर मनमोहन सिंह राय-मशविरा नहीं करें तो उन पर यह इल्जाम लगेगा कि वे विचार-विमर्श नहीं करते. अगर वे विभिन्न मामलों को लेकर राय-सलाह करते हैं तो उन पर विपक्ष के लोग यह आरोप लगाते हैं कि ये तो बलहीन प्रधानमंत्री हैं. तो आखिर मनमोहन सिंह करें क्या?’

कहां तो मनमोहन सिंह को दल के दायरे से ऊपर उठकर संवैधानिक संस्‍थाओं पर हो रहे हमलों की आलोचना करनी चाहिए थी लेकिन कांग्रेस की तरफ से सीएजी पर हो रहे हमले की अगुवाई खुद करके उन्होंने प्रधानमंत्री पद की गरिमा के खिलाफ आचरण किया है. कोयला ब्लॉक आवंटन मामले में जो बयान उन्होंने संसद में दिया उसके उलट बातें खुद उनके ही द्वारा गठित अशोक चावला समिति ने की थी. इसलिए जानकारों ने प्रधानमंत्री के उस बयान को भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने की कोशिश के तौर पर देखा. जब शुरुआत में प्रधानमंत्री पर विपक्ष की ओर से शब्दों के वाण चलाए जाते थे तो सरकार की ओर से कहा जाता था कि भले ही देश में आप मनमोहन सिंह का महत्व नहीं समझ पा रहे हों लेकिन विदेशी मीडिया उनकी तारीफ करते हुए नहीं अघाती. लेकिन पिछले कुछ महीनों में एक-एक कर सभी बड़ी विदेशी पत्र-पत्रिकाओं ने मनमोहन सिंह पर हमले किए. प्रधानमंत्री को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्‍थाओं का भी चहेता बताया जाता था लेकिन अब तो ये संस्‍थाएं भी नीतियों के स्तर पर शिथिलता बरतने का आरोप लगाते हुए मनमोहन सिंह की जमकर आलोचना कर रही हैं.

मनमोहन सिंह को एक ऐसा पद मिला था जिसकी गरिमा बढ़ाने का काम खास तौर पर पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्‍त्री और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे राजनेताओं ने किया था. इस सूची में शामिल होने का अवसर मनमोहन सिंह को भी मिला था. लेकिन क्या देश के नागरिक उन्हें इस श्रेणी में रखकर देख पाएंगे?

 

सेना और सरकार

मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही आजाद भारत ने पहली बार सरकार और सेना के सांस्‍थानिक टकराव को देखा. हालांकि, इससे पहले भी कुछ मौकों पर सेना और सरकार आमने-सामने दिखे हैं लेकिन यह टकराव सांस्‍थानिक न होकर व्यक्‍तिगत ज्यादा दिखती थी. पहला मामला 50 के दशक के आखिरी दिनों का है. उस वक्त के सेनाध्यक्ष केएस थिमैया और रक्षा मंत्री वीके कृष्‍ण मेनन के बीच 1959 में टकराव इस कदर बढ़ा था कि सेनाध्यक्ष ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को अपना इस्तीफा सौंपा दिया. विवाद इस बात के लिए हुआ था कि चीन से संभावित युद्घ के खतरों को भांपते हुए थिमैया ने सरकार से कुछ कदम उठाने की सिफारिश की थी. मेनन इसके लिए तैयार नहीं थे. हालांकि, पंडित नेहरू ने थिमैया को इस बात के लिए राजी किया कि वे अपनी इस्तीफा वापस ले लें. देश की रक्षा जरूरतों को भांपते हुए नेहरू ने थिमैया की कुछ सिफारिशों को लागू भी किया. सरकार और नौ सेना 1998 में उस वक्त आमने-सामने दिखे जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी. नौ सेना प्रमुख विष्‍णु भागवत ने सरकार के उस फैसले के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था जिसमें हरिंदर सिंह को नौ सेना का नंबर दो बनाने का फैसला किया गया था. टकराव इतना बढ़ा कि सरकार ने भागवत का हटाया. इसे भागवत ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी लेकिन वहां उन्हें मुंह की खानी पड़ी. लेकिन थिमैया और भागवत के मामले में लड़ाई सांस्‍थानिक कम और व्यक्‍तिगत ज्यादा थी.

लेकिन जब हाल ही में सेवानिवृत्त हुए सेनाध्यक्ष वीके सिंह के मामले में जो कुछ हुआ उसने साबित किया कि यह सरकार समस्याओं के समाधान के बजाए टकराव को ज्यादा तरजीह दी. विवाद वीके सिंह की जन्म तिथि को लेकर शुरू हुआ है और सरकार पर आरोप लगा कि वह विक्रमजीत सिंह को सेनाध्यक्ष बनाने के लिए वीके सिंह की सेवानिवृत्‍ति जल्दी चाहती है. आरोप यह भी लगा कि विक्रमजीत सिंह सिख हैं और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इसलिए सरकार वीके सिंह के खिलाफ काम कर रही है. विवाद उस वक्त और गहरा गया जब वीके सिंह ने एक साक्षात्कार में यह कहा कि उन्हें रिश्वत की पेशकश की गई थी और इसकी सूचना उन्होंने रक्षा मंत्री एके एंटोनी को थी लेकिन एंटोनी ने कोई कार्रवाई नहीं की. इस पर काफी हो-हल्ला हुआ और ईमानदारी छवि वाले एंटोनी ने अपने पूरे सियासी जीवन की साख की दुहाई देते हुए बेहद भावनात्मक ढंग से अपना और सरकार का बचाव किया.

लेकिन सरकार और कांग्रेस के कई लोगों ने सेनाध्यक्ष पर यह आरोप लगाए कि वे इस पद का राजनीतिकरण कर रहे हैं. इस लड़ाई में कुछ नेता सेनाध्यक्ष के साथ खड़े दिखे. मामले को ऐसा मोड़ देने की कोशिश हुई कि सेना सिख और गैर सिख में बंट गई है. दोनों पक्षों की ओर से एक-दूसरे के खिलाफ इंटरनेट से लेकर कई स्तर पर दुष्प्रचार का अभियान जोर-शोर से चलाया गया. सरकार पर यह आरोप भी लगा कि वह कुछ मीडिया संस्‍थानों का इस्तेमाल कर सेनाध्यक्ष के खिलाफ खबरें लिखवा रही है. एक अखबार में सेना के त्‍ख्तापलट की तैयारी को भी इसी कड़ी से जोड़कर देखा गया. वहीं कुछ मीडिया संस्‍थान मनमोहन सिंह और विक्रमजीत सिंह के आपसी संबंधों की परतों को खोलने लगे. ऐसा लगा जैसे वे वीके सिंह की तरफ से रिपोर्टिंग कर रहे हों.

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्‍था में सेना की संस्‍था बेहद अहम होती है. जब भी कोई मुश्‍किल परिस्‍थिति आती है तो सेना को याद किया जाता है. यहां तक की आपातकाल में भी सेना को विशेष अधिकार मिलता है. ऐसे में सरकार और सेना के बीच टकराव की नौबत आना लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है. सेना और सरकार के टकराव के नतीजे क्या हो सकते हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण पाकिस्तान है. सरकार की नीयत पर सवाल उठना स्वाभाविक इसलिए भी है क्योंकि सेनाध्यक्ष रक्षा मंत्री से रिश्वत की पेशकश की बात बताता है लेकिन इस पर सरकार की ओर से कोई कार्रवाई नहीं होती. जब यह मामला सामने आता है तो एंटोनी से सवाल पूछे जाने के बजाए उन्हें सरकार में नंबर दो के तौर पर स्‍थापित कर दिया जाता है. तो क्या यह माना जाए कि सेना की जिस संस्‍था पर देश के लोग गर्व करते रहे हैं उससे टकराव का रास्ता खोलकर संप्रग की इस सरकार ने अपनी साख बचाने के लिए इसकी साख को दांव पर लगा दिया है?

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