जाति पर मिशनरियों के उद्धरण

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conversionडॉ. मधुसूदन

(एक)अनुरोध:

उद्धरण जो सीधे सीधे मिशनरियों के मुख से निकले हैं; अमरिकन प्रोफ़ेसर डर्क्स की नवीन प्रकाशित पुस्तक से (अनुवादित)उद्धरित हैं। ये, किसी हिन्दुत्ववादी के नहीं हैं। (कृपया १० मिनट निकाले, और पढें)कुछ अन्य विद्वानों को भी उद्धरित किया है।
(दो) मिशनरियों का गुप्त पत्राचार:

अब मिशनरियों के गुप्त पत्राचार का इतिहास खुला है। Castes of Mind नामक -प्रो. निकोलस डर्क्स (कोलम्बिया युनीवर्सीटी, न्यूयोर्क)की पुस्तक से इस गुप्त पत्राचार के खुलने से जाति व्यवस्था की अनदेखी और अनपेक्षित शक्तिका परिचय प्राप्त हो रहा है।जो हम दुर्बलता मानते हैं,वही हमारी शक्ति प्रतीत होती है। जाति-भेद नष्ट करो, जातियाँ नष्ट होने के बाद फिर से खडी करने की कोई आशा नहीं। भेदभाव मानसिकता में है।
यह प्रत्यक्ष प्रमाण है; कोई तर्क या अनुमान नहीं।

(तीन) मिशनरियों के (गुप्त) उद्धरण:

ये उद्धरण पुराने हैं, पर अभी अभी प्रकाश में आये हैं।
(१) ===> *यह जाति ही, इसाइयत के दिव्य संदेश (Gospel)को, भारत में, फैलाने में सबसे बडी बाधाओं मे से एक है।*
—-मिशनरी अलेक्ज़ान्डर डफ़, १८२९
(२)===>आगे कहता है,
*यह जाति कहांसे आयी पता नहीं, पर अब यह हिन्दू धर्मका अंग बन चुकी है।*
(page 131)

(३) ===>*मूर्ति-पूजा और अंध-विश्वास, {प्रस्ताव के शब्द- मेरे नहीं} इस महाकाय (हिन्दू) समाज के ढाँचे के, ईंट और पत्थर हैं; और जाति है, इस ढाँचे को जोडकर रखनेवाला सिमेन्ट।*——पारित प्रस्ताव-१८५० की, मद्रास मिशनरी कान्फ़रेन्स
(४)===> *जाति तोडो, धर्मांतरण के लिए*–इसपर एक उपचार के रूपमें, मिशनरियों का कहना था, कि ===>*शासन ने, जाति पर प्रखर हमला बोल कर,कुचल देनेका समय आ गया है।*
(५) मिशनरी शिकायत करते ही रहते थे, कि ===>*जाति धर्मान्तरण के काम में सबसे बडी बाधा है, और जाति से बाहर फेंके जाने का भय धर्मान्तरण में सबसे बडा रोडा है।*
(६)कुछ मिशनरियों ने तर्क दिए थे, ===>*और जातियों को बल पूर्वक तोड देने की सिफारिश की थीं।*– निश्चित ही, धर्मांतरण को, आसान करने के लिए।

(७)बहुत सारे मिशनरियों ने, इस (१८५७ के बाद) स्वर्ण अवसर का लाभ उठाने की दृष्टि से सिफारिश की थी, कि-===>*भारतपर ईसाइयत बलपूर्वक लादी जानी चाहिए, इस *विद्रोह (1857)के रोग* के उपचार के लिए।

(८)===>हरेक मिशनरी के सैंकडों अनुभव थे, जिसमें धर्मांतरण संभवनीय लगता था, जब तक जाति का हस्तक्षेप नहीं होता था:
==>*जाति ऐसी बुराई है, जो कभी कभी, दीर्घ काल तक सुप्त पडी होती है, पर समय आते ही, फिर सचेत हो जाती है, जब व्यक्ति उसके सम्पर्क में आ जाता है, या कुटुंब या अन्य परिस्थितियां इसका कारण बन जाती है।*
(४२ बी. डब्ल्यु. बी. एड्डीस, चर्च बोर्ड को पत्र, जन.६ १८५२)
==>जाति को धर्मांतरण में हमेशा प्राथमिक शत्रु के रूपमें देखा गया, था।

(९)==>*अथक परिश्रम और प्रलोभन से ही, कोई पढालिखा हिन्दू जब इसाइयत ग्रहण करने तैयार होता है। (मिशनरी उसके मतान्तरण का उत्सव जैसा आयोजन करते थे।) पर उस हिन्दू के कुटुम्ब के सदस्य भाग कर जाति के मुखिया को बुला कर लाते हैं। और मुखिया वहाँ आकर मात्र, उसे जाति-बाहर कर देने का भय दिखाता है। और सारा किया कराया परिश्रम धूलि में मिल जाता है।
(उद्धरण और भी है; आलेख की सीमा में सार दिया है।)

(चार)भेद भाव मिटाओ: लेखक)
भारत हितैषियों को चेतावनी:
जाति के आधार पर भेद ना करो। किसी न किसी रूप में विविधता तो रहेगी ही। विविधता कहाँ नहीं है? भेद मानसिक में है। आप के मन में है। वहाँ उसे मिटाना होगा। वहाँ नहीं मिटा, तो, और किसी भी व्यवस्था में वह उभरकर आयेगा।
विविधता तो प्रकृति में है। जब प्रकृति उत्क्रान्त होती है, प्रकार पैदा होते हैं। सारे गधे (या जानवर)समान गुण रखते हैं; पर,विविधता मनुष्य के विकास का लक्षण है।
अनुभव:
संघ में कोई जाति पूछता नहीं, न उसके आधारपर भेद किया जाता है।शिविरों में सम्मिलित होईए, O T C में जाइए। कभी किसी अपवादात्मक रीति से भी परिचय में जाति या वर्ण पूछेंगे नहीं।यही उचित विधा है। {बाहरवाले पूछते हैं।)
(पाँच)डॉ. कोनराड एल्स्ट का कथन:

डॉ. कोनराड एल्स्ट कहते हैं।(ये. विद्वान हैं, मिशनरी नहीं)
(क)जाति एक *अलगतावादी* समूह के नाते देखी जाती है, पर उससे पहले वह परस्पर सहायक सदस्यों का संगठित ढांचा है। इसी कारण ईसाई और इस्लामिक मिशनरियों को, हिन्दुओं को लुभाकर, बिरादरी से अलग कर, धर्मांतरण करने में बहुत कठिनाई हुयी। पोप ग्रेगरी (पंद्रहवे १६२१-२३) {मतांतरण आसान करने के हेतु से} ने आज्ञा दी कि मिशनरी, जातियों की पहचान धर्मांतरित ईसाइयों में भी सही जाएगी; इतने पर भी, स्थूल रूप से जाति ही,हिन्दुत्व की रक्षा करने में, और उसे बचाने में बडी सक्षम साबित हुयी।

(ख) इसी कारण मिशनरी फिर जाति पर हमला करने लगे थे, विशेष रूपसे ब्राह्मण जाति पर। इसी कुत्सित, ब्राह्मण विरोधी, उग्र प्रचार ने राक्षसी रूप ले लिया, जैसे कि ऍन्टिसेमेटिज़्म का भी हुआ था।

(ग) हरेक जातिकी संप्रभुता,न्याय व्यवस्था, कर्तव्य और अधिकार, निश्चित हुआ करते थे। बहुत बार उनके अपने स्वतंत्र मंदिर भी हुआ करते थे।
अंतर जातीय मामले ग्राम पंचायत सुलझाया करती थी, जहां, एकदम ( तथाकथित ) नीची जाति को भी निषेध करने का पूरा अधिकार हुआ करता था।

इस प्रकारकी मध्यवर्ती सामाजिक स्वायत्तता प्रचलित थी। और यह व्यवस्था, उस हुकुम-शाही के भी प्रतिकूल थी, जिस में सर्वसत्तात्मक राज्य के सामने आदमी का कोई मददगार नहीं मिलता । इस प्रकार का विकेंद्रित देहाती-नागरी (बिरादरी का )का सामाजिक ढाँचा और हिन्दू धार्मिक प्रजातन्त्र, इस्लामिक शासन तले, हिन्दुत्व को बचाए रखने भी, बहुत सक्षम साबित हुआ था।

(घ)जहाँ बुद्ध धर्म तो, उनके विहार नष्ट होते ही उजड गया,{पूरा अफ्गानीस्तान बुद्धिस्ट था, इस्लामी बन गया-मधुसूदन} पर हिन्दू समाज अपने जातियों के ढांचे तले रक्षा पा कर, तूफान झेल गया।
ध्यान रखिए, बुद्ध धर्म में जाति व्यवस्था नहीं है। पूर्वी बंगाल भी बुद्धधर्म से इस्लाम में धर्मान्तरित हुआ था, वह भी जातियोंके संगठित सहायता के अभाव के कारण।
ऐसी जाति-व्यवस्था, बहारसे आए हुए यहुदि, पारसी (इरानसे आए), और सिरीयन-इसाइ अतिथियों के लिए भी एक सहज आसरा (ढांचा)ही साबित हुयी।
वे केवल सहे ही ना गए, पर उन्हें परम्परा टिकाने में, सहायता भी दी गयी।

(च) पर, उन्नीसवी सदि के भ्रमित पश्चिमवादियों ने जातिप्रथा पर कॉलोनियल कल्चर थोप कर, पश्चिमी प्रजाति-वादी (रेशियल) सिद्धान्तों (थियरी) का (अंध)आरोपण कर दिया: यह था, “ऊंची गोरी जातियां बाहर से आक्रमण कर के, काले आदिवासियों पर, मालिकी हक जताने वाली,परदेश से आयी हुयी जातियां है।

(छ) यही मरी हुयी थियरी, हिन्दु विरोधी लेखकों द्वारा, बार बार, ऊब आने तक दुहराई जाती है : अब मूर्ति पूजा की गाली भोथी पड गयी है। “जातिवाद” की गाली का, नया शोध हिन्दुओं को राक्षस साबित करने में काम आ रहा है।

(ज) वास्तव में भारत में आपको, चमडी के सारे रंग मिल जाएंगे, और बहुत सारे ब्राह्मण भी, नेल्सन मॅन्डेला जितने काले भी मिल जाएंगे। प्राचीन-पुरातन “आर्य”
नर-नारी, आत्माएं जैसे कि, राम, कृष्ण, द्रौपदी, रावण (एक ब्राह्मण) और बहुत सारे वैदिक ऋषि भी, स्पष्ट रुपसे काले रंग वाले ही बयान किए गए है।
(झ) अंत में जाति-युक्त समाज इतिहास में सब से ज्यादा स्थिरता वाला समाज सिद्ध हुआ है।
(ट)भारतीय कम्युनिस्ट तो हँसी उडाया करते थे कि,” भारत में कभी एक भी, क्रांति तक हुयी नहीं.” (उन्हें कोई बाताएं) कि, सच में यह कोई अहरी गहरी उपलब्धि
(कमाई) नहीं है, {जो बिना खून बहाए उत्क्रान्ति कर लेती है। बदलाव भी आ जाता है, और खून भी कभी शायद न्यून मात्रा में बह्ता है।

जातिव्यवस्था हमारी दुर्बलता नहीं, जातिभेद हमारी दुर्बलता है। जाति व्यवस्था ने हमारी शतकों तक रक्षा की है; और हमें धर्मान्तरण से बचाया है।
सूचना:
अगला सप्ताह बाहर हूँ। प्रश्नों के उत्तर के लिए विलम्ब होगा।

5 COMMENTS

    • खुले पिंजडे में जाकर बैठनेका मन करता होगा। अंदर घुसकर फिर ताला लगवाया जा सकता है।

  1. जैसे की एक बड़ी आफिस को चलाने के लिए डिपार्टमेंट्स होते है, वैसे ही जाति व्यवस्था है. लेकिन यह आवश्यक है की कोई भी जाति दुसरे जाति को हेय दृष्टी से न देखे. सभी जातियों में आपसी सौहार्द्य कैसे स्थापित हो इसके लिए इंजीनीयरींग करने की जरुरत है.

  2. आचार्य मधुसूदन जी के सभी लेख विचारणीय तथा संग्रहणीय होते हैं.जाती व्यवस्था वर्ण व्यस्था से उपजी है तथा इस व्यवस्था ने भी हिन्दू समाज की बहुत सेवा की है.जैसा की ईसाई मिश्नरियों के विलाप से प्रकट है.लेख का सार लेख के अंतिम वाक्य में दिया है— “जाती व्यवस्था हमारी दुर्बलता नहीं, जाती भेद हमारी दुर्बलता है.”यह दुर्बलता तब तक दूर नहीं होगी जब तक हमारे जातीय नेतागण इस तथ्य को आत्मसात कर जातिभेद नष्ट करने के लिए सन्नद्ध नहीं होंगे

    • शर्मा जी एवं हिमवन्त जी—आप दोनों की प्रबुद्ध टिप्पणियाँ अच्छे बिब्दू पर प्रकाश फेंकती है।

      (१) नितान्त सही कहा आपने, जाति भेद तो जातिवाद आधारित पक्ष और उनका नेतृत्व दिन रात फैला रहे है।अब सभी नीची जाति में सम्मिलित होना चाहते हैं।
      (२) जीवन की महत्त्वाकांक्षा, क्या?
      कोई डिग्री? नहीं। कोई व्यवसाय? नहीं। नीची जाति में सम्मिलित हो लो। और जीवन भर टुकडे तोडो?
      (३) जिस में साहस की बात नहीं। पराक्रम, पुरूषार्थ नहीं। *मैं समुन्दर पी जाऊंगा ऐसी, या पर्बत की राई बनाने की आकांक्षा नहीं।
      (४)हमें तो भुक्कड राई बनने की प्रेरणा देश के कर्णधार दे रहे हैं। फिर जीवन की ऊंचाइयाँ छूए बिना ही एक दिन बिना जीवनकी मस्ती चखे मर जाएँगे।
      (५) पढाई में सहायता ठीक है। पर —-लम्बी टिप्पणी हो गई।

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