तरक्की के दौर में आरक्षण का क्या औचित्य

दीनानाथ मिश्र

आज के इस दौर में 25-30 प्रतिशत भारतीय शेर की गति से छलांग लगाते हुए तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। इतनी तेजी से कि पश्चिमी देश भी भारतीय रफ्तार को देख कर दंग हैं। लेकिन 20-25 प्रतिशत भारत की आबादी घायल हाथी की तरह टुकुर-टुकुर मुंह ताक रही है, जिसमें से कुछ असन्तुष्ट हैं, कुछ क्रुद्ध हैं। इनमें से अधिकांश लोग अनुसूचित जाति ओर जनजाति के हैं। यह वह लोग हैं जिनके लिए संविधान में आबादी के अनुसार 22 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। पिछले 55 वर्षों के आरक्षण के बावजूद इनकी स्थिति ज्यों की त्यों है। वो 5 प्रतिशत आबादी को यदि लाभ मिला भी तो अनुसूचित जातियों और जनजातियों की आम हालत पर कोई फर्क नहीं पड़ा।

अस्सी के दशक के अन्त में मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करके 27 प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण लागू कर दिया गया। उसका लाभ भी पिछड़े वर्गों को आमतौर पर नहीं मिला। अलबत्ता कुछ राज्यों में राजनैतिक उथल-पुथल हो गई। लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि कम से कम पिछड़ी जातियों की आर्थिक स्थिति में इससे मामूली परिवर्तन भी नहीं हुआ। 1947 के बाद उम्मीद की जा रही थी कि अब युगान्तकारी परिवर्तन होंगे। मगर समाजवादी और साम्यवादी विचारधाराओं के प्रचार के कारण देश ने गलत रास्ता पकड़ लिया। हालांकि अब यह रास्ता बदल दिया गया लेकिन इसे बदलने में 40 वर्षों की देर हो गई।

भ्रान्त और गलत अवधारणा करोड़ों लोगों के मन में बैठा दी गयी कि जो कुछ करेगी सरकार करेगी। गरीबी से मुक्ति दिलायेगी तो सरकार दिलायेगी। निरक्षरता से मुक्ति दिलायेगी तो सरकार दिलायेगी। बहरहाल हमको कुछ नहीं करना है, जो कुछ करना है सरकार को करना है। इससे ज्यादा जड़ता फैलाने वाली कोई विचारधारा हो नहीं सकती। दौर बदलने लगा है। लेकिन अभी भी निचले तबके के लोग पूरी तरह यह अनुभव नहीं कर सके हैं कि अगर उनकी स्थिति में सुधार होगा तो इसके लिये उन्हें स्वयं परिश्रम की पराकाष्ठा करनी पड़ेगी। सरकार नीतियों का अनुकूलन कर सकती है। सरकार आपातकालीन सहायता दे सकती है। सरकार सहायक की भूमिका अदा कर सकती है मगर चलना उन्हें ही पड़ेगा। नारों से वोट बैंक की राजनीति करने वाले आज फिर सरकार की भूमिका में आ गए हैं। अध्यादेश या संविधान परिवर्तन से समाज या किसी वर्ग विशेष को ऊपर नहीं उठाया जा सकता। ऐसा सम्भव होता तो कोई भी सरकार कभी भी कर सकती थी। तत्कालीन मानव संसाधन विकास मन्त्री, अर्जुन सिंह ने आर्थिक तकनीकी और प्रबन्धन संस्थानों में पिछड़ों के लिये आरक्षण का शिगूफा छोड़ दिया गया है। देश में विभिन्न धरातलों पर तरह-तरह की बहस चल रही है। मगर आनंद कुमार और अभयानंद जैसे बहुत से लोग चुपचाप इस तरह की समस्याओं से निपटने में अपना अपना योगदान कर रहे हैं।

आईआईटी में आरक्षण लादने का विरोध करने वालों में इन्फोसिस के अध्यक्ष एनआर नारायणमूर्ति भी हैं। उनका रूझान वामपंथी है। फिर भी उन्होंने कहा कि शिक्षा या रोजगार में आरक्षण इस समस्या का सही निदान नहीं है। बजाज आटो के चेयरमैन राहुल बजाज ने कहा है कि समाधान ऐसे वर्गों के बच्चों के शिक्षण-प्रशिक्षण में है। बजाज या नारायणमूर्ति ने जो बात वक्तव्यों में कही वही बात अभयानंद व उनके साथियों ने उदाहरण प्रस्तुत करके की। मानव संसाधन मंत्री के प्रस्ताव का उग्र विरोध व्यापक तौर पर हुआ है। सब मानते हैं कि पूरे समाज के तमाम बच्चों को प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा का अवसर खुला रहना चाहिए ताकि किसी जाति, मजहब के बच्चे अपनी सम्भावनाओं के उच्चतम शिखर तक जा सके। लेकिन आज भी एक चौथाई बच्चे प्राथमिक शिक्षा भी पूर्ण नहीं कर पाते। सब के पास रोजगार होना चाहिए। मगर यह तब सम्भव है जब कोई व्यक्ति रोजगार पाने लायक हो तो सही।

आज भारत के समृद्ध निगमित क्षेत्र के धनपति लोग सामाजिक जिम्मेदारी को अच्छी तरह समझकर समाज के प्रति अपनी देनदारी निभा रहे हैं। स्वयं नारायणमूर्ति की कम्पनियां दर्जनों तरह की समाज सेवा की गतिविधियों में कार्य कर रही हैं। आईटीसी जैसी कम्पनी के अध्यक्ष वाईसी देवेश्वर ने इसका ब्यौरा अपने एक आलेख में दिया है। कैसे 28500 हेक्टेयर जमीन में अब तक उनकी कम्पनी ने 10 करोड़ से अधिक पौधे लगाये। इससे ढाई लाख वनवासियों को रोजगार मिला। उनका इरादा एक लाख हेक्टेयर में 60 करोड़ पौधे लगाने का है जिससे 12 लाख वनवासियों को रोजगार मिलेगा। उनकी कम्पनी विदेशों से, पेपरबोर्ड बनाने के लिये, तीन लाख टन पल्प का आयात करती रही है। अब एक ओर वृक्षारोपण से एक तरह जहां अनुसूचित जनजातियों को रोजगार मिलने लगा है, वहीं इसी लकड़ी का पल्प बन सकेगा और वह वैश्विक प्रतिस्पर्धा में टिके रह सकेंगे।

इधर बड़े जोर शोर से खुदरा व्यापार में बड़े पैमाने पर कूदने वाले किशोर बियानी परिवार को कम से कम अपनी दुकानों की श्रृंखला के लिये एक लाख लोग चाहिये। उसके लिए वे पिछड़ों, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के युवाओं में से चुनाव कर उन्हें छह सप्ताह का प्रशिक्षण देंगे ताकि वह उनकी खुदरा दुकानों पर योग्यता और कुशलता से बात कर सकें। उन्हें बस ऐसा आदमी चाहिये जो चुस्ती फुर्ती से काम कर सकता हो। हिन्दी अच्छी तरह से जानता हो, अपने प्रदेश की भाषा जानता हो और अंग्रेजी के दो चार सौ शब्द जानता हो, अंग्रेजी नाम पढ़ सकता हो। इससे कहीं ज्यादा बड़े रोजगार के अवसर मुकेश अम्बानी के खुदरा बाजार भी दे रहे हैं। किशोर बियानी और मुकेश अम्बानी, वालमार्ट जैसे खुदरा व्यापार की बड़ी कम्पनियों से मुकाबले की तैयारी में हैं।

आज की सच्चाई यह है कि विश्वविद्यालयीन शिक्षा रोजगार के लिए उचित पात्र तैयार ही नहीं कर पा रही है। कुछ प्रोफेशनल संस्थान जरूर हैं जिसमें आई आईटी, आईआईएम आदि शामिल हैं। मगर रोजगार बाजार तरह तरह की दक्षता की मांग कर रहा है और यह आज युवाओं को मिल नहीं पा रही। वोट बैंक की राजनीति करने वाले व्यर्थ का विवाद पैदा करने में लगे हैं। योग्यता और दक्षता प्रदान करने की उनके पास कोई कारगर योजना नहीं है। इसकी ज्यादातर पूर्ति आजकल निजी क्षेत्र के संस्थान कर रहे हैं। अलबत्ता सरकार का ध्यान इस ओर जरूर है कि निजी क्षेत्र के संस्थानों पर किस प्रकार जकड़ पकड़ बनाई जाये। सरकारें साधक की बजाए बाधक की भूमिका में आती हैं।

भारतीय उद्योगों के महासंघ ने विविध उद्योगों और व्यापार क्षेत्रों में मानव संसाधन की आपूर्ति के लिए जातीय पक्षपात न करते हुए अनुसूचित जाति, जनजाति व पिछड़ों पर विशेष ध्यान देते हुए उनके शिक्षण-प्रशिक्षण के सकारात्मक कार्यक्रम पर पिछले साल विचार किया था। वह अब इसे वह लागू कर रहे हैं। विविध उद्योगों में अलग-अलग तरह की कुशलता की जरूरत होती है। आज सूचना प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र में एक खास तरह की प्रतिभा की जरूरत है। वहां अगर जातीय आधार पर चुने गए लोग आते हैं तो इस क्षेत्र में भारत की आज की चमक को आधात लगेगा। योग्यता किसी एक जाति की बपौती नहीं है, वहीं यह बात भी सच है कि जाति किसी योग्यता का नाम नहीं है। ना ही जन्म, जाति को अभिशाप के रूप में बर्दाश्त किया जा सकता है। अगर अभिशाप को मिटाना है तो सबसे ज्यादा जोर सरकार और समाज को शिक्षण-प्रशिक्षण पर लगाना पड़ेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)

5 COMMENTS

  1. आरक्षण केवल आर्थिक स्थिति के आधार पर लागू हो तो ही बेहतर है न की जाति के आधार पर !

  2. मधुसुदन जी
    अति सुंदर
    आपकी चंद पक्तिय ही नजाने क्या क्या कह रही है
    बस समझने की जरूरत है
    धन्यवाद

  3. यहां पश्चिममें खास तौर पर स्पर्धा Competition का आधार ग्यान को और क्षमता को ही माना जाता है। कंपनियां भी इसी आधार पर तरक्की करती है। इसी कारण कुछ भारतीय भी तरक्की कर पाते हैं, और उसीके कारण कंपनियां भी। {क्षमता बिन[गोरों को] आरक्षण से तो हम, कब के बेकार हो जाते, और कंपनियां भी बंद पड जाती।} एक्ज़ाम की तैय्यारी में, विषय को समझने में आप आरक्षण दे सकते हैं। पर कम नंबरों को ऊपर की नौकरी और ज्यादा नंबर वाले को नीचा ग्रेड नहीं दिया जाता। अक्षमता को बढावा देना भी भ्रष्टाचार ही है। ऐसे छोटे छोटे भ्रष्टाचार अंतमें देश को ही भ्रष्ट कर डालेंगे। यदि अक्षमता को प्रोत्साहित करते रहें, तो क्या भारत विश्व शक्ति बन पाएगा? ===> सारे नागरिकों की उपलब्धियोंका जोड (योग, Sum Total ) भारत की कुल उन्नति कही जाएगी।वह कैसे होगी? <==
    शिव लिंग पर दूध के अभिषेक के बदले क्या आप पानी का अभिषेक करना चाहेंगे? और फिर भ्रष्टाचार के विरोध में क्यों आवाज़ उठाते हो? आरक्षण भी तो मौलिक भ्रष्टाचार ही है। हां आर्थिक आधार पर सहायता की जाए। पुस्तकें, स्कॉलरशिप, साधन इत्यादि की सहायता दी जाए। पर अक्षमता को प्रोत्साहित ना करें। यदि मेरी कहीं भूल हो रही हो, तो आप दिखाइए, मैं अपना मत बदलने के लिए बाध्य हूं। देशको डुबोनेका यह आरक्षण एक षड यंत्र है। तरक्की काबिलियत पर हो, किसिके द्वेष पर नहीं।कल मुझे कोई कहेगा, कि सारे A ग्रेड वालों को B ग्रेड दे दो। और B को A तो फिर सभी को A ही दे दीजिए। फिर ग्रेड की क्या कीमत रहेगी। अभी डिग्री की कीमत इसी लिए घट गई है। एक पूछूं? फिर कालेज, स्कूल की भी क्या ज़रूरत? जिनको डिगी चाहिए, उन्हें बुलाकर डिग्रियां बांट दो। बजट बचाओ।

  4. कहो!—-
    कि घोडे को, ”गधा”,———-
    और गधे को ”घोडा” कहने से,——-
    गधे-घोडे का भेद क्या, मिट जाएगा ?———-
    पास को फैल, और फैल को पास कहने से,—–
    क्या ”फैल” भी ”विद्वान” हो जाएगा?—–
    और ”पास” भी ”बुद्धु” कहलाएगा?——–
    कुछ नहीं होगा !———
    खां-मो-खां आदमी उलझ जाएगा।———–
    शब्द तो वेदों से निकल आए हैं।——–
    अपना अर्थ ढोते चले आए हैं।——–
    भेद गर मिटाना है, तो मनसे मिटा।——-
    तो?———–
    मनुज संस्कारित हो जाएगा।——
    सारा ”समाजवाद” ”साम्यवाद” अरे !——–
    समस्त वाद और वेदांत समझ जाएगा।——-
    और -विवाद ही मिट जाएगा।———
    (४)
    भाषा बिगाड कर तो, — शब्द-संकर हो जाएगा।
    भाषा को उलझाकर,–क्या काम सुलझ जाएगा?
    आदमी को उलझाकर,—क्या क्रांति आ जाएगी?
    तू भी उलझ जाएगा,———
    हम भी उलझ जाएंगे।—————
    सदियों सदियों की तपस्या पूरखों की———
    खाक में मिल जाएगी।————
    (यहां गधा और घोडा रूपक ही है, किसी वर्ण या जाति की ओर उसका संकेत नहीं है।) यदि है, तो क्षमता की ओर है।

  5. १ बात तो बिलकुल साफ है जिस आरक्षण की बात की जाती रही है वह केवल दिखावे के लीये है
    जिसका कोई फायदा कमजोर तबके को कही भी कभी भी नहीं मिला

    फिर ऐसे झुनझुने की क्या जरूरत .

    उलटे वायामानाश्यता की खायी को बडाया जा रहा है .

    आज कमजोर तबका सरकार की नजर में भिखारी सा हो गया है (जो की है नही )

    १००% आरक्षण कर देने पर भी इन गरीबो का जो आज भी आरक्षण की आस लगाये बैठे है उनका कुछ भला नही होने वाला उनको बस झुनझुना मिला है और झुनझुना ही मिलेगा .

    कब समझेगे आरक्षण प्रेमी इस बात को .

    खुद को कर इतना बुलंद
    की खुदा भी पूछे ऐ बंदे तेरी रजा क्या है .

    दोस्तों मेरा किसी को आहत करने का कोई इरादा नही है यदि फिर भी किसी को बुरा लगे तो क्रप्या अन्यथा न ले .
    १ बार सोचे अवश्य .
    धन्यवाद

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