भारत में ‘राष्ट्रवाद और अंधराष्ट्रवाद का फर्क पुनः परिभाषित किया जाना जरुरी है !

0
225

किसी के लिए मैं दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक राष्ट्र हूँ ! किसी के लिए मातृभूमि हूँ ! किसी के लिए मादरे-वतन हूँ ! किसी के लिए सारे ‘जहाँ से अच्छा हिंदोस्ता हमारा’ हूँ ! किसी के लिए आरक्षण की वैतरणी हूँ ! किसी के लिए तिजारत का बहुत बड़ा बाजार हूँ !किसी के लिए धर्मनिरपेक्ष -समाजवादी गणतंत्र हूँ ! किसी के लिए सिर्फ सत्ता प्रतिष्ठान हूँ ! किसी के लिए जेहाद का खुरासान हूँ ! किसी के लिए धर्मांतरण की पवित्र उर्वरा भूमि हूँ ! और किसी के लिए महज एक विस्तृत चरागाह हूँ ! मेरी आत्मकथा इजिप्ट,यूनान और ‘माया सभ्यता’ से भी पुरानी है ! ये धरती ,ये चाँद ,ये सितारे व सूरज -अनादिकाल से मेरे उथ्थान-पतन के साक्षी हैं ! मेरे सिर पर धवल मुकुट हिमालय और चरणों में सागर का पानी है ! मेरे सीने पर कल-कल करतीं नदियां – गंगा – यमुना ,नर्मदा ,गोदावरी ब्रह्मपुत्र ,कृष्णा और कावेरी हैं ! मैं सदियों तक गुलामी की जंजीरों में जकड़ी रही ! मैं शहीदों के बलिदान की जीवंत निशानी हूँ ! असंख्य बलिदानों की कीमत पर पंद्रह अगस्त १९४७ को मैं आजाद हुई ! कहने को तो मैं एक स्वतंत्र सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य की पावन गंगोत्री हूँ ! किन्तु यथार्थ में अब केवल अनुशासनहीनता ,दरिद्रता ,साम्प्रदायिकता ,अलगाववाद और सरमायेदारों की लूट की निशानी हूँ ! मैं भारत राष्ट्र हूँ और संक्षेप में यही मेरी कहानी है !

जिस तरह गंगोत्री से रुद्रप्रयाग तक गंगा का पानी -वास्तविक गंगाजल ही हुआ करता है ,उसी तरह सभ्यताओं के उदयकाल में मेरा जन-मानस -उच्चतर मूल्यों वाला, उदार ,सहिष्णु और उत्सर्गवादी हुआ करता था। जिस तरह हरिद्वार से आगे देश के विभिन्न शहरों की गटरों और औद्योगिक कारखानों के प्रदूषित जहर ने भागीरथी -गंगा को दयनीय ‘गटरगंगा’ बना डाला है। ठीक उसी तरह दुनिया भर की यायावर ,कबीलाई ,बर्बर आक्रमणकारी दुर्दांत दस्युओं ने समय-समय पर भारत की वास्तविक संस्कृति और सभ्यता को बुरी तरह ध्वस्त किया है ! नियति ने मुझे एक लम्बे अरसे तक मानों किसी सनातन मानसिक गुलामी की बेड़ियों में जकड़ रखा था ! मूल्यों के उत्थान-पतन व स्वार्थों के अपमिश्रण के लिए केवल विदेशी आक्रमण ही जिम्मेदार नहीं हैं ,अपितु मेरे ‘धरतीपुत्रों ‘ की भी इस क्षरण में भागीदारी रही है ! बाह्य हमलावरों की रक्त पिपासा ने मेरे सनातन और आदिवासी -बहुसंख्यक जन -मानस को उसके अतीत के इस सुभाषित से विमुख किया है :- :-

”अयं निज ; परोवेति ,गणना लघुचेतसाम् ! उदार चरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम !! ”

यही वजह है कि मेरा वर्तमान जन-मानस इस उत्तरआधुनिक दौर में अनुशासनहीन ,दिखावटी और अराजक हैं। इस दौर के तरुण तेवर न तो राष्ट्रवादी है और न ही धर्मनिरपेक्ष – लोकतान्त्रिक व समाजवादी हैं ! भारतीय संविधान में वर्णित नीति -निदेशक सिद्धांत अब केवल पाठ्य क्रम की विषय वस्तु बनकर रह गए हैं। जो मुठ्ठी भर लोग फासिज्म,अधिनायकवाद और ‘अंधराष्ट्रवाद’ के खतरों की चिंता करते हैं , वे प्रगतिशील विचारक यदि इस अत्यंत आधुनिक ४ जी मोबाइलधारी कौम के आंतरिक विग्रह और खोखलेपन को गौर से देखेंगे तो उनकी आशंकाएं निर्मूल सावित होंगी ! जब वे अलगाववादियों के मंसूबों को जानेंगे व उग्रवाम या नक्सल- वादियों के बर्बर अराष्ट्रवादी चेहरे देखेंगे, तो उन्हें भी देश की अखंडता खतरे में दिखाई देगी ! व्यक्तियों – समाजों की स्वार्थपरक लोलुपताओं और शक्तिशाली दवंग- वर्गों द्वारा भारतीय संविधान की अवमानना का विहंगावलोकन करने पर उन्हें पूंजीवादी संसदीय लोकतंत्र भी पसंद आने लगेगा ! जो अन्तर्राष्ट्रीयतावादी हैं वे भी ‘राष्ट्रवाद’ की छाछ पीने को मजबूर हो जायेंगे ! वैसे भारतीय अखंडता व लोकतंत्र के लिए यह जरुरी भी है !

भारतीय आधुनिक जन-मानस की अराजक प्रवृत्ति में सनातन गुलामी की मानसिकता के दो विपरीत और नकारात्मक गुणसूत्र बहुत गहरे तक पैठे हुए हैं ! ये प्रतिगामी तत्व हर कौम को स्वार्थी,लालची व आक्रामक बनाते हैं। भारतीय डीएनए में मौजूद गुलामी की मानसिकता के लिए इतिहास की क्रूर घटनाएँ भी जिम्मेदार हैं। पहले तो देशी राजे-रजवाड़ों -सामंतों -जागीरदारों ,चक्रवर्ती -सम्राटों ने आवाम को इतना सताया और झुकाया कि उसकी रीढ़ की हड्डी ही दुहरी हो गयी। रियाया याने आम जनता को केवल यह सिखाया जाता रहा कि ‘ भारतभूमि तो केवल वीर भोग्या ही है ‘! राष्ट्र या देश तो केवल उनका है जिनका शासन -प्रशासन होता है। ‘प्रजा’ को धर्मशास्त्र के माध्यम से बार-बार सिखाया जाता रहा कि उसका कर्तव्य केवल अपने राजा को ही ईश्वर मानकर उसकी पूजा करना है । उसे लगान देना है। उसकी बेगार करना है।

स्वाभाविक है कि वीरता के जौहर दिखाने वाले राजा -सेनापति और सम्राट तो वंशानुगत अपना रक्तरंजित इतिहास लिखते रहे । किन्तु निरीह जनता -किसान ,मजदूर ,कारीगर और शोषित समाजों का कोई इतिहास नहीं लिखा जा सका !चारणों – भाटों ने जब सामंतों -राजाओं -सम्राटों को धीरोदात्त चरित्र के रूप में पेश किया तो जनता ने उन राजाओं-नबाबों को ही अपना आदर्श मान लिया । कालांतर में यह ‘विष्णु का अवतार ‘ राजा -महाराजा अन्नदाता ही कहा जाने लगा ! कुछ राजा-महाराजा तो भगवान विष्णु के २४ ‘अवतार’ ही बन गए ! यही वजह है कि ‘राष्ट्र’ शब्द को भूलकर प्रजा याने जनता राजाओं-सम्राटों की भक्ति में लींन होती चली गयी ! ब्रिटेन,अमेरिका,चीन और जापान जैसे देशों के अनुशासन के अभाव में -आजादी के बाद भी यह भारत भूमि अभी भी’ राष्ट्रवाद’ से महरूम है !

सामंतयुगीन प्रमादी देशी राजे-रजवाड़ों ने जब अपनी कायरता छिपाने के लिए ,हथियार डालकर ‘अहिंसा पर्मोधर्मः ‘का नारा लगाना शुरू किया तो वेस्वयंभू ‘महात्मा’ और तीर्थंकर बन बैठे। उन्हें संस्कृत वाङ्गमय का ज्ञान तो था नहीं ,अतः ब्राह्मणों की नकल करते हुए वे पाली और प्राकृत में अपना ‘अबूझ’ ज्ञान जनता को बांटकर बुजदिल और कायर बनाते चले गए। अनेक राजा भी उनके ‘संघम शरणम गच्छामि’ होते चले गए। भारतीय उपमहद्वीप में ‘राष्ट्रीय’ चेतना का तत्व पूरी तरह गायब था। मैदान साफ़ था। विदेशी खूंखार भारत पर चढ़ दौड़े और सदियों की गुलामी का इंतजाम होता चला गया। वैदिक धर्म’ और वेदान्त दर्शन में तो फिर भी शुक्राचार्य,वृहस्पति,वशिष्ठ ,विश्वामित्र चाणक्य जैसे ‘राष्ट्रवादी हुआ करते थे किन्तु वैदिक सिद्धांतों की आलोचना करने वाले, वैदिक कर्मकांड के प्रति विद्रोह करने वाले -तत्कालीन नए-नए पंथ और दर्शन के प्रणेता केवल मँगते ब्राह्मणों की तरह अधनंगे नहीं बल्कि पूरे नंग्न होकर ,हाथों में भिक्षा पात्र लेकर ‘भवति भिक्षाम देहि’ कहते हुए – घर-घर भीख मांगने निकल पड़े ! जब राजपुत्रों के ये हाल रहे हों तो आम आदमी का क्या हाल रहा होगा ? सैन्य शक्ति के अभाव में चारो ओर से विदेशी आक्रमण कारी भारत पर टूट पड़े होंगे ?

असुरक्षित भारतीय उपमहाद्वीप तो विदेशी जाहिलों के लिए मानों नख़लिस्तान ही था ! जब बाहरी हमलावरों ने ततकालीन बिखरे हुए भारत को बुरी तरह रौंद डाला तो निहथ्ती जनता ने अपने आप को गुलामी के बंधन में क्यों न बंधवा लिया होगा ? हमेशा यही वजह रही कि जब -जब विदेशी बर्बर आक्रान्ताओं ने ‘आर्यावर्त’ या भारत के उत्तर पश्चिमी भाग पर जब-जब हमले किये हैं, तो रीढ़-विहीन और ‘दासत्वबोध’ से पीड़ित जनता ने अपने हारते हुए राजाओं का साथ नहीं दिया । बल्कि मालिक काफूर जैसे भारतीय हिन्दू तो ,खिल्जियों के खुद ही मुलाजिम बनते चले गए । आम जनता ने ‘जिधर दम उधर हम ‘ का सिद्धांत कार्यान्वित किया। जब तक देशी राजा -महाराजा सत्ता में रहे तो उनकी भक्ति या वीरता के गुणगान करते रहे । उनके दरवारी- चमचे ,लेखक -कवि व साहित्यकार बनते रहे। जब विदेशी शासक सत्ता में आये तो आधुनिक दल बदलुओं की तरह अपने राजाओं की वीरता के विरदगान में ही जुट गए । परिणामस्वरूप देशी स्वयंभू महाबली ,चक्रवर्ती-सम्राट ,और ‘शब्दभेदी बाण ‘वाले तीरंदाज राजा अपनी आँखे विदेशी आक्रान्ताओं से फ़ुड़वाते रहे ! देशी राजा बुरी तरह हारते रहे। हिन्दोस्तान की शाश्वत गुलामी का नियति चक्र योन ही चलता रहा !

वैसे पहले हमलावर -शक ,हूँण ,कुषाण ,जट्ट-हट्ट ,मरहट्ट और यवन समूह के रूप में जो खैबर दर्रा पार करके आये वे तो भारत के पश्चिमी और मैदानी भागों में बसते गए । कुछ गंगा यमुना के दोआब तक भी पसर गए। कुछ नर्मदा तट तक जा पहुंचे ! चूँकि ये किसी खास धर्म या मजहब को नहीं मानते थे , इसलिए ततकालीन भारत का जो भी प्रचलित धर्म उन्हें नजर आया या समझ में आया वे उसी के मुरीद या अनुयायी होते चले गये । इस्लामिक आक्रमण से पूर्व के सभी आक्रमणकारी -पिण्डारी,वंजारे या तातार यहाँ भारत में किसी खास धर्म -मजहब के प्रचार-प्रसार के लिए नहीं आये थे ! बल्कि भारत की महिमा सुनकर और यहाँ प्रचुर धन धान्य की चाहत से प्रेरित होकर ही यहां आये थे ! इन युद्धोन्मत्त बर्बर कौम के योद्धाओं ने न केवल भारत के विशाल भू भाग पर कब्जा किया ,अपितु उन्होंने पराजित बचे-खुचे ‘देशी’ राजे-रजवाड़ों को भी अपनी विजित सेनाओं में शामिल कर लिया। परिवर्तीकल में यही राजपुत्र -दासीपुत्र अवसर आने पर स्वतंत्र राज्य कायम करने में भी सफल हुए। किन्तु आम जनता को तो केवल सनातन गुलामी का ही कोपभाजन ही बनना बदा था ! आम जनता -मजदूर,कारीगर ,किसान सबके सब गुलाम बनते रहे । विदेशी आक्रमणकारी और उन के बर्बर कबीले भारतीय समाज के नव शासक और रहनुमा बनते चले गए । भारतीय समाज ज्यादा से ज्यादा गुलामी की जंजीरों में जकड़ता चला गया।

कालांतर में अरब,यूनान और पारसीक साम्राज्यों ने भी भारत विजय के लिए निरंतर आक्रमण किये। किन्तु इनके बाद जो तुर्क,उजवेग ,पठान , मंगोल आक्रमण कारी आये। उन्होंने भारतीय समाज पर न केवल कई गुना निर्मम अत्याचार किये ,अपितु विकास के सभी सनातन मार्ग अवरुद्ध करते हुए – भारत की प्रत्येक पुरातन कृति या अनुसंधान को ‘शैतान की करामात’ या काफिरों का फ़ित्र’ घोषित करते चले गए। समस्त वैज्ञानिक और सांस्कृतिक सिलसिले पर प्रतिगामी परिश्थतियों पहरे और अपनी अरबी-तुर्की सभ्यता के जाल बिछा दिये । परिणामस्वरूप न केवल भारतीय पारम्परिक विज्ञान नष्ट होता चला गया अपितु जन -मानस को सैकड़ों साल तक सनातन दासता की भट्टी में भी सुलगते रहना पड़ा। हालाँकि कालांतर में भारतीय और मध्य एशियाई यायावर सभ्यताओं के मिश्रण का श्रीगणश होने लग गया था। किन्तु तब तक भारत की जनता और ज्यादा गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी जा चुकी थी ।

अंत में तिजारत के लिए अंग्रेज और यूरोपियन आये। उन्होंने पहले तो मद्रास,कोलकाता इत्यादि में व्यापरिक कोठियां -कालोनिया बसाइँ। बाद में सम्पूर्ण भारतभूमि पर कब्जा कर लिया । शुरुआत में एक कम्पनी के रूप में ही उन्होंने भारत को लूटा । १८५७ की क्रांति के बाद क्वीन विक्टोरिया युग का सूत्रपात हुआ। उनसे भारत को कुछ सौगाते भी मिली ! इन यूरोपियन्स और अंग्रेजों ने भारत के सभी वर्गों को अंग्रजी , पुर्तगीज,फ्रेंच आदि भाषाओं का ज्ञान उपलब्ध हुआ। ,यूरोपियन रेनेसां ,क्रांतियाँ और ‘राष्ट्रवाद’ से परिचय हुआ। अंग्रजों और यूरोपियन्स ने साइंस,रेल डाक, तार, टेलीफोन और आधुनिक तकनीकी एवं मेडिकल साइंस से भी भारतीयों को परिचय कराया। उन्होंने भारतीय जान-मानस को डेमोक्रसी और सम्विधान से भी परिचित कराया। यहाँ तक कि भारतीय स्वाधीनता सेनानियों को आजादी का मन्त्र भी सबसे पहले इन्ही अंग्रेजों -मि. ह्यूम व एनी विसेंट जैसी इंग्लिश -आयरिश हस्तियों ने ही सिखाया था । लेकिन भारतीय राष्ट्रवाद पर साम्प्रदायिकता के ग्रहण तब भी विसर्जित नहीं हुए।

आजादी मिलने के फौरन बाद देश की जनता को पता चला कि कबायलियों ने कश्मीर पर कब्जा कर लिया है। जब तक उससे उबरते कि पता चला की पाकिस्तान ने भी जूनागढ़ और कश्मीर पर हमला कर दिया है। फिर १९६५ में जंग जीतकर भारत जब जश्न की तैयारी कर रहा था तभी देश के ततकालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शाश्त्री का दुखद निधन हो गया ! और भारतीय फौज को पाकिस्तान का जो इलाका जीता था वह वापिस पाकिस्तान को दे देना पड़ा। हालाँकि इसके पहले चीन ने भी मेक मोहन रेखा को मानने से इंकार किया था। इस मुद्दे पर भारत -चीन युद्ध भी हो चुका था । ततकालीन भारतीय नेता ‘अहिंसा’ नीति पंचशील सिद्धांत बघारते रहे। भारतीय सेनाएं युद्ध में चीन से हारती रहीं ! भारत की छाती पर केवल राष्ट्रवाद की मातमी धुन बजती रही। “ये मेरे वतन के लोगो ,,जरा आँख में भर लो पानी ,,,जैसे अश्रु पूरित गाने सुनाये जाते रहे ! चीन से हारने के बाद भारत की कुछ भूमि भी इस झगड़े में विवादस्पद होती चली गयी। नसीहत के रूप में भारतीय जन -मानस ने कुछ अनुशासन और त्याग की बातें करना शुरू कर दीं ,राष्ट्रवादी साहित्य लिखा जाने लगा । ‘राष्ट्रवाद और अंधराष्ट्रवाद का फर्क भी पुनः परिभाषित किया जाने लगा।

१९७१ में बँगला देश को लेकर हुए भारत -पाक युद्ध के दौरान भारत को ,पूर्वी पाकिस्तान के बँगला भाषी दीन -दुःखीजनों के लिए भी लड़ना पड़ा। भारत पर पाकिस्तान,अमेरिका और चीन के द्वारा थोपे गए इस युद्ध में भारत की महान विजय हुई । वेशक भारत को यह जीत ततकालीन सोवियत संघ के नेतत्व के सहयोग से मिली। किन्तु तब दुनिया ने अमेरिका की गोद में बैठे पाकिस्तान को भी बुरी तरह हारते हुए भी देखा। सिर्फ यही एक मिशाल है भारत के शानदार इतिहास की जब भारत की जनता ने ‘राष्ट्रवाद’ का स्वाद चखा है ! उस महा विजय के बाद से भारतीय राष्ट्रवाद की खुमारी परवान चढ़ने लगाई तो पड़ोसी मुस्लिम राष्ट्र और भारत के कुछ गुमराह अल्पसंख्यक आतंकी होते चले गए। ने केवल मुंबई,कश्मीर या यूपी वेस्ट या गोधरा में बल्कि पूरे देश में ‘दाऊद,हाफिज सईद और अबु सलेम जैसे लोग आग मूतने लगे। ये लोग न केवल हिंसक वारदातें करते रहे ,न केवल नकली मुद्रा और ड्रग -माफ़िया बनते रहे बल्कि आम चुनाव में टेक्टीकल वोटिंग करने लगे। उनकी नकारात्मक भूमिका से आजिज आकर बहुसंख्यक समाज भी सशंकित होने लगा और वह भी हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक नेतत्व के पीछे लामबद्ध होता चला गया।

कुछ कमजोर वर्गों को आरक्षण दिया जाना कुछ समय के लिए तो उचित और जस्टीफाई था किन्तु अन्य सबल समाजों का आरक्षण मांगना -स्वार्थी उन्माद एवं बहुसंख्यक वर्ग का दैन्य भाव सावित करता है। इस तरह का जातिवाद ,खापवाद ,और आरक्षणवाद भारत के ‘राष्ट्रवादी’ आवेग को रोकने में सफल हो रहा है। यह खतरे की घंटी हैं। आलस्य ,स्वार्थ,भृष्टाचार,रिश्वत ,लूट,शोषण और अलगाववाद की मानसिकता ने भी ‘वतनपरस्तों’ को नाकारा बना डाला है । राष्ट्रवाद की गाड़ी फिर पटरी पर चढ़ने से पहले ही से उतरती जा रही है। भारतीय संसदीय लोकतंत्र और उसके राष्ट्रवादी तेवर यथार्थ के धरातल पर विज्ञानसम्मत होने चाहिए। केवल लूटते रहने या गुलाम होने को तो भारत अभिशप्त नहीं हो सकता ! किसी कवि का दोहा याद आ रहा है !

अति सज्जनता वापरी ,डग -डग ठोकर खाय !

मलयागिरि की भीलनी ,चंदन देत जलाय !!

भारतीय लोकतंत्र की खूबियां और भारतीय सकल समाज की सहिष्णुता का प्रतिबिम्ब ‘राष्ट्रवाद ‘ के आईने में भी दिखना चाहिए। समन्वयकारी मूल्य और धर्मनिरपेक्षता जैसे बेहतरीन गुणों का दुरूपयोग नहीं होना चाहिए। वर्तमान दौर में सत्ता पाने के लिए पूंजीपति वर्ग और सम्प्रदायिक तत्व ‘अंधराष्ट्रवाद’ का शंखनाद किये जा रहे हैं। यह खतरनाक सोच और कुदृष्टि है। भारत को अंधराष्ट्रवाद नहीं विशुद्ध लोकतान्त्रिक – धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद चाहिए। यही उसके गौरव के अनुकूल है। इसके लिए भारतीय आवाम को अपने स्वाधीनता संग्राम से कुछ त्याग और अनुशासन और सीखना होगा। राष्ट्रवाद और संसदीय डेमोक्रसी का आदर करने के लिए ‘आपातकाल’ जैसे किसी खास झटके की जरूरत पड़े तो देश हित में -जन हित में उसका भी विकल्प खुला रखना चाहिए ! वरना पाकिस्तान ,चीन और अन्य पड़ोसी मुल्क भारत को इसी तरह लगातार परेशन करते रहेंगे।

श्रीराम तिवारी

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here