जम्मू कश्मीर में नया प्रयोग कई प्रश्नों के उत्तर दे सकता है

bjp pdp kashmirडा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

जम्मू कश्मीर में अन्ततः पीडीपी और भाजपा ने मिल कर सरकार बना ली । पिछले दो महीने से इस नये प्रयोग को लेकर दोनों दलों में आपस में विचार विमर्श चल रहा था । देश ही नहीं विदेशों की भी इस प्रयोग के शुरु हो पाने या न हो पाने की संभावनाओं पर बहुत कुछ कहा और लिखा जा रहा था । वैसे तो कहा जा सकता है कि यह प्रयोग १९४७ से ही प्रारम्भ हो गया था । लेकिन प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने इसे जिस तरीक़े से निष्पादित किया , उससे इस प्रयोग से राज्य का नुक़सान ज़्यादा हुआ और इस प्रयोग की असफलता घोषित कर दी गई । नेहरु के समय ही सरदार पटेल और डा० श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसी प्रयोग को अलग तरीक़े से करना चाहते थे । नेहरु ने पटेल को तो उस समय इस प्रयोग में दख़लंदाज़ी करने से सख़्ती से मना कर दिया था लेकिन डा० श्यामा प्रसाद मुखर्जी पर नेहरु का कोई दबाव नहीं था क्योंकि उन्होंने इसे करने से पहले उनके मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया था । लेकिन आख़िर यह प्रयोग क्या है , जिसे लेकर २०१५ में भी एक बार फिर दुनिया भर की आँखें लगी हुई हैं ?
दरअसल १९४७ में जम्मू कश्मीर रियासत के शासक महाराजा हरि सिंह ने पाकिस्तान में शामिल होने के लिये जिन्ना व लार्ड माऊंटबेटन के तमाम प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दबावों को ठुकराते हुये , देश की नई संघीय सांविधानिक व्यवस्था में शामिल होने का निर्णय किया था । लेकिन पंडित नेहरु , महाराजा हरि सिंह के व्यक्तिगत तौर पर इतने विरोधी थे कि वे यह श्रेय हरि सिंह को देने के लिये किसी भी तरह तैयार नहीं थे । उन्होंने इसका सारा श्रेय, रियासत के पाँच विभिन्न संभागों में से एक , कश्मीर की नैशनल कान्फ्रेंस पार्टी के अध्यक्ष शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला को दिया । महाराजा हरि सिंह के प्रति उनका व्यक्तिगत विरोध इतना ज़्यादा था कि उनसे किये गये अपने पत्र व्यवहार में उन्होंने वाकायदा लिखा भी कि जम्मू कश्मीर के इस पूरे मामले में आप का कोई अस्तित्व नहीं है । प्रश्न यह है कि आख़िर वे इस सांविधानिक अधिमिलन का श्रेय शेख़ अब्दुल्ला को क्यों देना चाहते थे ? उसके पीछे इतिहास है । जिन्ना ने इस आधार पर पाकिस्तान का प्रश्न उठाया था कि हिन्दुस्तान में मुसलमान और हिन्दू एक साथ नहीं रह सकते , इसलिये मुसलमानों के लिये भारत का एक हिस्सा अलग कर देना चाहिये । नेहरु राजनीति के क्षेत्र में तो जिन्ना और उसके ब्रिटिश सहयोगियों को हरा नहीं सके , बल्कि उनकी विभाजन की माँग को स्वीकार ही कर लिया । लेकिन इस विभाजन से पैदा हुये अपने भीतरी अपराध बोध से निजात पाने के लिये , उन्हें जम्मू कश्मीर एक अच्छा अवसर दिखाई देने लगा । यदि जम्मू कश्मीर देश की सांविधानिक व्यवस्था में शामिल होने का निर्णय कर लेता है तो नेहरु दुनिया भर को यह बता सकेंगे कि जिन्ना झूठ बोलता था , मुसलमान तो अपनी इच्छा से भारत में रहना चाहते हैं , पाकिस्तान में शामिल नहीं होना चाहते । नेहरु का यह थीसिस तभी पूरा हो सकता था यदि भारत मे अधिमिलन की इच्छा जम्मू कश्मीर का कोई मुस्लिम नेता करे और उसी की माँग पर रियासत के भारत में अधिमिलन को स्वीकार किया जाये । नेहरु को विश्वास था कि रियासत के पाँच संभागों ( जम्मू,लद्दाख,कश्मीर,गिलगित,बल्तीस्तान ) में से एक , कश्मीर के नेता शेख़ अब्दुल्ला ऐसा कर सकते हैं । नेहरु स्वयं भी कश्मीरी थे , इसलिये उनकी शेख़ के साथ स्वाभाविक मित्रता भी थी । नेहरु का यह भी विश्वास था कि शेख़ कश्मीर के मुसलमानों के एक मात्र नेता हैं और उन्हीं के कारण कश्मीर के मुसलमान भारत में अधिमिलन के लिये तैयार हो सकते हैं । शेख़ के बारे में नेहरु की पहली अवधारणा ठीक हो सकती थी लेकिन दूसरी ग़लत थी । बहुत क्षेत्रों के मुसलमान पाकिस्तान बनाने या उसमें जाने के इच्छुक नहीं थे । सीमान्त प्रान्त यहाँ ९९ प्रतिशत मुसलमान थे , में मुस्लिम लीग पराजित हुई थी । पंजाब में जहाँ ६० प्रतिशत मुसलमान थे , वहाँ भी मुस्लिम लीग हारी थी और यूनियननिस्ट पार्टी जीती थी । इसी प्रकार कश्मीरी मुसलमानों का इतिहास , परम्परा अलग थी और वे इस कारण पाकिस्तान में जाने के लिये लालायित नहीं थे । नेहरु इसे शेख़ के प्रभाव का परिणाम मान बैठे थे । नेहरु की इस मानसिकता की पृष्ठभूमि में आसानी से समझा जा सकता है कि यदि यह प्रचारित हो जाये कि जम्मू कश्मीर को देश की नई संघीय सांविधानिक व्यवस्था का हिस्सा महाराजा हरि सिंह ने बनाया है तो नेहरु मानसिक रुप से भारत विभाजन के अपराध बोध से कैसे मुक्त हो सकते थे ? इसलिये उन्होंने एक साथ महाराजा हरि सिंह को धकियाना शुरु किया और शेख़ अब्दुल्ला को महिमा मंडित करना शुरु किया । यही कारण है कि नेहरु की कल्पना के कारकों पर किया गया यह प्रयोग अपने जन्म से ही ग़लत रास्ते पर चल पड़ा ।
शेख़ अब्दुल्ला नेहरु के मनोविज्ञान और उनके अपराध बोध को जल्दी ही समझ गये और उन्होंने जल्दी ही इसकी क़ीमत बसूलना शुरु कर दिया । विभाजन के उपरान्त जम्मू कश्मीर का प्रयोग, राज्य के तीनों संभागों ( शेष दो संभागों गिलगित और बल्तीस्तान पर पाकिस्तान ने क़ब्ज़ा कर लिया था और नेहरु ने उसे मुक्त करवाना इसलिये जरुरी नहीं समझा क्योंकि वहाँ के लोग शेख़ की पार्टी से ताल्लुक़ नहीं रखते थे और न ही उसे अपना नेता मानते थे ) के लोगों और महाराजा हरि सिंह के साथ संयुक्त रुप में संवाद के साथ करना चाहिये था , लेकिन नेहरु इसे बाक़ी तीनों को दरकिनार कर केवल कश्मीर के , और वह भी केवल शेख़ अब्दुल्ला के सहारे , करना चाहते थे । इससे भी बढ़ कर नेहरु कश्मीर संभाग में मुसलमानों की बहुसंख्यक देख कर एक बार फिर तुष्टीकरण के माध्यम से उन्हें प्रसन्न करने के रास्ते पर चल निकले थे । ध्यान रहे एक बार पहले भी बाबा साहिब आम्बेडकर ने कांग्रेस को इसी मुस्लिम तुष्टीकरण के रास्ते से बचने की सलाह दी थी , क्योंकि इसके परिणाम अशुभ ही निकलते हैं । संवाद हीनता से उपजा यह प्रयोग शेख़ अब्दुल्ला के भीतर केवल तानाशाही प्रवृत्तियाँ ही नहीं बल्कि स्वतंत्र होने तक की इच्छाएँ जगाने लगा था । लेकिन प्रयोग के इस स्टेज तक आते आते सरदार पटेल की मृत्यु हो चुकी थी , नहीं तो शायद वे ही इसमें कुछ दख़लन्दाज़ी करते और प्रयोग को सही दिशा में ले जाकर इसे डूबने से बचा लेते ।
ऐसी स्थिति में राज्य के ही एक दूसरे सशक्त राजनैतिक दल प्रजा परिषद ने इस प्रयोग को संतुलित करने का प्रयास किया और माँग की कि राज्य की क्षेत्रीय विभिन्नताओं को देखते हुये सभी संभागों की भागीदारी सुनिश्चित की जाये । सबसे बड़ी माँग तो यह थी कि कांग्रेस मुस्लिम तुष्टीकरण की अपनी असफल हो चुकी नीति को आधार बना कर जम्मू कश्मीर में यह नया प्रयोग न करें बल्कि इसका आधार पंथ निरपेक्षता होना चाहिये । नेहरु मुस्लिम तुष्टीकरण के चक्कर में पूरे राज्य को केवल कश्मीर बना देना चाहते थे और जम्मू व लद्दाख को उसके उपनिवेश । प्रजा परिषद का आन्दोलन देखते देखते जम्मू व लद्दाख समेत कष्मीर के कुछ हिस्सों में भी फैल गया । शेख़ ने नेहरु के पूरे समर्थन से इस आन्दोलन को बल पूर्वक दबाना चाहा । पन्द्रह लोग पुलिस की गोलियों से शहीद हो गये । इसी आन्दोलन में सहायता करने के लिये और शेख़ अब्दुल्ला से बातचीत करने के लिये डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी जम्मू कश्मीर गये थे ताकि तीनों संभागों की समानता के आधार पर सहभागिता सुनिश्चित की जा सके । लेकिन सरकार ने बातचीत करने की बजाये उन्हें जेल में डाल दिया और वहीं रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मौत हो गई । कांग्रेस तभी से लेकर अब तक इस प्रयोग को इसी लाईन पर चला रही थी । यही कारण था कि राज्य में हालात बद से बदतर होते गये और तीनों संभागों में खाई बढ़ती गई ।
प्रथम प्रधानमंत्री ने जम्मू कश्मीर में जो प्रयोग शुरु किया था और जिसके ग़लत उपकरणों के कारण नतीजे भयानक आ रहे थे , पन्द्रहवें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उसी प्रयोग को एक बार फिर लीक पर लाने का प्रयत्न किया है । अब की बार का यह प्रयोग नेहरु की मानसिक कल्पनाओं पर आधारित नहीं है बल्कि राज्य की ज़मीनी सच्चाईयों पर आधारित है । जम्मू संभाग में भारतीय जनता पार्टी ने पच्चीस सीटें हासिल की थीं । इतना ही नहीं बल्कि प्राप्त मतों के लिहाज़ से उसे राज्य में सबसे ज़्यादा मत प्राप्त हुये थे । सीटों के हिसाब से पीडीपी २८ के आँकड़े पर पहले नम्बर पर थी लेकिन प्राप्त मतों के लिहाज़ से भाजपा के बाद दूसरे नम्बर पर रही । मोटे तौर पर भाजपा जम्मू संभाग और पीडीपी कश्मीर संभाग के लोगों की महत्वकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है , ऐसा कहा जा सकता है । कांग्रेस और नैशनल कान्प्रेंस १९४७ से लेकर अब तक राज्य में जिन कारकों को आधार बना कर प्रयोग कर रहीं थीं , लोगों ने उसे मोटे तौर पर ठुकरा दिया है । यह ठीक है कि चुनाव से पूर्व पीडीपी और भाजपा जिस एजेंडा को लेकर मतदाताओं के पास गई थी , वे वैचारिक स्तर पर उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव ही कहे जा सकते हैं । विकास , अच्छा प्रशासन , भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन , ऐसे क्षेत्र हैं , जिनमें कोई भी राजनैतिक दल अलग स्टैंड नहीं ले सकता और न ही लेता है । इन मामलों में तो व्यक्ति और राजनैतिक दलों की विश्वसनीयता ही मुख्य होती है । इन मुद्दों पर कांग्रेस-नैशनल कान्फ्रेंस का ग्राफ राज्य की जनता की नज़र में बहुत नीचे गिरा हुआ है । पीडीपी -भाजपा का अभी परंखा जाना है । लेकिन जम्मू कश्मीर में असली झगड़ा दोनों पार्टियों में वैचारिक स्तर पर रहा है । राज्य की पहचान क्या है ? क्या किसी प्रान्त की पहचान मज़हबी आधार पर निश्चित की जा सकती है ? क्या केवल मुस्लिम बहुल होने से ही किसी प्रान्त को विशेष दर्जा दिया जा सकता है ? ये तमाम प्रश्न हैं जो जम्मू कश्मीर के तीनों संभागों में अलग अलग अर्थों में गूँजते रहते हैं । लेकिन इनका उत्तर नहीं मिल पाता क्योंकि जम्मू लद्दाख और कश्मीर संभाग में अविश्वास की खाईँ बढ़ाने में पूर्ववर्ती शासकों ने अपने राजनैतिक हित साधने के लिये बहुत बड़ी भूमिका अदा की है ।
पीडीपी और भारतीय जनता पार्टी की यह सरकार इस खाई को पाटने की दिशा में साहसी प्रयोग है । एक बार जम्मू लद्दाख और कश्मीर संभाग के लोगों में परस्पर संवाद और विश्वास के सेतु निर्माण हो जाते हैं , तो वे सभी प्रश्न जो आज हिमालय जितने ऊँचे दिखाई देते हैं , जेहलम की लहरों जैसे तरल और संगीतमय हो जायेंगे । जम्मू कश्मीर में नई सरकार का गठन इस नये प्रयोग की शुरुआत है । इसका प्रभाव केवल जम्मू कश्मीर ही नहीं बल्कि पूरे देश में पड़ेगा । इसकी सफलता की कामना की जानी चाहिये और पीडीपी व भारतीय जनता पार्टी दोनों के ही नेतृत्व को बधाई दी जानी चाहिये ।

1 COMMENT

  1. कहते हैं पूत के पग पालने दिखने लग जाते हैं , मुफ़्ती के बयान तो ऐसा संकेत दे रहे हैं ,कि कहानी ज्यादा दिन नहीं लिखी जा सकेगी भा ज पा अगर अपने जमीर को मार कर सत्ता में चिपकी रही तो देश का तो नुक्सान होगा ही खुद को भी अच्छा नुक्सान भुगतना होगा यह शादी कहीं बर्बादी की पटकथा साबित न हो जाये

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