संसद में सरकार की कठिन डगर

0
193

modiप्रमोद भार्गव
भाजपा नीत राष्ट्रिय जनतांत्रिक गठबंधन के केंद्र की सत्ता में काबिज होने के बाद यह पहला ऐसा लोकसभा सत्र होगा,जिसमें सरकार की डगर बेहद कठिन होगी। बिहार में महागठबंधन की अप्रत्याषित जीत और मध्यप्रदेश में रतलाम-झाबुआ लोकसभा सीट पर भाजपा की पराजय से समूचे विपक्ष के हौसले बुलंद हैं। इधर असमय फिल्म अभिनेता आमिर खान द्वारा बेवजह असहिष्णुता का राग अलाप देने से इस बुझती आग को फिर हवा मिल गई है। तय है, इस परिप्रेक्ष्य में एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता, लव जिहाद और घर वापसी जैसे मुद्दे शीतकालीन काल में गर्माने वाले हैं। हालांकि संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने और सत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए सुनियोजित रणनीति पर काम शुरू किया है, ऐसे संकेत मिल रहें हैं। इस कड़ी में विधानसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन का देशभर के सासंदों को लिखा वह भावनात्मक पत्र है, जिसमें सनातल मूल्यों और मर्यादाओं का हवाला देते हुए संसद चलने की अपील की गई है। लेकिन विपक्ष पर इस विलाप का कोई असर होगा,ऐसी उम्मीद कम ही है। विपक्ष इस सत्र को एक ऐसे शुभ अवसर के रूप में भुनाने की कोशिश करेगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत राजग गठबंधन की छवि को संविधान की मूल भावना के विरूद्ध घोषित कर दिया जाए। जाहिर है, अटके विधेयकों को पारित करना नामुमकिन है।
यदि राजग के कार्यकाल में चले अब तक के लोकसभा व राज्यसभा सत्रों का हिसाब लगाएं तो निराशा ही हाथ लगेगी। पिछला पूरा सत्र गैर विधायी बहसों में होम हो गया था। बिहार में भाजपा की जो शर्मनाक पराजय हुई है,उससे लगता है,विपक्ष के हौसले इस कदर बुलंद हो गए हैं,कि उसकी पूरी कोशिश रहेगी कि गैर विद्यायी बहसों में ही पूरा समय बर्बाद कर दिया जाए,जिससे देश-विदेश में यह संदेश प्रसारित हो कि प्रचंड बहुमत के बावजूद राजग नेतृत्व में कार्य कुशलता नहीं है। इस नजरिए से राहुल गांधी ने तो जैसे कमर ही कस ली है। राहुल ने अपनी हाल ही की सहारनपुर यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं पर कटाक्ष करते हुए कहा है कि ‘मोदी जी तो हवाई जहाज से विदेश जाते हैं। अब यहां सोचने की जरूरत है कि क्या किसी सक्षम देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति पानी के जहाज से विदेश यात्राएं करेगा ? राहुल को प्रत्यक्ष राजनीति में हस्तक्षेप करते हुए डेढ़ दषक का समय बीत गया,लेकिन अभी वे विधायी मुद्दों पर नीतिगत बहस करने से बचते हैं। यह शायद पहली मर्तबा है,जब प्रधानमंत्री का विदेश यात्राओं की सार्वजानिक खिल्ली उड़ाई गई है। जबकि मोदी ने निरंतर विदेश यात्राओं के मार्फत निवेष के लिए अनुकूल माहौल तो बनाया ही,राष्ट्रभाषा हिंदी का भी मान बढ़ाया है। आतंकवाद के विरूद्ध इतने अक्रामक हमले और आतंकवाद को वैश्विक मुद्दा बनाने की पहल देश के दूसरे किसी प्रधानमंत्री ने नहीं की। इसलिए इन यात्राओं को यदि राहुल संसद में भी मुद्दा बनाते हैं तो यह मकसद,देशहित नहीं,बेवजह संसद में मुद्दों को उछालने का पर्याय माना जाएगा।
हालांकि यह बात अपनी जगह सही है कि ताबड़तोड़ विदेश यात्राओं के बावजूद न तो अपेक्षित निवेष आया और न ही आर्थिक सुधारों ने गति पकड़ी। इसमें प्रमूख बाधा वस्तु एवं सेवा कर,श्रम सुधार और भूमि अधिग्रहण विधेयकों के संशोधन के रूप में पारित नहीं हो पाना माना जा रहा है। जीएसटी पर संविधान संशोधन विधेयक पिछले सात वर्ष से लंबित है। हालांकि संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू ने जाताया है कि वे विपक्षी दलों के उपयोगी सुझावों को प्रारूप में शामिल करके इसे संसद में मंजूरी के लिए पेश करेंगे ? इस विधेयक के संदर्भ में दावा किया जा रहा है कि यदि यह लागू हो जाता है तो इससे एकल कर प्रणाली अस्तित्व में आएगी और राज्यों द्वारा लगाए जाने वाले एक दर्जन से भी अधिक प्रकार के कर इसमें समाहित हो जाएंगे ? यदि यह विधेयक पारित हो जाता है तो इसे अप्रैल 2016 से अमल में भी ला दिया जाएगा। इसीलिए बिहार की हार के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा भी है कि ‘जीएसटी के पारित होने से बिहार जैसे उपभोक्ता राज्यों को ही सबसे ज्यादा लाभ होगा।‘यह बोलकर जेटली ने एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश की है। यदि लालू-नीतीश का महागठबंधन विधेयक को पारित कराने में सहयोग नहीं देता है तो एक तो कठघेरे में खड़ा होगा और सहयोग देता है तो यह संदेश जाएगा कि सरकार आर्थिक सुधारों की दिशा में कारगर पहल कर रही है।
इस कड़ी में सरकार के लिए भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक भी अहम रोड़ा है। इसका पारित होना तो कतई संभव नहीं लगता है। क्योंकि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जुलाई 2015 में नीति आयोग की बैठक बुलाई थी,तब संप्रग सरकार के कार्यकाल 2013 में लाए गए इस विधेयक पर भी चर्चा प्रस्तावित थी। केवल इस वजह से कांग्रेस शासित नौ राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने बैठक का बहिष्कार कर दिया था। इसके अलावा तमिलनाडू, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री भी नहीं आए थे। जयललिता और ममता बनर्जी ने तो लिखित रूप में विधेयक पर अपनी असहमति जताई थी। भाजपा शासित राज्यों को छोड़,जो वहां अन्य मुख्यमंत्री उपस्थित थे,उन्होंने संप्रग सरकार में बने विधेयक को ही किसान हितैशी बताते हुए,इसमें परिवर्तन की गुजंइश को नकार दिया था। यही वजह रही थी कि,मानसून सत्र में संशोधित विधेयक तनिक भी आगे नहीं खिसक पाया था। दरअसल इस विधेयक में संशोधन की पहल भाजपा के लिए बर्र का छत्ता साबित हो रही है। खेती-किसानी से जुड़े लोगों ने संशोधन को अपने हितों पर कुठाराघात माना। जिसका शिला मतदाताओं ने भाजपा को दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनावों में दिया। बावजूद भाजपा है कि अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाने पर तुली हुई है। भाजपा की मजबूरी उद्योग और उद्योगपतियों के हित साधना है। लेकिन उसे इस विधेयक में छेड़छाड़ की कोशिश करने की बजाय वैकल्पिक उपाय तलाशने चाहिए। इस नाते वह अर्से से बंद पड़े उद्योगों के अधिग्रहण का रास्ता खोल सकती है ?
इन दो महत्वपूर्ण विधेयकों के अलावा,रियल स्टेट रेग्युलेशन बिल, भ्रष्टाचार रोधी विधेयक,अनुसूचित जाति और जनजाति अत्याचार निवारण संशोधित विधेयक,मानसिक स्वास्थ्य देखभाल विधेयक और बालश्रम संशोधित विधेयक अटके हुए हैं। महिला आरक्षण और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों को इस सत्र में छूना ही मुश्किल है। जाहिर है,संसद में सरकार की डगर इस सत्र में कांटों पर चलने जैसी दिखाई देगी। असहिष्णुता,लव जिहाद और घर वापसी जैसे मुद्दों की छाया से भी सरकार का उभर पाना मुश्किल है।
तथाकथित असहिष्णुता के मुद्दे पर साहित्य व कला जगत के लोगों द्वारा सम्मान लौटाए जाने के ठंडे पड़ चुके मुद्दों को आमिर खान ने बयान देकर गरमा दिया है। इस मुद्दे पर विपक्ष का हमलावर होना तय है। कांगे्रस के लोकसभा में नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने लोकसभा अध्यक्ष को असहिष्णुता पर बहस करने के लिए नोटिस भी दिया है। जिस तरह से मानसून सत्र में विपक्ष ने भ्रष्टाचार पर सरकार को घेरकर पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ा दिया था,उसी तर्ज पर इस मुद्दे की संसद में गहराने की उम्मीद है। विपक्ष सदन में चर्चा के लिए प्रधानमंत्री का जबाव तलब करने की मांग भी कर सकता है। इस नाते सरकार व प्रधानमंत्री को इस मसले पर व्यापक बहस की मानसिकता बना लेनी चाहिए। बल्कि बेहतर यह होगा कि सरकार खुद असहिष्णुता के मुद्दे पर बहस के लिए आगे आए।
यदि आमिर खान बयान देकर आग में घी डालने का काम नहीं करते तो असहिष्णुता का बेवजह परचम फहराने का राग लगभग समाप्त हो चुका था। लेखकों और कलाकारों का पुरस्कार वापसी का प्रपंच भी ठहर गया था। क्योंकि बिहार चुनाव के परिणाम उन लागों की मंशा अनुसार आ चुके थे,जो देश में असहिष्णुता व असंवेदनशीलता के कृत्रिम वातावरण के निर्माण में लगे थे। हकीकत तो यह है कि बनावटी असहिष्णुता मोदी और भाजपा की छवि देश-विदेश में घूमिल करने के लिए कांग्रेस,वामपंथी और महागठबंधन के दलों ने गढ़ी थी। तब से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है। इसलिए अब जरूरत यह है कि सत्तापक्ष और संपूर्ण विपक्ष अपने दलगत हितों से ऊपर उठकर देशहित को देखें। जो व्यापक देशहित से जुड़े विधेयक और मुद्दे हैं,उनपर आम सहमति बनाएं और संसद को चलने दें। क्योंकि व्यर्थ की बहस और टकराव से राष्ट्रिय हित तो प्रभावित हो ही रहे हैं,विभिन्न दलों के बीच कटुता भी बढ़ रही है। यदि बढ़ती कटुता को ही यह सत्र भी होम हो जाता है तो तय होगा कि दलों और नेताओं को राष्ट्र के बुनियादि हितों की परवाह नहीं है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here