तमिलनाडु में सब अलग!

 

tamilnaduहरि शंकर व्यास

उत्तर भारत या यों कहें पूरा भारत बूझ नहीं सकता कि उसका जो तमिलनाडु है वहां चुनाव कैसे लड़ा जाता है! मतलब वह राजनैतिक बुनावट और चुनावी रंग में कितना अलग और निराला है। हां, आपने यदि तमिलनाडु के चुनावी माहौल को घूम कर नहीं देखा है, चुनाव के वक्त वहां घूमे नहीं है तो यह बूझ नहीं सकते है कि तमिलनाडु में चुनाव होना कैसे अलग होता है? तमिलनाडु अलग ही चटकीला और अबूझ प्रदेश है। इसकी भारत के किसी भी प्रदेश से तुलना नहीं हो सकती। काले,लाल याकि गहरे रंगों के झंडों की तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति में सबकुछ चरम, एक्स्ट्रीम है। झंडे काले, लाल तो राजनीति भी काली–लाल। वह भी इतना गहरा और भारी कि पूछो मत! फिर मामला पैसे का हो, राजनैतिक दुश्मनी या राज करने के तौर-तरीको का हो। सबमे लाल-काला तमिलनाडु!

हकीकत है कि अभी 92 साल के करूणानिधी और 68 वर्षीया जयललिता जिस आक्रामकता में भिड़े हुए है वह उत्तर भारत के किसी नेता के बूते की बात नहीं है। नरेंद्र मोदी- अमित शाह ने विशाल सभाओं, बड़े हार्डिंग और खर्च से धमाल बना 2014 में उत्तर भारत को चुनाव लड़ने का जो अनुभव कराया, जो तरीके दिखलाएं वह तमिलनाडु का दशकों पुराना घिसा-पीटा खेल है। वहां इतना पैसा खर्च होता है,व्यक्ति विशेष का ऐसा हल्ला, ऐसी ब्रांडिग होती है कि कल्पना नहीं हो सकती।
और यह भी जान ले कि चेहरों की यह ब्रांडिग 1960, 1970-75 से एक ही अंदाज में सतत चली आ रही है। 92 साल के करूणानिधी, 68 वर्षीया जयललिता कई दशकों से अपने को तमिल जनमानस में ब्रांडिग से ही पैंठाए हुए है। कभी एक सत्ता में रहता है तो कभी दूसरा। तीसरे किसी का विकल्प बन नहीं सकता।

पर ताजा चुनाव में एक अनहोनी है और वह पांच कोणी मुकाबले की तस्वीर बनने की है। मतलब जयललिता और करूणानिधी के अलावा तीन और धुरिया बनी है जिन्हे कुछ वोट पाने की उम्मीद है। इसी कारण सामान्य गणित में सोचा जा रहा है कि जयललिता के खिलाफ की विपक्षी एकता क्योंकि बुरी तरह बिखरी हुई है इसलिए वे मजे से लगातार दुबारा जीत कर नया रिकार्ड बनाएगी जबकि तमिलनाडु की विधानसभा का हालिया रिकार्ड यह है कि एक बार जयललिता का बहुमत बना तो दूसरी बार करूणानिधी की पार्टी का। सत्ता में रहते अगला चुनाव जीत जाए, ऐसा इन दो पार्टियों के बीच पहले कभी नहीं हुआ।

सो यदि जयललिता ने अपनी पार्टी को जीता दिया तो 92 वर्षीय करूणानिधी के राजनैतिक जीवन का वह इस दफा अंत
होगा। पर क्या ऐसा होगा? सिने स्टार विजयकांत के एलायंस, रामदास की पीएमके के एलायंस और भाजपा चुनाव में क्या कोई गुल नहीं खिलाएगे, इसको ले कर तमाम कयास है। अपना मानना है कि करूणानिधी और जयललिता एक तरह से अंतिम निर्णायक लड़ाई लड़ रहे हैं इसलिए ये पार्टियां बेमतलब हो जानी है। चुनाव में मुख्य मुद्दा और चेहरा जयललिता का ही है। उनके पक्ष या विरोध की हवा में 16 मई को वोट पडेगे। इसलिए या तो वे जीतेगी या डीएमके। तमिलनाडु दो ही धुरी पर थिरकना है। हकीकत यह है कि करूणानिधी 92 वर्ष के है। उनका पुराना एलायंस बिखरा हुआ है, उनका घर बिखरा हुआ है और चुनाव में पैसा बहा हुआ है। इसलिए अपने को तस्वीर समझ आती है। बावजूद इसके यदि जयललिता हारे तो वह दिवाने, आत्मदाह करने की हद तक के जूनुनी तमिल मतदाताओं का सर्द गुस्सा होगा जिसका ओर-छोर समझ नहीं आता।

दरअसल तमिलनाडु की राजनीति की विचित्रता तमिल मानुष का मनौविज्ञान है। वैसे बता दूं मैंने इस चुनाव में तमिलनाडु नहीं घूमा है मगर सालों पहले जयललिता और करूणानिधी के प्रचार को कवर करते हुए अपन ने दक्षिण तमिलनाडु में जो चुनावी रंग देखे है उन्हंे मैं अभी भी प्रासंगिक मानता हूं। गैर-तमिल सचमुच में तमिल मतदाताओं के सियासी जूनुन की कल्पना नहीं कर सकते है। दुनिया में सिने नेता के प्रति ऐसी दिवानगी कहीं देखने को नहीं मिलेगी। सिने नेता 90 साल का हो या 60 साल का, वह लोगों के दिमाग में रॉबिनहुड की तरह ऐसा पैंठा मिलेगा कि शाम को ठेके की दुकान पर परस्पर विरोधी एक दूसरे को मारने-मरने के लिए झगडा करते मिलेगे। नेताओं की सभाएं, रोड शो जनता का सैलाब लिए होता है।

सचमुच कल्पना नहीं हो सकती है कि जयललिता की सभाओं में कैसे जन सैलाब उमडता है या साठ पार का हिरो विजयकांत नशे के बावजूद लोगों में कैसा जज्बा बनाए रख सकता है? तमिलनाडु में आज जो राजनीति है वह पेरियार रामास्वामी,अन्नादुराई के द्रविड आंदोलन की विरासत लिए हुए है जिसमे ब्राह्यण विरोध-नास्तिकता के तत्व थे। मतलब गहरा सामाजिक, वैचारिक तब आधार था। वह आज ब्राह्यण जयललिता के निज जादू, करूणानिधी-स्टालिन की धर्म-मंदिर-ब्राह्रण पक्षधरता से हवा-हवाई हुआ पड़ा है। उसकी जगह या तो चेहरे के प्रति दिवानगी है या नकद नारायण की माया है।

हां, जैसा मैंने ऊपर लिखा कि वहा कितना पैसा खर्च होता है इसकी कल्पना नहीं हो सकती। इस चुनाव में वहां के एक जानकार ने अपने को बताया कि आज से हर वोटर के यहां दोनों पार्टियां का प्रति वोट पैसा पहुंचना शुरू हो गया है। कोई प्रति वोट पांच हजार रू की रेट बता रहा है तो कोई किसी पार्टी का दो हजार रू का तो कोई डेढ हजार रू के हिसाब से बांट रहा है। इस बार शराब नहीं सीधे पैसे का खेल है। पांच साल सत्ता से लोगों को रेवडि़यां बांटी जाती है और मतदान से ठिक पहले नकद पैसा।

ऐसे विचित्र खेल की अपन कल्पना ही कर सकते है!

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