राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में कर्नाटक के चुनाव परिणाम

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तनवीर जाफ़री 
कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणाम पिछले दिनों घोषित हुए। कांग्रेस पार्टी कर्नाटक विधानसभा में अपनी विजय पताका लहराने में कामयाब रही। हालांकि इस बार कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी से कर्नाटक की सत्ता ज़रूर छीनी है परंतु प्राय: इस राज्य पर पूर्व में कांग्रेस पार्टी का ही वर्चस्व रहा है। कर्नाटक में भाजपा की पहली येदिउरप्पा सरकार बनने के बाद यह माना जा रहा था कि भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस का गढ़ समझे जाने वाले दक्षिण भारत के राज्यों में से एक प्रमुख राज्य कर्नाटक में अपनी सेंध लगा ली है। परंतु बदलते राजनैतिक हालात व समीकरण के चलते कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री वीएस येदिउरप्पा ने भारतीय जनता पार्टी से अपना मुंह क्या मोड़ा कि भाजपा उस राज्य में पूरी तरह धराशायी हो गई। इस सत्ता परिवर्तन का एक सीधा सा अर्थ यह भी है कि कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी अपनी नीतियों के चलते सत्ता में नहीं आई थी बल्कि राज्य में येदिउरप्पा की अपनी लोकप्रियता तथा उनके अपने लिंगायत जातीय समीकरण के समर्थन के चलते भाजपा को कर्नाटक की सत्ता हासिल हुई थी।
कर्नाटक चुनाव परिणाम आने के बाद ज़ाहिर है जहां कांग्रेसी खेमे में स्वाभाविक रूप से खुशी व हर्षोल्लास का वातावरण है वहीं भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को इस हार का जवाब देते नहीं बन रहा है। कांग्रेस पार्टी के नेता इसे राहुल गांधी के नेतृत्व व उनकी मेहनत को जीत के रूप में परिभाषित कर रहे हैं तो भाजपाई इसे पार्टी की अंदरूनी कलह का परिणाम बता रहे हैं। परंतु हक़ीक़त में कर्नाटक के चुनाव परिणाम कुछ और ही इशारे कर रहे हैं। जिनको समझना न केवल कांग्रेस पार्टी बल्कि भाजपा के नेताओं के लिए भी बेहद ज़रूरी है। ग़ोरतलब है कि कर्नाटक में भाजपा के सत्ता में आने के बाद ही वहां भ्रष्टाचार के एक के बाद एक कई गंभीर मामले उजागर होने शुरु हो गए थे। इनमें प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से तत्कालीन मुख्यमंत्री येदिरुप्पा का नाम भी आया। रेड्डी बंधुओं के द्वारा कर्नाटक की लोहा उगलने वाली ज़मीनों को कोडिय़ों के भाव ख़रीदने और अवैध खनन कराए जाने के मामले उजागर हुए। कर्नाटक की भाजपा सरकार को बाहुबली रेड्डी बंधुओं के हाथों बंधक रहते देखा गया। कर्नाटक में सत्ता की नाक तले हो रहे भ्रष्टाचार ने अपनी सीमाएं इस हद तक लांघीं कि भाजपा को मजबूरी में येदिउरप्पा को मुख्यमंत्री पद से उनके न चाहते हुए भी हटाना पड़ा। नतीजतन येदियुरप्पा ने आवेश में आकर भाजपा छोड़ दी तथा कर्नाटक जन पक्ष के नाम से एक क्षेत्रीय दल गठित कर भाजपा नेतृत्व को यह जताने की ठानी कि राज्य में भारतीय जनता पार्टी का अस्तित्व पार्टी की हिंदुत्ववादी नीति अथवा किसी शीर्ष नेतृत्व के बल पर नहीं बल्कि अकेले उन्हीं के बल पर है। और कहा जा सकता है कि चुनाव परिणामों में येदिउरप्पा ने काफी हद तक यह साबित भी कर दिखाया।
भाजपा के लिए दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा गुजरात के बड़बोले मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की रही। जिसमें वे पूरी तरह असफल साबित हुए। अपने कुशल मीडिया प्रबंधन,मार्किटिंग तथा कट्टर हिंदुत्ववाद की आक्रामक छवि के बल पर देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे नरेंद्र मोदी को कर्नाटक में मुंह की खानी पड़ी। भाजपा में मोदी समर्थक वर्ग नरेंद्र मोदी के कर्नाटक चुनाव प्रचार करने के बाद इस ग़लतफ़हमी में था कि नरेंद्र मोदी वहां चुनाव प्रचार कर न केवल येदिउरप्पा के चलते होने वाले नुक़सान की भरपाई कर सकेंगे बल्कि अपनी तथाकथित करिश्माई व ड्रामाई भाषणबाज़ी के बल पर राज्य में भाजपा की सत्ता में पुन: वापसी की राह भी आसान कर देंगे। और इस योजना के अनुसार कर्नाटक की कमाईनरेंद्र मोदी को दिल्ली दरबार का रास्ता तय करने के दौरान उन्हें सहायक होगी। परंतु उन्हें हार की सौगात देकर दिल्ली दरबार के सपने संजो रहे नरेंद्र मोदी की राह में कर्नाटक के मतदाताओं ने एक बड़ा गतिरोध खड़ा कर दिया। कुछ यही स्थिति भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह की भी रही। पिछले दिनों उनके पार्टी अध्यक्ष का पद संभालने के बाद पार्टी द्वारा उनके अध्यक्ष होते पहला विधानसभा चुनाव कर्नाटक में ही लड़ा गया जिसका नतीजा हार के रूप में सामने आया। ऐसे में राजनाथ सिंह की कुशलता व उनके नेतृत्व पर उंगली उठना भी स्वाभाविक है।
उधर अपनी जीत से उत्साहित कांग्रेस पार्टी इसे न केवल पार्टी की नीतियों की जीत के रूप में पेश कर रही है बल्कि पार्टी के रणनीतिकार इस जीत का सेहरा राहुल गांधी के सिर पर बांधने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। निश्चित रूप से कांग्रेस नेताओं को नरेंद्र मोदी के बड़बोलेपन का जवाब देने का बहुत शानदार अवसर कर्नाटक की जनता ने फ़राहम करा दिया है। नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी के उस वक्तव्य को भी कर्नाटक की जनता को भ्रमित करने के लिए अपने भाषण में इस्तेमाल किया जिसमें कि राहुल गांधी ने किसी दूसरे नज़रिए से यह कहा था कि सत्ता ज़हर के समान है। परंतु कर्नाटक की जनता को संभवत: राहुल गांधी की यह बात तो उसी रूप में समझ में आई जैसा कि राहुल गांधी कहना चाह रहे थे। जबकि राहुल के इस वक्तव्य को लेकर नरेंद्र मोदी द्वारा मतदाताओं को वरगलाने की रणनीति बेकार साबित हुई। कर्नाटक चुनाव की हार से बौखलाए नरेंद्र मोदी चुनाव परिणाम आने के बाद हुई भाजपा की बैठक में शामिल होने तक के लिए नहीं आए। उधर येदिउरप्पा ने राज्य की सभी 223 सीटों पर कर्नाटक जन पक्ष के उम्मीदवार खड़े कर और एक नया क्षेत्रीय दल गठित कर राज्य में अपनी ज़ोरदार राजनैतिक उपस्थिति का एहसास करा दिया है। भले ही उन्हें कुल 6 सीटों पर विजयश्री क्यों न मिली हो परंतु उनके लगभग सभी उम्मीदवारों ने अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों में ठीक प्रदर्शन किया और लिंगायत समाज के मतों को अपनी ओर आकर्षित कर पाने में काफ़ी हद तक कामयाब रहे।
परंतु इन चुनाव परिणामों की वास्तविकता कुछ और ही है। और चुनाव परिणामों की इस ज़मीनी हक़ीक़त को समझते हुए कांग्रेस व भाजपा दोनों ही इस सच्चाई को खुले मन से स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। दरअसल राज्य में भारतीय जनता पार्टी के साथ-साथ पूर्व मुख्यमंत्री येदिउरप्पा को भी जनता द्वारा नकारा जाना इस बात का सुबूत है कि राज्य की जनता फ़िलहाल राज्य में सत्ता के स्तर पर भ्रष्टाचार को क़तई सहन नहीं कर सकती। और वहां के मतदाताओं ने भाजपा को सत्ता से हटाकर अपने भ्रष्टाचार विरोधी होने के रुख का साफ संकेत दे दिया है। रहा सवाल भाजपा के सत्ता से हटने के बाद कांग्रेस पार्टी की सत्ता में वापसी का, तो निश्चित रूप से राज्य के मतदाताओं के समक्ष राज्य में कांग्रेस पार्टी के समान कोई दूसरा शक्तिशाली विकल्प नहीं था। कांग्रेस पार्टी ने पहले भी राज्य में कई बार न केवल सत्ता संभाली है बल्कि राज्य का चहुंमुखी विकास करने के साथ-साथ राज्य को कई कुशल नेता भी दिए हैं। इसलिए मतदाताओं ने भाजपा के स्थान पर जेडीएस अथवा केजेपी को चुनने के बजाए कांग्रेस पार्टी के पक्ष में मतदान करना ज़्यादा बेहतर समझा। परंतु चुनाव परिणाम आने के बाद अब कांग्रेस पार्टी अथवा उसके नेता इस बात के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं कि वे कर्नाटक की जीत को चाहें तो राहुल गांधी की जीत के रूप में परिभाषित करें अथवा इसे कांग्रेस पार्टी की नीतियों की जीत बताएं। वैसे सोनिया गांधी कर्नाटक में पार्टी की विजय को पार्टी कार्यकर्ताओं की जीत का नाम भी दे रही हैं। कर्नाटक चुनाव परिणाम आने के बाद राज्य में कांग्रेस की सत्ता में वापसी को लेकर एक सवाल यह भी उठ रहा है कि यदि राज्य के मतदाता भ्रष्टाचार के इतने विरोधी थे तो उन्होंने उस कांग्रेस पार्टी को क्यों चुना जिसके केंद्रीय सत्ता में रहते हुए आए दिन कोई न कोई बड़े घोटाले दर्ज होते जा रहे हैं। निश्चित रूप से यह प्रश्र बहुत ही महत्वपूर्ण है। और इसका समुचित उत्तर तथा कर्नाटक की जनता की इस विषय में वास्तव में क्या राय है यह जानने के लिए 2014 में होने वाले संसदीय चुनावों तथा उनमें कर्नाटक में कांग्रेस की स्थिति पर ज़रूर नज़र रखनी होगी।
यह चुनाव परिणाम इस बात का भी साफ संदेश दे रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के रूप में उभर रहे सांप्रदायिक भाजपा नेतृत्व को कर्नाटक की जनता ने पूरी तरह नकार दिया है। नरेंद्र मोदी को तथा उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाने का सपना देखने वालों को अब भी अपनी आंखें खोल लेनी चाहिए और यह महसूस करना चाहिए कि भारत एक इतना विशाल देश है जहां कश्मीर से कन्याकुमारी तक जब भारतीय जनता पार्टी एक राष्ट्रीय दल के रूप में देश के प्रत्येक राज्य व केंद्र शासित प्रदेश में अभी तक अपने झंडे नहीं लहरा सकी तो गुजरात के मुख्यमंत्री होते हुए नरेंद्र मोदी में आखिर वह दमख़म  तथा नेतृत्व कौशल कहां से आ गया कि वे गुजरात के बाहर जाकर चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की क्षमता अपने आप में पैदा कर सकें? कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि कर्नाटक के चुनाव परिणाम राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में बेहद महत्वपूर्ण साबित होने जा रहे हैं।

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