मीडिया में ‘साहित्य’ का बाजारीकरण

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वर्षों से मीडिया में अपनी पैठ बना चुके साहित्य को भी पूंजीवादी संस्कृति ने नहीं बख्शा है। इसके झंझावाद में फंसे साहित्य की कसमसाहट भी सामने दिखती हैं। व्यवसायिक होती मीडिया ने खबरों को माल की तरह बेचना प्रारंभ कर दिया है। बदलते परिवेश में साहित्य के लिए मीडिया कोई जगह नहीं। आज मीडिया में ‘साहित्य’ का बाजारीकरण हो गया है।

प्रिंट हो या फिर इलैक्ट्रोनिक मीडिया, साहित्य का दायरा धीरे-धीरे सिमटता ही जा रहा है। पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डालें तो साफ पता चलता है कि पहले अधिकांशत: साहित्यिक अभिरूचि वाले लोग ही पत्र-पत्रिकाओं का संपादन कार्य किया करते थे। यही नहीं, पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य को खास अहमियत दी जाती रही थी। पत्रकारिता का जन्म साहित्यिक अभिरूचि का ही परिणाम है। इस बात को दरकिनार कर दिया गया।

हिन्दी पत्रकारिता के उदय काल में भी ऐसे कई पत्र थे, जिनमें राष्ट्रीय चेतना की उद्बुद्ध सामग्री होने के साथ-साथ साहित्यिक सामग्री प्रचुर मात्रा में रहा करती थी। ‘भारत मित्र’, ‘बंगवासी’, ‘मतवाला’, ‘सेनापति’, ‘स्वदेश’, ‘प्रताप’, ‘कर्मवीर’, ‘विश्वमित्र’, आदि कई पत्रों में साहित्य को खासा स्थान दिया जाता था। भारतेन्दु काल में ही हिन्दी साहित्य की आधुनिकीकरण की प्रकिया की शुरुआत हुई थी। इसी दौर में हिन्दी पत्रकारिता का विकास उत्तरोत्तर होता रहा। भारतेन्दु जी के संपादन में ‘कविवचन सुधा’, ‘हरिश्चन्द्रचन्द्रिका’, ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ और ‘बाला-बोधिनी’ में समसामयिक विषयों के अलावा साहित्य को खास महत्व दिया गया। भारतेन्दु युग में साहित्यिकारों ने पत्रकारिता के माध्यम से साहित्य को दिशा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिन्दी प्रदीप’ और प्रताप नारायण मिश्र ने ‘ब्राहम्ण’ पत्र निकाल कर कार्य को आगे बढ़ाया। वहीं द्विवेदी युग में ‘सरस्वती’ के बारे में कहा जाता है कि यह साहित्य और पत्रकारिता के एक पर्याय के रूप में सामने आया था। ‘सरस्वती’ ने साहित्य और पत्रकारिता के मानदंडों की जो पृष्ठभूमि बनायी, वह आज भी मिसाल है। ‘सरस्वती’ ने जो सिलसिला प्रारंभ किया था उसे और व्यापक बनाने में ‘माधुरी’, ‘सुधा’, ‘मतवाला’, ‘समन्वय’, ‘विशाल भारत’, ‘चांद’, ‘हंस’, आदि पत्रों ने कोई कसर नहीं छोड़ी।

आजादी के बाद भी कई ऐसे साहित्यकार सक्रिय रहे जिन्होंने साहित्य के साथ-साथ पत्रकारिता से जुड़ कर साहित्य के प्रचार प्रसार में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। ‘विशाल भारत’, ‘दिनमान’, ‘नवभारत टाइम्स’ से अज्ञेय जुड़े रहे, तो ‘धर्मयुग’ से धर्मवीर भारती और ‘सारिका’ से कमलेश्वर। हालांकि कमलेश्वर ‘श्रीवर्षा’ और ‘गंगा’ के भी संपादक रहे। राजेन्द्र यादव ‘हंस’, रघुवीर सहाय ‘दिनमान’, भैरव प्रसाद गुप्ता, भीष्म साहनी एवं अमृतराय ‘नयी कहानी’, शैलेश मटियानी ‘विकल्प’, महीप सिंह ‘संचेतना’, मनोहर श्याम जोशी ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ आदि कई चर्चित साहित्यकार हैं जिन्हें साहित्य के साथ-साथ पत्रकारिता के लिये भी जाना जाता है। उस दौर के सारे पत्र बडे पूंजीपति घरानों से ही संबध्द थे और आज भी हैं, लेकिन आज एक बड़ा बदलाव आ गया है ।

बढ़ते खबरिया चैनलों के बीच साहित्य को उतना स्थान नहीं मिल पा रहा है जो आकाशवाणी या दूरदर्शन पर मिलता रहा है। हालांकि इसमें भी गिरावट देखी जा रही हैं। आकाशवाणी से समय समय पर कई साहित्यिकार जुडे। भगवतीचरण वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, नरेंद्र शर्मा, फणीश्वर नाथ रेणु, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय आदि कई साहित्यकार हैं जो आकाशवाणी से जुड़े रहे। वहीं, दूरदर्शन पर भी साहित्य की विभिन्न विधाओं का नियमित प्रचार प्रसार होता रहा है। एक समय था जब दूरदर्शन पर भीष्म साहनी की ‘तमस’ को दिखाया गया, तो घर-घर में साहित्य की चर्चा होने लगी थी। कई चर्चित साहित्यकारों की कृतियों को लेकर धारावाहिक बनें। जिनमें प्रेमचंद की निर्मला, शरत चन्द्र का ‘श्रीकांत’, रेणु का ‘मैला आंचल’, विमल मित्र की ‘मुजरिम हाजिर हो’, श्रीलाल शुक्ल की ‘रागदरबारी’, आर.के.नारायणन का ‘मालगुडी डेज’ आदि काफी चर्चित रहा है। अब रियलीटी शो का जमाना है। सच के नाम पर, सनसनी के नाम,रोमांच पैदा करने के नाम पर आदि आदि …..।

खबर को मसालेदार बना कर बेचे जाने के बीच साहित्य नही के बराबर है। हर कोई मीडिया प्रेम को छोड़ नहीं पा रहा है। बाजारवाद की वजह से आम खास होते मीडिया की मोह-माया से साहित्य भी नहीं बच पाया है। साहित्य को आम खास तक पहुंचाने के लिए मीडिया का सहारा लेना पडता है। जाहिर है पत्र-पत्रिकाएं ही साहित्य को आम और खास लोगों तक पहुंचा सकती है। शायद ही कोई ऐसा पत्र हो जिसमें साहित्य किसी न किसी रूप में न छपता हो। इसके बावजूद मीडिया का रवैया साहित्य के साथ अच्छा नहीं प्रतीत होता है। तभी तो समाचार पत्रों के आकलन से साफ तौर पर पता चलता है कि अमूमन सभी अखबार साहित्य की दो से तीन प्रतिशत ही खबरें प्रकाशित करते हैं।

साहित्य, मीडिया में आज केवल ‘फिलर’ के रूप में दिखता है। खास तौर से प्रिंट मीडिया ने बाजारवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ते प्रकोप में साहित्य को वस्तु के रूप में ही रखा है। वर्षो से सप्ताह में साहित्य को पूरा एक पेज देने वाले अखबार अब विज्ञापन को प्राथमिकता दे रहे हैं। विज्ञापन विभाग इतना हावी है कि साहित्य के बने पूरे पृष्ठ को अंतिम क्षण में बदलवा देता है।

मजेदार बात यह है कि यह सब कुछ खेल या फिर सिनेमा के नियमित फीचर पेज के साथ कतई नहीं होता है। और यह सब हर स्तर पर छपने वाले अखबारों के साथ होता है। अमूमन राष्ट्रीय और स्थानीय अखबार अपने फीचर पेज में साहित्य से संबंधित सामग्री छापते हैं। मासिक-साप्ताहिक व्यवसायिक पत्रिकाएं भी साहित्य को वैसे ही देख रहे हैं जैसे अखबार। इंडिया टुडे का साहित्यिक विशेषांक का लोगों को खासा इंतजार रहता था। वहीं पर कई राष्ट्रीय समाचार पत्रों का भी विशेषांक छपना लगभग बंद हो गया है। गिनी चुनी पत्र-पत्रिकाएं ही कभी-कभार साहित्यिक विशेषांक निकालते हैं।

पिछले कई वर्षो से अखबारों के चरित्र में व्यापक बदलाव हुआ है। किसी पत्र में रविवारीय परिशिष्ट को अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना जाता है जिसमें हर विधा पर सामग्री होती है और उसमें साहित्य को खासा स्थान दिया जाता है। लेकिन आज उसमें भी ठहराव साफ दिखता है। रविवारीय परिशिष्ट आज भूत-प्रेत, रहस्य, अपराध और सिनेमा को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं। उसमें साहित्य को ढूंढ़ना पड़ता है। बाजार के मुताबिक फिल्म, सेहत, तंत्र-मंत्र, मनोंरजन, अपराध, भविष्यवाणी, और रेसिपी आदि के बढ़ते क्रेज के सामने साहित्य दबता जा रहा है। जहां थोडी सी जगह मिल भी जा रही है, उसके संपादक के साहित्य प्रेम को ही आधार माना जा सकता है।

चर्चित साहित्यकारों के जन्म दिन या साहित्यिक समाराहों को तरजीह न देकर फिल्मी हीरो-हीरोइनों के विवाह करने, मंदिर जाने जैसी खबरों को खास बनाते हुए पूरा परिशिष्ट निकालने में मीडिया मषगूल है। चर्चित साहित्यकार कमलेश्वर के निधन की खबर को ही लें, कितनों ने खास परिशिष्ट निकाला वह आपके सामने है? इसमें केवल पत्र ही शामिल नहीं बल्कि खबरिया चैनल भी शामिल है। किसी साहित्यकार पर उनका फोकस नहीं होता है। वहीं पर अश्लील और फूहड़ चुटकुलों से लोगों को हंसाने जैसे कार्यक्रम को दिखाने की होड़ लगी रहती है। यों तो साहित्य की खबरें चैनलों पर आती नहीं, आती भी है तो चंद मिनटों में समेट दी जाती है।

साहित्य व साहित्यिकारों से जुड़ी खबरें स्थान पाती भी है तो मुष्किल से वहीं हीरो-हीरोइन-खिलाड़ियों को ज्यादा तरजीह दी जाती है। जाहिर है साहित्य नहीं बिकता और जो बिकता है उसे मीडिया तरजीह देने में लगी है।

-संजय कुमार

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संजय कुमार
पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।समाचार संपादक, आकाशवाणी, पटना पत्रकारिता : शुरूआत वर्ष 1989 से। राष्ट्रीय व स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में, विविध विषयों पर ढेरों आलेख, रिपोर्ट-समाचार, फीचर आदि प्रकाशित। आकाशवाणी: वार्ता /रेडियो नाटकों में भागीदारी। पत्रिकाओं में कई कहानी/ कविताएं प्रकाशित। चर्चित साहित्यिक पत्रिका वर्तमान साहित्य द्वारा आयोजित कमलेश्‍वर कहानी प्रतियोगिता में कहानी ''आकाश पर मत थूको'' चयनित व प्रकाशित। कई पुस्‍तकें प्रकाशित। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा ''नवोदित साहित्य सम्मानसहित विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा कई सम्मानों से सम्मानित। सम्प्रति: आकाशवाणी पटना के प्रादेशिक समाचार एकांश, पटना में समाचार संपादक के पद पर कार्यरत।

1 COMMENT

  1. सारी सेवायें अब प्रोफेशन में बदल गयी हैं और प्रोफेशन में तो सब कुछ जायज है. हर जगह दलालों ने प्रवेश कर लिया है. गणेश शंकर विद्यार्थी जी जैसे लोग रोज पैदा नहीं होते और जब होते हैं तो दंगाई उन्हें हिन्दू मानकर शहीद कर देते हैं.

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