समानान्तर मीडिया खड़ा करने की बढ़ती जिम्मेदारी

-देवेन्द्र कुमार-  media

केके माधव के नेतृत्व में 1980 में पुनर्गठित द्वितीय प्रेस कमीशन ने 1982 में अपनी अनुशंसा प्रस्तुत करते हुए देश के तात्कालीन प्रजातांत्रिक-सामाजिक हालात के मद्देनजर प्रेस की भूमिका एवं कार्यप्रणाली को पुनर्परिभाषित करते हुए यह अनुशंसा की थी कि चूंकि प्रेस में शहरी पक्षधरता मौजूद है। यह सिर्फ राजनीतिक उठापटक में रुचि लेता है जिसका केन्द्र बिन्दु देश और राज्य की राजधानियां होती हैं पर दूसरे स्थानों खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में हो रहे सामाजिक – आर्थिक एवं ढांचागत परिवर्तनों की उपेक्षा कर दी जाती है। इसलिए एक रुरल न्यूज सर्विस का गठन किया जाय जो धरातल पर हो रहे, हलचल की खबर ले सकें।

तब से आज तक तीन दशक गुजर गया, पर हालात में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। भले ही आज खबरिया चैनलों में टीआरपी के लिए गला-काट प्रतियोगिता हो, एक सांई और एक बापू को पकड़ महीनों तक दर्शकों एक ही बासी कहानी नई-नई चासनी, छौंक और कलेवर  के साथ परोसा जाय, कभी साढ़ को तीसरी मंजिल पर दिखा, उस तक पंहुचने के लिए किस सीढ़ी का प्रयोग हुआ, इसकी व्यापक छानबीन की जाय या कभी बेमतलब की खुदाई का लाईव प्रसारण किया जाय, पर ग्रामीण समाज की खबरों को आज भी उपेक्षा की ही दृष्टि से ही देख जाता है। शहरी-अभिजात्य मीडियाकर्मियों को उसमें कोई न्यूजवर्दी नजर नहीं आती। उनका चरित्र व जीवनशैली ग्रामीण समाज की  सामाजिक बुनावट एवं उसकी सोशल केमेस्ट्री को समक्षने में बाधक रहा है। ग्रामीण समाज की सामाजिक संरचना एवं आर्थिक- सामाजिक बुनावट में रिपोर्ट करने के लाईक कुछ भी नजर ही नहीं आता।

शहरों में कार्यरत मीडियाकर्मियों की दृष्टि उच्च मध्यम वर्ग पर ही टिकी है। यही वर्ग उसका उपभोक्ता है। उच्च मध्यम वर्ग की क्रयशक्ति ही मीडिया का प्राणवायु है। कोई भी देसी-विदेशी कंपनियां अपना विज्ञापन देने के पूर्व इस बात की पूरी जांच परख करता है कि जिस अखबार में वह विज्ञापन देने जा रहा है उसके पाठक वर्ग का सामाजिक-आर्थिक हालात कैसा है। उसकी जीवन पद्धति कैसी है। कहीं वह सादा जीवन उच्च विचार एवं आत्मसंतोष में विश्वास  करने वाला परंपरागत ग्रामीण परिवेश का पाठक तो नहीं है। यदि अखवार का सरकुलेशन सीमित है पर पाठक वर्ग उच्च मध्यम वर्ग से आता है तो भी उसे विज्ञापन प्रदान करना लाभ का ही धंधा ही होगा, वनिस्पत की ग्रामीण पृष्ठभूमि के अधिक सरकुलेशन अखबार से। क्योंकि ग्रामीण समाज की क्रय क्षमता बेहद कमजोर है, न ही इनके अन्दर शहरी सौन्दर्यबोद्ध है और न ही अपने रूप को निहारते रहने की अभिजातीय हीन भावना है।

इस परिस्थिति में द्वितीय प्रेस कमीशन का सुक्षाव कभी भी अमल में आने की संभावना ही नजर नहीं आती। कोई भी अखबार अपने को ग्रामीण समाज की ओर उन्मुख करना नहीं चाहता। सिर्फ कभी कभी हत्या-नरसंहार की खबरें और इंदिरा आवास, मनरेगा, वृद्धा पेंशन आदि में घपलों की खबरों जिनका प्रयोग अखबारों में फिलर के रूप में किया जाता है। यही कारण है कि लालू यादव के देशी वाक्य-विन्यास को मजाक के रूप में सही, अभिजात्य मीडिया में हाथों-हाथ लिया जाता है पर इसी लालू यादव के शासनकाल में ग्रामीण समाज की सामाजिक संरचना में जो परिवर्तन आया है, हजारों बरसों से उपेक्षित जातियों ने जो करवट ली है, उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। कारण स्पष्ट है कि लालू को उपहास उड़ाते हुए भी बेचा जा सकता है पर इस धरातल पर हुए सामाजिक संरचनागत परिर्वतन को वे कब और कहां बेचेंगे।

ग्रामीण समाज की क्रयशक्ति तो निम्न है ही, उनकी सामाजिक और आर्थिक बनावट एवं जीवनशैली भी कुछ इस प्रकार की है कि ग्रामीण समाज का मलाईदार तबका जो वहां बाबू साहब और धन्ना सेठ माना जाता है, उसकी आर्थिक स्थिति एक हद तक मजबूत होने के बाबजूद जीवनशैली अत्याधिक सादगी और सरलता पर ही आधारित ही है। हाल के दिनों में ग्रामीण समाज में आई सादगी और सरलता के तमाम क्षरण के बाबजूद अभी भी वे पूंजी का निवेश जमीन खरीदने में ही करना श्रेयस्कर मानते हैं। चरम उपभोक्तावाद की प्रवृति अभी भी वहां नहीं पनपी है। सामाजिक-आर्थिक संरचना में आये तमाम परिर्वतन के बाबजूद भारतीय संस्कृति के आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा, आत्मसंतोष अभी भी ग्रामीण समाज में ही मौजूद है।

बड़े-बड़े शहरों में केन्द्रित मीडियाकर्मी  में से कई ग्रामीण समाज के मलाई तबके से ही आते हैं। स्वाभावतः वे ग्रामीण समाज के अंतर्सबंधों से पूरी तरह परिचित हैं, पर आधुनिक शिक्षा एवं परिधान धारन करने के बाबजूद इनका संस्कार पूरी तरह परंपरागत है। ये हमेशा द्वंद का शिकार रहते हैं। समता-समानता, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता की चर्चा करते हुए भी, उसके पक्ष में बहस करते हुए भी इनके अंत:करण में एक डर बना रहता है कि यदि वास्तव में इनके सपने का  ही हिन्दुस्तान निर्मित हो गया तो उस एकाधिकार का क्या होगा जो ग्रामीण समाज के सामाजिक संरचना में इनके पूर्वजों के द्वारा बड़े ही जतन व तिकड़म से तैयार की गई है। ये खुद अपने द्वारा ही कल्पित तस्वीर को वास्तविकता में बदलने की आशंका से सिहर उठते हैं ।

इस परिस्थिति में द्वितीय प्रेस कमीशन की अनुशंसा का क्रियान्वयन में बाधा तो साफ नजर आती है, पर इसके क्रियान्वयन  की आवश्यक्ता और भी बढ़ जाती है। आखिर सूचना के इस साम्राज्यवाद में, मीडिया एक्सपलोजन के इस दौर में मौजूदा प्रेस के समानान्तर पेस का गठन कैसे किया जाय?  क्योंकि बगैर इसके ग्रामीण समाज का अन्तर्संघर्ष सामने नहीं आयेगा। ग्रामीण समाज की तटस्थ, स्पष्ट और वस्तुनिष्ठ तस्वीर सामने नहीं आ पायेगी। ग्रामीण समाज में चल रहे विभिन्न आन्दोलन, संघर्ष एवं द्वंद्ध का प्रकटीकरण नहीं हो पायेगा। सूचना साम्राज्यवाद के इस दौर में मीडिया का चरित्र मूल रूप से अभिजातीय ही है। एक समय अपने को सामाजिक परिर्वतन का औजार मानने वाला, उसके हक हुकूक की वकालत करने वाला मीडिया अपने को उत्पाद के रूप में बदले जाने पर कहीं से भी दुखी नजर नहीं आता। क्योंकि इससे इनके सुविधा में विस्तार होने की संभावना है, फटेहाली और बदहाली के लिए बदनाम मीडियाकर्मियों  के जीवन का रंग चटक होने की संभावना है। इसलिए मीडिया में सूचना साम्राज्यवाद के विस्तार से इनके लिए दुखी होने का कोई कारण नजर नहीं हैं।

कुछ वर्ष पूर्व बिहार वामसेफ के राज्य कन्वेनर उमेश रजक, अखिल भारतीय जनप्रतिरोध मंच से जुड़े राहुल और बोधगया भू-आन्दोलन और छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के गणेश कौशल आजाद से बात हो रही थी। यद्धपि तीनों अलग-अलग संगठनों से जुड़े थे, तीनों की वैचारिक प्रतिबद्धता भी अलग-अलग ही थी, पर एक बात साफ थी कि तीनों ही जमीन से जुड़े थे और तीनों ही धाराओं से इस बात को रेखांकित किया जा रहा था कि मौजूदा मीडिया या यूं कहें तो कि कथित मुख्यधारा की मीडिया कि प्रतिबद्धता शासक समूहों के प्रति समर्पित है, यह सिर्फ शासक समूहों के आपसी अंतर्द्वंदों के कारण भले ही कुछ सनसनीखेज मामले को सामने लाता है पर वंचित समूहों के अघिकार और सता में भागीदारी के सवाल पर इनका नजरिया मूल मुद्दे को ही भटकाने वाला होता है। पर बड़ा सवाल यह है कि इसका समाधान क्या हो। बरसों से वामसेफ की और से दैनिक अखबारों के प्रकाशन की बातें चल रही हैं, पर यह जमीनी शक्ल लेता नहीं दिखता। आखिरकार हमें उस रास्ते की तलाश तो करनी ही होगी जिससे कि मुख्यधारा की मीडिया के समानान्तर दूसरी व्यवस्था खड़ी की जा सके। जो ग्रामीण समाज में चल रहे जनतांत्रिक एवं वर्गीय संघर्ष को निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ रूप से कवरेज कर सके और आज के अभिजातीय प्रेस के द्वारा वर्दीलेस मान कर छोड़ दिये जा रहे उन तमाम घटनाओं को भी सामने ला सके जो ग्रामीण समाज के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। इस परिस्थिति में समानान्तर प्रेस खड़ा करने की जिम्मेवारी एक गंभीर सवाल बनकर सामने आता है। पर इसकी कोई स्पष्ट रूपरेखा बनती नजर नहीं आती। खासकर एक समाचारपत्र के प्रकाशन के लिए जितनी बड़ी रकम एवं साधन-संसाधन की जरूरत होती है, वह सबसे बड़ा संकट है। चाहे जैसे हो जिला स्तर तक प्रेस को खड़ा करना होगा, गंवई और गंवार माने जाने वाली बोलियों में इसका प्रकाशन करना होगा, क्योंकि धरातल की खुशबू महानगरों से प्रकाशित हो रहे समाचारपत्रों से नहीं आयेगा और न ही इसका समाधान इन पत्रों के द्वारा स्थानीय संस्करण निकालने से होगा, क्योंकि इनका अभिजातीय चरित्र इनके स्थानीय संस्करणों में भी देखने को मिल रहा है।

एक बात और जब हम समानान्तर मीडिया की बात करते है तो मजबूरी वश हमारा आशय सिर्फ  ओर सिर्फप्रिंट मीडिया से ही होता है, क्योंकि वंचित समूहों और ग्रामीण समाज में आनलाइन मीडिया  की पहुंच की बात करनी ही बेमानी है।

1 COMMENT

  1. अखबार विज्ञापन से चलते हैं और ग्रामीण या आम आदमी के अखबार को शहरी और अमीर लोग विज्ञापन नही देंगे तो इनका खर्च कौन देगा ये है यक्ष प्रश्न

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