केरल में बढ़ती हिंसा चिंताजनक

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प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर, देश के पहले संपूर्ण साक्षर राज्य केरल को ‘भगवान की धरती’ कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान परशुराम ने अपने फरसे से जो भूभाग समुद्र में से बाहर निकाला था, वह केरल ही है; पर इन दिनों यह राज्य वामपंथी शासन की शह पर हो रही देशभक्तों की हत्याओं से दुखी है। मुख्यतः इनके शिकार हो रहे हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता।

केरल में संघ का काम 1942 में शुरू हुआ था। 1940 में संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के निधन के बाद सैकड़ों युवक संघ कार्य के विस्तार के लिए निकले। उनमें से दादाराव परमार्थ और दत्तोपंत ठेंगड़ी केरल आये। जैसे-जैसे काम बढ़ा, राष्ट्रविरोधियों के पेट में दर्द होने लगा। केरल में मुस्लिम, ईसाई और वामपंथी तीनों संघ का विरोध करते हैं। 629 ई. में अरब के बाहर पहली मस्जिद के लिए जमीन केरल में चेरामन पेरुमल राजा ने ही दी थी। ईसाइयों का काम भी यहां बहुत पुराना है। इन दोनों ने वहां धर्मान्तरण भी खूब किया है।

इस धर्मान्तरण में हिन्दू समाज की एक कुरीति की भी बड़ी भूमिका रही है। काफी समय तक हिन्दुओं को समुद्र यात्रा मना थी। शायद किसी बड़ी दुर्घटना के कारण यह नियम बना हो। क्रमशः नौका विज्ञान उन्नत हुआ; पर यह नियम नहीं बदला। लेकिन मुसलमान समुद्र यात्रा पर जाते थे और दूसरे देशों से धन कमा कर लाते थे। वहां के लोग भी यहां आकर व्यापार करते थे।

इससे हिन्दू भी जाग्रत हुए; पर धार्मिक मान्यता का क्या हो ? कुछ लोगों ने इसका रास्ता ये निकाला कि घर के एक युवक को मुसलमान बना दें। इससे धर्म का बंधन नहीं रहेगा और धन आ जाएगा; पर इसका भारी विरोध हुआ और ऐसे युवकों के विवाह में बाधा आने लगी। अतः रास्ताप्रेमियों ने मामा की कन्या से विवाह (दक्षिणे मातुले कन्या) को स्वीकृति दे दी। कुछ ने बाहर से आये युवा मुस्लिम व्यापारियों को ही दामाद बना लिया। ये दामाद ही मापिल्ला (मोपला) कहलाये। क्रमशः ये धनवान होते गये और उनका अलग वर्ग बन गया।

कहावत है कि नया मुल्ला ज्यादा प्याज खाता है। ऐसे ही ये मोपला भी कट्टर होते गये। 1920-21 में खिलाफत के लिए हजारों मोपला तुर्की गये थे; पर वहां से लुट-पिटकर लौटने पर उन्होंने मालाबार क्षेत्र में भारी उपद्रव किया। हजारों हिन्दुओं को मारा और हजारों को मुसलमान बनाया। महिलाओं से बलात्कार हुआ; फिर भी गांधी जी ने उन्हें ‘माई ब्रेव मोपला ब्रदर्स’ कहा। वीर सावरकर का उपन्यास ‘मोपला’ इसी घटना पर केन्द्रित है।

केरल के मुसलमान आज भी बड़ी संख्या में खाड़ी देशों में काम के लिए जाते हैं। इससे उनके घर तथा मस्जिदें सम्पन्न हुई हैं। उनकी भाषा, बोली और रहन-सहन पर भी अरबी प्रभाव दिखने लगा है। यह चिंताजनक ही नहीं, दुखद भी है। देश विभाजन की अपराधी मुस्लिम लीग को देश में अब कोई नहीं पूछता, पर जनसंख्या और धनबल के कारण केरल में आज भी उनके विधायक और सांसद जीतते हैं।

केरल में ईसाई भी समुद्री मार्ग से ही आये। फिर उन्होंने अपनी चिरपरिचित शैली में चर्च, स्कूल और अस्पताल आदि खोले। इससे उनका धर्मान्तरण का धंधा चलने लगा। इसमें दोष हिन्दुओं का भी है। केरल में जातिभेद बहुत गहराई तक फैला था। एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति वाले से कितनी दूरी पर चलेगा, इसके नियम बने हुए थे। कुछ लोगों को कमर में पीछे की ओर झाड़ू बांधकर चलना पड़ता था, जिससे उनके चलने से गंदी हुई सड़क साफ होती चले। कुछ लोगों को थूकने के लिए गले में लोटा बांधकर चलना होता था, जिससे सड़क अपवित्र न हो जाए। इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने केरल को ‘जातियों का पागलखाना’ कहा था। इसका लाभ उठाकर मिशनरियों ने लाखों निर्धन और निर्बल लोगों को ईसाई बनाया। उनका यह षड्यंत्र आज भी जारी है।

भारत में कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थापना 1925 में हुई। स्वयं को राष्ट्रीय की बजाय अंतरराष्ट्रीय मानने वाले कम्यूनिस्टों ने स्वाधीनता आंदोलन में धोखा दिया; पर आजादी के बाद रूस और चीन की प्रेरणा और पैसे से ये बढ़ने लगे। नेहरू जी का झुकाव वामपंथ, और विशेषकर रूस की ओर था ही। 1962 में चीन के आक्रमण के समय कम्युनिस्टों ने बंगाल में चीनी सेना के स्वागत वाले पोस्टर लगाये। उन्होंने चीन के नेता माओ को अपना भी नेता कहा।

1962 के बाद नेहरू जी का चीन से तो मोहभंग हुआ, पर रूस से नहीं। इंदिरा गांधी भी रूस के प्रति उदार रहीं। कांग्रेस की टूट और 1975 के आपातकाल में वामपंथियों ने उनका साथ दिया। इससे उपकृत इंदिरा जी ने महत्वपूर्ण शिक्षा और संचार संस्थान उन्हें सौंप दिये। इससे बुद्धिजीवी वर्ग में वे हावी हो गये। संसद के कानून से जवाहरलाल नेहरू वि.वि. बना, जिसका सारा खर्च केन्द्र उठाता है। इस प्रकार वामपंथियों की नयी पौध तैयार होने लगी।

पर हिन्दू विरोध के कारण वामपंथी राजनीतिक रूप से पिछड़ने लगे। एक समय हिन्दीभाषी राज्यों से भी वामपंथी जनप्रतिनिधि जीतते थे; पर फिर वे बंगाल, त्रिपुरा और केरल तक सिमट गये। अब बंगाली गढ़ टूटने से उनकी सांसें उखड़ रही हैं। केरल में संघ और हिन्दू कार्यकर्ताओं पर हमले इसीलिए हो रहे हैं। मार्क्सवादियों का गढ़ ‘कन्नूर’ जिला इससे सर्वाधिक पीड़ित है।

इस हिंसा के अधिकांश शिकार वही तथाकथित निर्धन, निर्बल, दलित और पिछड़े लोग बने हैं, जो कभी कट्टर वामपंथी थे; पर फिर उसके खोखलेपन को देखकर वे संघ से जुड़ गये। केरल में अब तक 250 से भी अधिक कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं। मार्क्सवादी शासन में ये हत्याएं बढ़ जाती हैं। गृह मंत्रालय उनके पास होने से थाने ही हत्यारों के ठिकाने बन जाते हैं। पिछले चुनाव में वामपंथियों की जीत से भी यही हुआ है।

हिंसा के उनके तरीके भी बर्बर हैं। स्कूल में पढ़ाते हुए अध्यापक की हत्या। वाहन में से खींचकर हत्या। हाथ-पैर बांधकर जलाना। घर, दुकान, फसल या वाहन फूंकना। घर वालों के सामने मारना, हाथ-पैर काटना, आंखें निकालना आदि। वामपंथी तथाकथित उच्च जाति और पैसे वालों को ‘वर्ग शत्रु’ कहकर शेष लोगों को उनके विरुद्ध ‘वर्ग संघर्ष’ के लिए भड़काते हैं; पर केरल में संघ ही उनका ‘वर्ग शत्रु’ है।

संघ के काम का आधार शुद्ध सात्विक प्रेम है। शाखा और सेवा कार्यों से प्रभावित होकर सब तरह के लोग संघ में आ रहे हैं। अतः वामपंथियों की जमीन खिसक रही है। सेवा और संस्कार के क्षेत्र में वे संघ के सामने नहीं टिकते। अतः उनके पास हिंसा ही एकमात्र रास्ता है; पर इतिहास गवाह है कि विचारों की लड़ाई विचारों से ही लड़ी जाती है। वामपंथ के दिन लद चुके हैं। बंगाली किला टूट गया है। अब केरल की बारी है। आज नहीं तो कल उन्हें यह बात माननी ही होगी।

– विजय कुमार

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