विश्वगुरू के रूप में भारत-1

राकेश कुमार आर्य

यदि कोई मुझसे ये पूछे कि भारत के पास ऐसा क्या है-जो उसे संसार के समस्त देशों से अलग करता है?-तो मेरा उत्तर होगा-उसका गौरवपूर्ण अतीत का वह कालखण्ड जब वह संसार के शेष देशों का सिरमौर था अर्थात ‘विश्वगुरू’ था। जब मेरे से कोई ये पूछे कि भारत के पास ऐसा क्या है-जिससे वह शेष संसार के लिए आज भी आदर्श सिद्घ हो सकता है?-तो इसके लिए भी मेरा यही उत्तर होगा कि वह अपने सनातन धर्म के सनातन मूल्यों के आधार पर आज भी शेष विश्व के लिए ‘गुरू’ हो सकता है और यदि मेरे से कोई यह भी पूछे कि भविष्य में भारत के पास ऐसा क्या होगा-जो उसे शेष विश्व के लिए सम्मानीय बना सकेगा?-तो इस पर भी मेरा यही कहना होगा कि वह भविष्य में भी विश्वगुरू बने रहने की अनंत संभावनाएं रखता है। भारत की झोली ना तो कल खाली थी, ना आज खाली है और ना ही भविष्य में कभी खाली होगी। शेष संसार के लिए वह कल भी पूजनीय था, आज भी पूजनीय है और आने वाले कल में भी पूजनीय रहेगा। भारत ने संसार को कल भी बहुत कुछ दिया था, आज भी बहुत कुछ दे रहा है और आने वाले कल में भी बहुत कुछ देगा। भारत के इस प्रकार सतत देते रहने का कारण है-उसकी संस्कृति का सनातन होना, शाश्वत होना, सार्वभौम होना, सबके लिए यज्ञमयी होना, सर्वमंगल कामना के गीतों से भरी हुई होना और सारी वसुधा को कुटुम्ब मानने की उत्कृष्टतम भावना की संदेशवाहिका होना।

जो संकीर्ण है, छोटी सोच से ग्रसित है, और जो लोगों को मजहब के आधार पर बांटकर देखता है, उसका धर्म सार्वभौम नहीं हो सकता, उसकी संस्कृति सार्वभौम नहीं हो सकती, उसका कुछ भी सर्वग्राही नहीं हो सकता। अत: वह कभी भी ‘विश्वगुरू’ नहीं हो सकता। विश्वगुरू वही बनेगा-जो विस्तृत है, विशाल है, व्यापक है, बड़े दृष्टिकोण का है, बड़ी सोच का है, सबको साथ लेकर चलना जिसे आता है और जो सर्वमंगल में ही अपना मंगल देखता है।

उन्नति का है सूत्र ये दृष्टि करो विशाल।

जगवन्दन करने लगे रहोगे मालामाल।।

‘भारत ने सबको अपना क्यों माना’

ऐसा विशाल दृष्टिकोण जो सबको अपना माने और अपना जाने केवल भारत के पास ही क्यों है? अब इस प्रश्न पर भी विचार किया जाना अपेक्षित है। इस प्रश्न का उत्तर यह है कि भारत का धर्म विश्वधर्म है, भारत की संस्कृति विश्व संस्कृति है और भारत का इतिहास विश्व का इतिहास है। भारत से अलग संसार के जितने भर भी देश हैं-वे सबके सब भारत के सामने बहुत ही लघुकाल का इतिहास रखते हैं। उनका धर्म (जिसे संप्रदाय कहा जाना उचित होगा) अत्यंत संकीर्ण है और वह विश्वधर्म होने की संभावनाओं से शून्य हैं। ऐसा ही उनकी संस्कृतियों के विषय में जानना उचित होगा। इन देशों के ‘मजहब’ की एक अतृप्त प्यास है, और वह है-स्वयं को विश्वगुरू के रूप में स्थापित करना। इसी प्रकार उनकी संस्कृति की एक अतृप्त प्यास है, और वह है-स्वयं को एक विश्व संस्कृति के रूप में स्थापित करने की। उनकी यह प्यास उनके जन्म के समय से ही है-उन्होंने अपनी इस प्यास को बुझाने के लिए करोड़ों लोगों का रक्त बहाया और उस रक्त के सागर में भरपूर स्नान किया पर उनकी प्यास नहीं बुझी। मनोकामना पूर्ण नहीं हुई। इसके विपरीत प्यास और बढ़ गयी, वासना भडक़ गयी। प्यास रक्त से ना तो बुझनी थी और ना बुझी।

यहां विचारणीय यह भी है कि इन देशों के धर्म और संस्कृति की यह प्यास इन्हें लगी क्यों और फिर लगी तो फिर अतृप्त ही क्यों रह गयी? इसका कारण यह रहा कि विश्व का नेतृत्व करने के लिए इन देशों के धर्म ने भारत के धर्म का और इनकी संस्कृति ने भारत की संस्कृति का अनुकरण करना चाहा। उन्होंने यह माना कि जैसे भारत का धर्म विश्वधर्म है और भारत की संस्कृति विश्व संस्कृति है वैसे ही हम भी बन जाएं। पर वह ऐसा बने नहीं, क्योंकि उनके धर्म में विश्वबोध नहीं था और संस्कृति में मानवबोध नहीं था। विश्व बोध मानवता की और उसके धर्म की पराकाष्ठा है-जहां से प्रेम, सत्य और बंधुत्व की त्रिवेणी निकलकर सारे संसार को तृप्त करती है और ‘मानव बोध’ व्यक्ति के निज अस्तित्व की पराकाष्ठा है-जो व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ती है।

इस प्रकार धर्म यदि समष्टितत्व प्रधान है तो संस्कृति व्यष्टितत्व प्रधान है। व्यष्टि और समष्टि के सम्मेलन से ही एकात्ममानववाद विकसित होता है। इस प्रकार भारत की संस्कृति और भारत के धर्म का अंतिम लक्ष्य एकात्ममानववाद की संस्कृति का विकास और विस्तार करना है। निश्चय ही यह एकऐसा तत्व है जो विश्व के अन्य किसी भी देश के पास ढूंढ़े से भी नहीं मिलता। भारत के धर्म और संस्कृति की इस महानता के कारण भारत में स्वाभाविक रूप से सबको अपना माना और सबको अपना जाना। जबकि संसार के अन्य देशों के धर्म और उनकी संस्कृतियां लड़ती रह गयीं और आज भी लड़ रही हैं, और इस बात के लिए लड़ रही हैं कि एक दूसरे को समाप्त कर दिया जाए तो भारत के एकात्म -मानववाद के लक्ष्य को प्राप्त कर लिया जाए। वास्तव में उनका यह बचकानापन है, क्योंकि इस प्रकार के लडऩे से एकात्म-मानववाद मिलने वाला नहीं है, उससे तो नितांत मानवतावाद की समाप्ति ही देखने को मिलेगी और मिल भी रही है। उनका चिंतन भारत के चिंतन से आज भी सदियों नहीं, युगों-युगों पीछे है। वह जहां से चले थे आज भी वहीं खड़े हैं। उन्हें नहीं पता कि उन्होंने कितना सफर तय कर लिया है और कितना तय करना अभी शेष हे? जबकि भारत सतत प्रवाहमान एक चिरन्तन धारा का नाम है-जो कल भी प्रवाहमान थी और आज भी प्रवाहमान है और कल भी रहेगी-और कदाचित उसकी यह प्रवाहमानता की विरलता ही उसके ‘विश्वगुरू’ बने होने का या बने रहने का निश्चायक प्रमाण है। जिसे अन्यत्र खोजना दुर्लभ है।

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