बीजिंग में पंचशील समझौते की वर्षगांठ, या तेरहवीं

-प्रवीण गुगनानी-
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भारत चीन सम्बंधों के मध्य की साठ वर्षीय महत्वपूर्ण कड़ी “पंचशील” की षष्ठी पूर्ति के अवसर पर चीन में आयोजित कार्यक्रम में जबकि हमारें उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के नेतृत्व में शिष्टमंडल बीजिंग में उपस्थित है तब चीन ने अपनी अपनी पुरानी कुटेव के अनुसार ही पुनः भारतीय सीमाओं से छेड़छाड़ कर दी है. इस बार तो अवसर की शुचिता या मौके की नजाकत को न समझते हुए चीन ने हद कर दी और पंचशील समझौते की वर्षगाँठ पर पंचशील समझौतें की लगभग तेरहवीं ही कर डाली! चीन ने अपना एक ताजा मानचित्र जारी कर अरुणाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर के एक बड़े हिस्से को भी चीन का अंग बताया. वॉशिंगटन पोस्ट में प्रकाशित चीन के इस नक़्शे के साथ प्रकाशित रिपोर्ट में इस चीन के इस विवादित नक़्शे पर दक्षेस देशों की चिंता को भी मुखरता से प्रकट किया है. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अंसारी की चीन यात्रा के दौरान ही लद्दाख में स्थित पेंगोंग झील में चीनी सेना के अतिक्रमण को भी भारतीय सेना ने विफल कर दिया है. यह नई घटना चीन के दशकों से चले आ रहे उस चीनी अभियान का ही हिस्सा है जिसमें चीन अरुणाचल प्रदेश के 90 हजार वर्ग किलोमीटर और जम्मू कश्मीर के अक्साई चीन के 32 हजार वर्ग किलोमीटर इलाके पर अपना दावा प्रकट करते रहा है.

पिछले एक दशक में जबकि भारत में मनमोहन के नेतृत्व में एक अल्पमत और अनिर्णय के रोग की शिकार सरकार शासन कर रही थी तब चीन का यह कुत्सित अभियान कुछ अधिक ही चला. यह एक चौकानें वाला किन्तु दुःखद सत्य है कि पिछले छः दशकों में से पिछला एक मनमोहन के नेतृत्व वाला दशक ऐसा रहा जबकि चीन ने सर्वाधिक अवसरों पर भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया और भारतीय सेना के साथ मोर्चों पर आमनें-सामनें की मुद्रा में आया और उस पर तुर्रा यह रहा कि पिछले एक दशक में ही भारत-चीन की सर्वाधिक राजनयिक चर्चाएँ भी हुईं! यह घोर आश्चर्य का ही विषय है कि स्वयं तत्कालीन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह चीन के साथ इस एक दशक में पंद्रह बार राजनयिक चर्चाएँ कर चुकें हैं! और प्रत्येक चर्चा के बाद सप्रंग सरकार के विदेश मंत्रालय ने इन चर्चाओं को आर्थक और उत्पादक भी बताया था! कहना न होगा कि चीन ने भारत में कमजोर प्रधानमन्त्री होनें का एक अवसर देखा और “विवाद उपजाओ”- “चर्चा करो पर सामनें वाले को बोलनें मत दो” और फिर “कब्जा कर लो” का अभियान ही चला दिया था! किन्तु अब जबकि भारत में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एक बलशाली, निर्णायक और जनप्रिय सरकार शासन कर रही तब चीन द्वारा ऐसा करना उसके भारत के प्रति पिछले एक दशक बढ़ गए दुस्साहस का ही परिणाम है; जिसका उत्तर नरेन्द्र मोदी की सीमाओं के प्रति सचेत सरकार को त्वरित ही देना चाहिए. यदि नरेन्द्र मोदी सरकार ने इस अवसर पर अपनी सीमाओं और चीन द्वारा कब्जाई गई हजारों वर्ग किमी भूमि के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और दक्षिण एशियाइ के प्रति अपनी चिंताओं को प्रकट नहीं किया गया तो चीन इस वर्ष 2014 को भी पिछले दस वर्षों की श्रृंखला का ग्यारहवां वर्ष भर मानेगा अपनें षड्यंत्र और कब्जे के अभियान के साथ दक्षिण एशिया में दबाव की राजनीति निर्मित करनें के अभियान को भी चलाते हुए नमो के राष्ट्रवाद और भारत की खोई भूमि से प्रेम और वचनबद्धता को खारिज कर देगा.

यद्दपि दस वर्षों की अल्पमत वाली सप्रंग सरकार ने चीन मोर्चें पर अपनें लचर रवैये के कारण नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को बहुत सी चिंताओं और सिरदर्द की विरासत दे दी है जिनसे निपटनें के लिए नमो को अन्तराष्ट्रीय मोर्चों पर बेहद सावधानी भरी तैयारी और घरेलू मोर्चे पर अत्यधिक आत्मविश्वासी वातावरण उत्पन्न करना होगा, तथापि नमो की परिश्रम की पराकाष्ठा कर देनें के वचन से यह अपेक्षित ही है. पिछले एक दशक से चले इस चीनी अभियान में जो चिंताएं उभरी हैं उनमें एक यह भी है कि चीन, भारत और पाक सम्बंधों के तनाव का भी लाभ लेना चाहता है अतः उसने पाक कब्जे वाले कश्मीरी इलाके पर चीन द्वारा एक नई रेल लाइन बिछाने और सड़क मार्ग तैयार करने की योजना पर चीन ने अमल शुरू कर दिया है जो भारत के लिये चिंता की नई बात है. कश्मीर के इस क्षेत्र से चीन अपने शिनच्यांग प्रांत को कराची बंदरगाह से जोड़ने की नई महत्वाकांक्षी योजना पर भी काम कर रहा है. नमो को विरासत में यह चिंता भी मिली है कि दुनिया की सबसे ऊंची हवाई पट्टी दौलत बेग ओल्डी जो कि पिछले कुछ सालों में तैयार की गई भारतीय वायुसेना की तीन एडवांस लैंडिंग ग्राउंडों में से एक है और जिसे वास्तिवक नियंत्रण रेखा के निकट 16200 फीट की उंचाई पर वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय हमारी जांबाज सेना ने बड़ी मेहनत और खून पसीनें की कुर्बानी देकर बनाया था- पर चीन गिद्ध दृष्टि से देख रहा है. अब इस हवाई पट्टी के करीब चीनी सेना की मौजूदगी सैन्य और सामरिक दृष्टि से बड़ी चुनौती और ख़तरा हो गई है और यह स्थिति सदा के लिए हमारी सेनाओं के लिए स्थायी सिरदर्द बनी हुई है. सप्रंग सरकार नमो के लिए यह सिरदर्द भी छोड़ गई है जिसमें पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह में चीनी निवेश, ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध का निर्माण और पाकिस्तान के चश्मा विद्युत परियोजना में चीनी परमाणु रिएक्टर का निर्माण शामिल है ऐसे विषय है जो इतिहास की दृष्टि से अपेक्षाकृत नएं हैं और चीन इन वैदेशिक व राजनयिक मोर्चों की सफलता के माध्यम से इनमें हावी होता जा रहा है. पिछले एक दशक में भारत इस तथ्य को वैश्विक मंच पर स्थापित करनें में दुःखद रूप से विफल रहा कि भारत-चीन सीमा विवाद 4000 किलोमीटर इलाके मैं फैला है, जबकि चीन का दावा है कि इसके तहत अरुणाचल प्रदेश का 2000 किलोमीटर क्षेत्र आता है, जिसे चीन दक्षिणी तिब्बत कहता है. ब्रहमपुत्र नदी के दशकों पुराने जलविवाद के चलतें रहनें के साथ एक नई चिंता पिछले दशक में भारत के लिए यह भी उभरी है कि चीन ब्रह्मपुत्र के बहाव में रेडियो धर्मी कचरा निरंतर नकेवल स्वयं डाल रहा है बल्कि अन्य देशों का परमाणु कचरा भी वह पैसे लेकर ब्रह्मपुत्र में डाल देता है.

पिछले वर्ष भारत के दबने और चीन के हावी होनें का यह दुस्साहस और अधिक क्रूरता की सीमा लांघ गया जब गत वर्ष चीनी सेना द्वारा धृष्टता और दुष्टता पूर्वक भारतीय भूभाग पर 19 किमी तक घुस कर कब्जा कर लिया गया था और आश्चर्यजनक ढंग से भारतीय प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने इसे वैश्विक मंचों पर इस समस्या को “स्थानीय और सीमित समस्या” का दर्जा देकर जग हसाई कराई थी. यह बड़ा ही आश्चर्य जनक तथ्य है कि व्यापारिक मोर्चें पर हमें चीन की नहीं बल्कि चीन के विशाल उत्पादन तंत्र को भारत के व्यापक बाजार की आवश्यकता है. एक बड़े व्यापारिक घाटे के व्यापार संतुलन के साथ हम 50 अरब डालर का सामान खरीदने और मात्र 20 अरब डालर के सामान को बेचनें के संतुलन वाले ड्रेगन व्यापारी की मजबूरियों का सामान्य ज्ञान भर से हो जानें वाला लाभ भी हम अब तक कभी नहीं उठा पाए हैं! गत वर्ष बर्मा में आयोजित ब्रिक सम्मेलन में जब मनमोहन सिंह ने सभी पुराने चले आ रहे विवादों को छोड़कर चीन के साथ नए सम्बंधों और विषयों पर बातचीत करना स्वीकार कर एतिहासिक त्रुटि कर ली थी जिसका अब भारत को भारी मूल्य चुकाना होगा. तब बर्मा में भला मनमोहन सिंह को अरुणाचल, कश्मीर, ग्वादर, तिब्बत, 4000 किमी के सीमा विवाद, हिन्द महासागर में चीनी अतिक्रमण, दक्षिण एशिया के भारतीय पड़ोसियों पर बढ़ते चीनी दबाव, कश्मीरी युवाओं को भारतीय दस्तावेजों के स्थान पर अलग स्थानीय कागजों के आधार पर चीनी वीजा देना, ब्रह्मपुत्र पर अनाधिकृत बाँध निर्माण और उसका मार्ग बदलना आदि आदि जैसी घटनाओं को विस्मृत करने की क्या आवश्यकता थी यह समझ से परे है।

अब नरेन्द्र मोदी सरकार को विरासत में मिले सप्रंग सरकार के उस निर्णय की भी समीक्षा करनी होगी जिसमें तत्कालीन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने अपनी चीन यात्रा के दौरान आत्मघाती भूल करते हुए भारत में एक चाइनीज ओद्योगिक परिसर बनानें का निर्णय लिया था जिसमें केवल चीनी उद्योग ही लगेंगे और उन्हें बहुत सी अतिरिक्त छूटें और रियायतें प्रदान की जायेंगी. इस तथ्य के आलोक में यह और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि पहले ही चीन द्वारा अपना सस्ता और घटिया माल भारतीय बाजार में झोंक देने से भारतीय उद्योग को भारी नुकसान हो रहा है. भारत और नेपाल व्यापार समझौते का चीन अनुचित लाभ उठा रहा है.

भारत-चीन के मध्य आर्थिक, सामरिक, सांस्कृतिक और सैन्य मोर्चों पर कई ऐसे तथ्य हैं जो कि भारतीय दृष्टि से गहरी चिंता के हो गए हैं. अब देखना है कि पिछली सरकार की भूलों और त्रुटियों को नरेन्द्र मोदी अपनी संकल्पशीलता और स्वप्नदर्शी दृष्टिकोण के साथ किस प्रकार इन मोर्चों पर बहुप्रतीक्षित सफलता प्राप्त करते हैं. इतिहास तो यही बताता है कि चीन ने नेहरु से लेकर मनमोहन तक, भारत के साथ केवल धोखे ही किये हैं. अब नरेन्द्र मोदी के साथ वे किस प्रकार प्रस्तुत होते हैं, यह देखना है.

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