भारत के अनुकूल हो व्यवस्था

(क्या भारत में संसदीय लोकतंत्र असफल सिद्ध हो रहा है- परिचर्चा के संदर्भ में)

-के. एन. गोविंदाचार्य

भारत में संसदीय प्रजातंत्र असफल है या नहीं, इस पर विवाद हो सकता है लेकिन यह तो अत्यंत साफ दिखाई देता है कि राजसत्ता के संचालन का देश की गति और दिशा से कोई तालमेल नहीं है।

राजसत्ता के अंग अपनी प्रेरणा और दिशा से चल रहे हैं जिसका देशहित या समाजहित से कोई संबंध नहीं है। संयोगवश कभी-कभी राजसत्ता से कुछ समाजहित सध जाता है। परंतु यह व्यवस्था भारत जैसे पारंपरिक देश के लिए अपर्याप्त है।

इस संचालन व्यवस्था में भारत का मतलब केवल 30 करोड़ लोग ही हैं, शेष 75 करोड़ लोगों के बारे में किसी सोच का इसमें अभाव है। यदि कोई सोच दिखती भी है तो केवल शाब्दिक स्तर पर ही। व्यावहारिक स्तर पर तो वंचित वर्ग और वंचित होता जा रहा है। लोकतंत्र में लोकेच्छा अभिव्यक्त होनी चाहिए लेकिन वह अभिव्यक्त नहीं हो पा रही है। लोक पर तंत्र हावी है। इसलिए एक अतिरिक्त वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता अनुभव हो रही है जिससे वंचित वर्ग के हितों की रक्षा हो सके।

भारत में इस व्यवस्था के लोक से अलग होने का प्रमुख कारण इसकी वह पृष्ठभूमि है जहां से यह व्यवस्था ली गई है। पश्चिम में पिछले दो-ढ़ाई सौ वर्षों से जो सामाजिक स्थितियां रही हैं, उसमें व्यक्ति का केवल राज्य से रिश्ते को ही प्रमुखता दी गई है। व्यक्ति, परिवार, जाति, समुदाय, संप्रदाय आदि की भी अपनी सत्ता है, इसका न तो उन्हें अहसास है न अनुभव। इसलिए व्यक्ति को सबसे कटा हुआ और केवल राज्य से जुड़ा हुआ मानते हैं।

भारत के पारम्परिक समाज में एक व्यक्ति केवल एक व्यक्ति नहीं होता। उसके परिवार के रिश्ते, जाति, संप्रदाय, भाषा आदि भी उस पर प्रभाव डालते हैं। उम्र, लिंगभेद, समाज में अच्छे-बुरे की पहचान आदि भी उस पर प्रभाव डालते हैं। इसलिए एक आदमी एक वोट की आज की व्यवस्था उस लोकेच्छा को अभिव्यक्त नहीं कर पाता।

यह व्यवस्था केवल सत्ता में हिस्सेदारी का रास्ताभर ही है। इस रास्ते पर चलने की इच्छा रखने वालों के मन में यह इच्छा जग जाती है कि सत्ता की हिस्सेदारी समाज की बजाय उनके लिए ही हो। फलत: पूरी राज्यसत्ता, सत्ता के पूरे तंत्र में लगे हुए लोगों के स्वार्थ साधन में उपयोगी बन जाती है। शेष समाज उससे अलग-अलग, कटा हुआ अनुभव करता हुआ, थोड़ा कुंठित और थोड़ा नाराज रहता है। यदि स्थिति दिखाई पड़ती है।

व्यक्ति में इयत्ताएं सार्वभौतिक होने के बावजूद भारत और पश्चिम की इयत्ताओं में फर्क है। भारत में जाति, भाषा, संप्रदाय का व्यक्ति पर जो प्रभाव है, उसकी तुलना पश्चिम की प्रतिक्रियावादी मानसिकता से उभरी इयत्ताओं से नहीं की जा सकती। यहां सभी इयत्ताएं परस्पर पूरक और सर्व समावेशक हैं, सबको साथ लेकर चलने वाली हैं, वहां ये इयत्ताएं एकांतिक और अलग-अलग हैं।

जैसे, परिवार संस्था की जो पहचान और संबंधों की निरंतरता व गहराई जितनी भारतीय समाज में पाई जाती है, उतना अन्य समाजों में नहीं मिलती। इसी प्रकार विवाह की जो मर्यादा भारतीय समाज में है, वह पश्चिमी समाज में नहीं है। इसलिए इयत्ताओं की गहनता समान नहीं है।

पश्चिमी समाज और विशेषकर यूरोप में जनसंख्या का स्थानांतरण और मारामारी 78 सौ वर्ष तक इतनी अधिक रही कि उन्हें परंपरा नाम की चीज का अहसास कम होता है। भारत मे परंपरा की निरंतरता अधिक गहरी है। इसलिए यहां जो वैकल्पिक व्यवस्था बने, उसमें व्यक्ति की बजाए परिवार को एक इकाई मान जाना चाहिए।

उसके कई तरीके हो सकते हैं। तरीके बाद में भी ढूंढ़े जाते रहें, क्योंकि भारतीय समाज में पिछले ढाई सौ वर्षों में सोच, ढांचे और तौर तरीकों के संदर्भ काफी कुछ बाहर से थोपा गया है जो न केवल हमारे लिए अनावश्यक है बल्कि नुकसानदेह भी है। यह ढाई सौ वर्षों का कूड़ा कचड़ा एक साल या दस साल में तो दूर होगा नहीं। बुद्धि और आत्मविश्वासपूर्वक अगर काम करेंगे तो 20-25 साल लगेंगे। इसमें भी आज हमने जो राजनीतिक व्यवस्था अपने ऊपर लाद रखी है, पहले इसमें कृमश: तात्कालिक बदलाव किया जाए और व्यापक, गहरे और दूरगामी बदलाव के बारे में बहस चले।

जैसे, क्या जरूरी है कि लोकसभा और राज्यसभा अलग-अलग हो। अब तो यह स्पष्ट हो गया है राज्यसभा के लोग राज्यों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। वे नाम के लिए ही किसी-किसी राज्य के बाशिंदे बन जाते हैं। तो ऐसा ही क्यों न किया जाए कि लोकसभा और राज्यसभा मिलाकर 1000 स्थान हों जिसमें 500 स्थान संस्था के आधार पर और शेष 500 स्थान विभिन्न क्षेत्रों के निगमों, निकायों या संगठनों द्वारा प्रेषित लोगों से भरे जाएं।

तब देश के अलग-अलग वर्गों के लोगों के हितों की अपेक्षाकृत अधिक चर्चा हो। नहीं तो अभी क्या हो रहा है कि चुनाव प्रणाली, भारतीय समाज और पारंपरिक समाज में नई अधकचरी व्यवस्था थोपे जाने के कारण एक ओर जहां सारी व्यवस्था जातिवाद, बाहुबल, धनबल आदि का शिकार हो रही है, वहीं दूसरी ओर अभावग्रस्त लोगों की चिंता कम हो रही है।

जब यह व्यवस्था नोट, वोट, बिखंडन और असंतोष के आधार पर चलेगी तो सही परिणाम कैसे दे पाएगी? मेरे विचार से इस व्यवस्था में क्रमश: सुधार हों। इस सुधार का एक सूत्र होगा धन और राजसत्ता का प्रभावी और परिणामकारी विकेंद्रीकरण और दूसरा सूत्र होगा परिवार जिसे अभी तक केवल सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से एक इकाई माना गया है, को आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से एक इकाई की मान्यता देना।

इसको व्यावहारिक रूप देने के लिए सबसे पहले तो 49-51 की जगह पर बहुलायतन, सकलायतन अर्थात् आम सहमति की दिशा में बढ़ें। इसके लिए निर्वाचन प्रक्रिया में न्यूनतम 50 प्रतिशत वोट मिलना सुनिश्चित किया जाए। यदि किसी को 50 प्रतिशत वोट नहीं मिलते तो सभी प्रत्याशियों को अयोग्य घोषत करके फिर से चुनाव कराए जाएं। मतलब किसी भी तरह 50 प्रतिशत वोट मिलना सुनिश्चित किया जाए।

नीचे की इकाइयों के लिए 80 प्रतिशत वोट मिलना निश्चित किया जाए। तभी सर्वानृमति, आम सहमति की दिशा में बढ़ना संभव होगा। तब उस स्पर्धा की जगह सहयोग उस चुनाव का मंत्र बनेगा। इस प्रकार परिवार को राजनीतिक इकाई की मान्यता देने के लिए बहुबिध प्रयोगों की जरूरत है। यह भी जरूरी नहीं है कि सभी प्रदेशों में एक ही निर्वाचन प्रद्धति हो। अलग-अलग प्रयोग किए जाएं। उन प्रयोगों से मिले अनुभवों के आधार पर परिवर्तन किए जाएं। यह आसान प्रक्रिया नहीं है।

प्लेटो ‘रिपब्लिक’ पुस्तक लिख रहा था, उस समय भारत के अलग-अलग हिस्सों में 16 अलग-अलग प्रकार की राज्य व्यवस्था कारगर रूप से चल रही थीं। अत: कोई जरूरी नहीं है कि पूरे देश में एक ही व्यवस्था हो। केवल देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा आदि की देख रेख के लिए व्यवस्था बनाएं। नए रास्ते ढूंढ़ने होंगे। नए रास्ते वही ढूंढता है जो आत्मविश्वास से भरा होता है। हम अपना नया रास्ता गढ़ सकते हैं क्योंकि हम पहले भी गढ़ चुके हैं।

यह अहसास कि दूसरे का रास्ता दूसरे के लिए उपयोगी हो तो जरूरी नहीं कि हमारे लिए भी उपयोगी हो और यदि हमारे लिए उपयोगी है भी तो उसके निरीक्षण, परीक्षण और समीक्षण की बुध्दि स्वाभिमान और आत्मविश्वास से ही आती है। विश्व के देशों को देखें तो फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, अमरीका, रूस आदि देशों में लोकतंत्र की व्यवस्थाएं अलग-अलग प्रकार की हैं। यह किसने कह दिया कि अंग्रेजों का प्रारूप ही कारगर होने वाला प्रारूप है।

यह केवल आत्मविश्वासहीनता के भाव के कारण ही हमने माना हुआ है।

आज जो व्यवस्था चल रही है, वह न तो भारत की जनता द्वारा स्वीकृत थी और न ही भारत की जनता के हित को ध्यान में रखकर बनाई गई थी। आखिर जो संविधान हमने स्वीकार किया उस संविधान सभा की सदस्यता का आधार क्या था? 1936-37 में जो चुनाव हुआ था, उसमें वयस्क मताधिकार तो था नहीं। उस समय तो जिसके पास कुछ संपति वगैरह थी, वे ही वोट देते थे। उनके द्वारा ही चुने गए लोग संविधान सभा में थे। अत: देश के केवल 14-15 प्रतिशत लोगों का ही उसमें प्रतिनिधित्व था।

वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन राजसत्ता के अंदर से नहीं हो सकता। यदि राजसत्ता के अंदर से कुछ परिवर्तन प्रारंभ भी हों तो सत्ता उसे अपना सहभागी बना लेती है। इसलिए बाहर से जन-चेतना, जन समझ और जन सहमति बढ़ानी होगी। कोशिश इतनी ही हो कि सबकुछ अहिंसक ढंग से हो क्योंकि हिंसात्मक पद्धति से सच का आधा हिस्सा मर जाता है। इसलिए इतना परहेज रखते हुए आगे बढ़ना होगा।

हम अपने ढंग से अपने हितों के बारे में सोचें और अपनी समस्याओं का समाधान अपने ढंग से निकालें। इसकी आवश्यकता है।

2 COMMENTS

  1. आपलोग सत्ता और उसके दुरूपयोग की बातें तो करते हैं,पर क्या हममें में से किसी ने यह सोचने का कष्ट उठाया है की हम ऐसे क्यों हैं, की हमें अपनी बुराई नजर ही नहीं आती?हम दूसरे को दोष देने के पहले और किसी प्रणाली विशेष पर आक्षेप के पहले यह क्यों नहीं सोचते की वास्तविक अपराधी हम खुद है.इस मुद्दे पर मैं इतनी बार लिख चूका हूँ की मुझे लगता है की मैं केवल अपने को दुहरा रहा हूँ.सब लोग अगर केवल आत्म विश्लेषण करना शुरू कर दे तो समझ में आ जायेगा की वास्तविक दोषी कौन है? मैं फिर कहूँगा की सत्ता या उसकी प्रणाली बदलने से कुछ होने जाने वाला नहीं है.

  2. “शुद्ध हिन्दुत्व” और “शुद्ध वामपंथ” का मिलन ही समाधान है. दोनो का परस्पर सहयोग ही किसी नई व्यवस्था को जन्म दे सकेगा. देश को आजाद कराना बांकी है. ऐसा संविधान या ऐसी व्यवस्था जो देशद्रोहियो को सत्ता पर बैठा दे उसे त्याज्य समझना ही होगा.

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