भारत में चर्च के पैसे से चलाया जा रहा है माओवादी तोड-फोड

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उडीसा के कंधमाल में संत लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या की जिम्मेदारी माओवादियों ने अपने ऊपर लेकर साबित कर दिया है कि माओवादी भारतीय सनातन मान्यताओं के खिलाफ और चर्च परस्त है। हालांकि जिस व्यक्ति ने अपने ऊपर हत्या की जिम्मेवारी ली है वह माओवादी है या नहीं यह भी खोज का विषय है लेकिन चर्च और चर्च समर्थित मीडिया द्वारा किये गये प्रचार से साबित हो गया है कि लक्ष्मणानंद कि हत्या चर्च के इशारे पर माओवादियों के द्वारा की गयी है।
माओपंथियों का चर्च समर्थित व्यक्तित्व कोई एक दो दिनों में नहीं गढा गया है। याद रहे भारतीय उपमहाद्वीप में माओवादियों का नेतृत्व सदा से चर्च समर्थकों के हाथ में ही रहा है। 70 के दशक में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी से चरम वामपंथियों के अलग होने के पीछे सारे कारणों के अलावे एक कारण ईसाइयत एप्रोच भी था। कानू सन्याल या फिर चारू मोजुमदार के व्यक्तित्व से साफ झलकता है कि वह भारतीय परंपराओं के खिलाफ और ईसाइयत का हिमायती था। यही नहीं बिहार के एक कैथोलिक ईसाई पादरी को योजनाबद्ध तरीके से माओवादियों के साथ लगाया गया कि वह वहां चर्च की मान्यताओं को सिखाए। कई माओपंथियों को चर्च में शरण लेते देखा गया है। माओवादियों की चर्च परस्ती कोई नई बात नहीं है। ऐसे भी ईसाइयत, इस्लाम और मार्क्सवाद तीनों भोग के प्रति समान विचार रखता है। यही कारण है कि साम्यवाद, इस्लाम और ईसाइयत से अपने आप को निकट महसूस करता है जबकि भारतीय चिंतन से कोसों दूर महसूस करता है।
चर्च भारत को एक राजनीतिक स्वरूप में नहीं देखना चाहता है। यही कारण है कि जहां जहां चर्च की ताकत बढी है वहां-वहां पृथकतावादी मानसिकता का उदय हुआ है। गंभीरता से विचार करने और भारत, नेपाल, वर्मा, श्रीलंका आदि देशों में साम्यवाद के चरमपंथ की ठीक से मीमांसा करने पर स्पष्ट हो जाता है कि माओवादी चर्च से ही प्रेरणा लेते हैं। झारखंड, छतीसगढ, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, उडीसा आदि राज्यों के माओवादी अध्यन से पता चला है कि आला माओपंथी नेता चर्च में शरण लेते हैं। वर्ष 2002 में झारखंड में दो पादरी को माओवादी गतिविधियों में संलिप्त होने के कारण गिरफ्तार किया गया था। इधर के दिनों में लगातार झारखंड, छतीसगढ, बंगाल और उडीसा के अलावा बिहार में माओवादियों ने इमानदार और हिन्दू आस्था पर श्रध्दा रखने वाले लोगों की हत्या की। यही नहीं कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं को जंगल में काम करने से माओवादियों के द्वारा रोका भी गया है।
विकास भारती के संचालक अशोक भगत, गांधी आश्रम से जुडे कई कार्यकर्ताओं को आदिवासी हितचिंतक होने के बावजूद पीपुल्स वार ग्रुप के चरमपंथियों ने कई बार अपहरण किया है। हालांकि सामाजिक पकड होने के कारण उन्हें छोडना पडा लेकिन जंगल में काम करने वाले, आदिवासियों की सांस्कृतिक पहचान के लिए लडने वालों पर आज भी माओवादी खतरा मंडरा रहा है। कई बार छतीसगढ में हिन्दु संतों पर आक्रमण हो चुका है। इन तमाम आक्रमणों में एक भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता जिससे यह साबित हो कि माओवादी चर्च के भी उतने ही दुश्मन हैं जितने हिन्दुत्व के। उक्त प्रदेशों में पादरी या चर्च से संबंधित लोगों की हत्या अगर हुई भी है तो आपसी षड्यंत्र के कारण न कि बाहरी हस्तक्षेप के कारण। वर्ष 2000 में लोहरदग्गा(ततकालीन बिहार अब झारखंड) के जिला पुलिस अधीक्षक अजय कुमार सिंह की हत्या माओवादियों ने कर दी। उक्त अधिकारी जंगल में चर्च के नाजायज गतिविधियों पर अंकुश लगाने का काम किया था। मिशनरियों को अबैध गतिविधियां चलाने में परेशानी होने लगी और चर्च के इशारे पर माओवादियों ने अजय को मौत की घट उतार दिया। यही हस्र भभुआ (बिहार) डीएफओ संजय सिंह के साथ हुआ। उसने भी चर्च की गतिविधयों पर अंकुश लगाने का प्रयास किया था लेकिन उसकी भी हत्या कर दी गयी। डीएफओ संजय के कारण तो जंगल के आदिवासी सजग होने लगे थे। चर्च की गतिविधियों और षडयंत्रों को समझने भी लगे थे। चर्च को अपने काम में हो रहे अवरोधों के कारण चर्च ने संजय की हत्या का षड्यंत्र किया। दोनों होनहार अधिकारी माओवादियों के हाथों मारा गया लेकिन इसके पीछे चर्च के हाथों से इन्कार नहीं किया जाना चाहिए।
तमाम आंकडों को एकत्र कर समीक्षा की जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीप का माओवादी पूर्णरूपेण चर्च के इशारे पर काम कर रहा है। नेपाल से लेकर उत्तराखंड तक जो भी माओवादी, प्रत्यक्ष या परोक्ष गतिविधि में लगे हैं कहीं न कहीं चर्च से प्रभावित है। लगभग एक साल पहले राही नामक माओवादी उत्तराखंड से गिरफ्तार किया गया था। राही का मनोविज्ञान भी चर्च से मेल खाता है। बगहा (बिहार) के जंगल में ओशो नामक माओवादी पकडा गया था। उसका भी चर्च के साथ मधुर संबंध था। अपने बयान में ओशो ने यहां तक कहा कि वह हरनाटार के चर्च में रहा करता थ। इस प्रकार भारतीय मान्यताओं तथा आस्थाओं पर चोट करने वाले माओवदियों को धर्मनिरपेक्ष कहकर प्रचारित करना बिल्कुल गलत है। ये माओवादी चर्च के चिंतन का ही विस्तार है। इन्हें न केवल चर्च से धन मुहैया कराया जाता है अपितु इनके माध्यम से हिन्दु मान्यताओं के खिलाफ मोर्चेबंदी भी की जा रही है। चर्च के पृथकीय व्यक्तित्व का हिसाब-किताब भारतीय खुफिया एजेंसी के पास भी है लेकिन भारत में चर्च का जाल इतना मजबूत हो गया है कि उसके खिलाफ कार्रवाई करना कठिन हो गया है। लक्ष्मणानंद जी की हत्या ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि चर्च और माओपंथी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। चर्च के पैसे से माओवादी भारत में तोड-फोड कर रहा है।
भारत सरकार को इस दिशा में सोचना चाहिए तथा चर्च और माओवादियों के बीच के संबंध पर जांच होनी चाहिए। ऐसा नहीं किया गया तो चर्च पैसे के बल पर पृथकतावाद को हवा देता रहेगा। तब फिर देश को एक रखना कठिन हो जाएगा। चर्च से माओवादियों के संबंध तो हैं लेकिन हालिया घटना पूज्य लक्ष्मणानंद जी कि हत्या ने एक बार फिर चर्च और माओवादियों के नापाक संबंधों को उजागर कर दिया है।

लेखक- गौतम चौधरी

(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

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  1. लेकिन अब हिन्दू सामाजिक्/सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रयास से बनवासियों में नयी चेतना आ रही है। पिछले चुनावों में यह बात खुलकर स्पष्ट हो गयी है।

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