सुरेश हिन्दुस्थानी
नक्सलियों ने एक बार फिर सुरक्षा बलों के समूह पर हमला बोल कर अपने कुत्सित इरादों का परिचय दिया है। सुकमा के घने जंगलों में घात लगाकर किए गए इस हमले में माक्र्सवाद के समर्थक नक्सलियों ने 14 पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया। इस घटना को लेकर राजनीतिक दलों ने फिर वही खेल खेलना प्रारंभ कर दिया है, जैसा पूर्व में खेला जाता रहा है। वैसा ही राजनीतिक विरोध विपक्षी दलों द्वारा किया जा रहा है। हमारे देश में यह सबसे बड़ी कमी है कि ऐसे हमलों को हर बार सरकार का असफल प्रयास करार देकर मामले को गरमाने का प्रयास किया जाता रहा है।
देश में फैल रहे आतंक की समस्या अत्यन्त विकराल स्थिति में अग्रसर हो चुकी है। फिर चाहे वह आतंक इस्लामी विचार से प्रेरित हो अथवा माक्र्सवाद के समर्थक नक्सलवाद हों। आतंक तो आतंक ही होता है। भारत में आतंक को किसी भी रूप में बर्दाश्त करना वास्तव में देश के सामने अनसुलझे वातावरण को निर्मित करना ही माना जाएगा। ऐसे मामलों में सरकार के प्रयासों का सभी ओर से समर्थन ही करना चाहिए, लेकिन हमारे देश हमेशा ही इसके विपरीत ही मंथन होता रहा है। जो राष्ट्रीय हित के लिए कतई स्वीकार योग्य नहीं है। जहां तक राष्ट्रीय मर्यादाओं का सवाल है तो हमें अमेरिका से प्रेरणा लेना चाहिए, उसने विश्व व्यापार केन्द्र पर हुए हमले का ऐसा जवाब दिया कि आतंकवादी अमेरिका को हमले की धमकी भर ही देते रहे, लेकिन कुछ बिगाड़ नहीं सके। यहां उल्लेखनीय यह है कि अमेरिका का पूरा जनमानस राष्ट्रीय हितों के अनुकूल ही बात करते रहे। किसी ने भी सरकार का विरोध तक नहीं किया। ऐसे मामले हमेशा ही राष्ट्र की कमजोरी को ही उजागर करने का कार्य करते हैं। हमारे देश के राजनीतिक दलों ने ऐसे मामलों में हमेशा ही अपना स्वार्थ देखकर ही राजनीति का संचालन किया है। सरकार के विरोध में प्रदर्शन तक किए हैं। यहां तक कि सरकार से त्याग पत्र तक मांगने की कार्यवाही प्रारंभ कर दी जाती है। इस प्रकार के राजनीतिक स्वरों का अध्ययन किया जाए तो यह बात अवश्य ही सामने आती है कि इससे हमलावरों के हौसले बुलन्द होते हैं। अब सवाल यह आता है कि हम जाने अनजाने में कही आतंक फैलाने वाली शक्तियों का मनोबल तो नहीं बढ़ा रहे। अगर बढ़ा रहे हैं तो यह निश्चित ही देशघाती कदम माना जाएगा।
भारत दो तरफा आतंक की मार को झेल रहा है, एक तरफ जहां देश के अन्दर इस्लाम द्वारा प्रेरित आतंकी संगठनों के प्रमाण प्राप्त हो रहे हैं तो दूसरी तरफ लाल आतंक के नाम से मशहूर नक्सलवाद भी देश में घातक समस्याओं को अंजाम दे रहा है। दोनों आतंकी धाराओं को पोषित करने वाले हमारे देश में मौजूद हैं। हम जानते हैं कि हमारे देश में इस्लाम के कई अनुयाई सरेआम आतंकवादियों का समर्थन करते दिखाई और सुनाई देते हैं।
वर्तमान में जिस प्रकार से विकराल समस्याएं देश के सामने भय का वातावरण बना रहीं हैं। सरकारों द्वारा अपनाए गए ढीले रवैये के चलते अभी तक इस पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं लग पाना, प्रथम तो सरकार की उदासीनता और कर्तव्यहीनता को दर्शाता है, दूसरे एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमारा जो कर्तव्य बनता है, हम उसका निर्वाह भी ठीक ढंग से कर पाने में असमर्थ हो रहे हैं। भारत की आम जनता के साथ साथ सभी राजनेताओं को यह बात प्राथमिकता में रखनी चाहिए कि हम देश के जिम्मेदार नागरिक हैं और इस नाते आतंक के मुद्दों पर सरकार का विरोध करने के बजाय केधे से कंधा मिलाकर उसका साथ देना चाहिए। विश्व के कई देशों में इस बात के तमाम उदाहरण मिल जाते हैं कि राष्ट्रीय हितों या किसी दुश्मन देश के प्रति वहां के नागरिक एक सैनिक की भूमिका निभाने के लिए हमेशा सरकार के साथ रहते हैं।
जहां तक सुकमा में किए गए नक्सलियों के आतंक की बात है तो यह हमारे देश की नाकामी को उजागर करने के लिए काफी है। क्योंकि नक्सलियों का यह हमला पूरी तरह से नियोजित था। सुकमा घाटी के चिंता गुफा क्षेत्र में नक्सली गतिविधियां आज की देन नहीं है, बल्कि यह उनका घोषित तौर पर कार्य क्षेत्र बनकर उभरा है। पिछले साल ही कई वरिष्ठ कांगे्रस नेताओं की रैली पर हमला करके नक्सलियों ने राजनीतिक जगत में भूचाल सा ला दिया था। इसके बाद इसी क्षेत्र में सेना को एक हैलीकाप्टर को भी निशाना बनाया गया। इतनी बड़ी घटना होने के बाद भी हमारी गुप्तचर संस्थाएं हाथ बांधकर अगली घटना की प्रतीक्षा करने में अपना पूरा समय जाया करती हैं। यह पूरे घटनाक्रम में नक्सलियों ने साफ तौर सरकारी तंत्र को ठेंगा ही दिखाया है क्योंकि नक्सलियों ने सेना को अप्रत्यक्ष रूप से आमंत्रित किया, सेना उस क्षेत्र में पहुंचकर तैयार भी नहीं हो पाई थी कि अचानक हमला कर दिया और चौदह जवान काल कवलित हो गए।
प्रारंभिक पड़ताल में कई सवाल ऐसे सामने आ रहे हैं जिनका जवाब खोजा जाना बेहद जरूरी जान पड़ रहा है। प्रथम सवाल तो यह है कि सुकमा घाटी में नक्सलियों के होने की खबर सेना को कहां से प्राप्त हुई? खबर देने वाला कौन था? इन सूत्रों पर एकाएक विश्वास कैसे कर लिया? और विश्वास कर ही लिया तब पूरी तैयारी क्यों नहीं की गई? इन सवालों के जवाब खोजा जाना जरूरी है। संभवत: इसका जवाब मिल जाने के बाद ही किसी समाधान पर पहुंचा जा सकता है।
यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस प्रकार की मौतों पर हमेशा ही राजनीति की जाती है, राजनीतिक दलों के नेताओं हमेशा की तरह बोलने की बीमारी सी लग जाती है और हमारे राजनेता केवल सरकार को कोसते ही नजर आते हैं। सरकारें भी हमेशा की तरह बयान देती हैं कि ”उचित जवाब दिया जाएगा। कुछ दिनों के बाद जब हालात सामान्य हो जाते हैं तब सरकार अपने कहे हुए को ही भूल जाती है। अगली घटना पर फिर वही खेल प्रारंभ हो जाता है।
अब समय आ गया है कि सरकारें और विपक्ष दोनों को मिलकर एक सामूहिक शक्ति के साथ नक्सलवाद का जवाब देने का रास्ता बनाएं। जिससे फिर से हमारे जवानों को कोई देशद्रोही ताकत अपना निशाना नहीं बना सके। हम जानते हैं कि हमारे सैनिकों की ताकत पर राजनीतिक ताकतों का अकुंश लगा रहता है, बरना हमारी सैन्य शक्ति के समक्ष यह नक्सलवाद बहुत ही छोटी सी बात है। सेना जब चाहे तब इस समस्या का समूल नाश कर सकती है, और समय की मांग भी यही है कि नक्सलवाद को समूल रूप से नष्ट किया जाए, नहीं तो आने वाला समय और घातक होता चला जाएगा। ऐसी स्थिति में हम सभी केवल कोसने और भोगने के सिवाय कुछ कर भी नहीं पाएंगे।