दबे पांव नहीं, खुलेआम घुसाया घरों में पोर्न

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 लीना 

‘‘दबे पांव आपके घर में घुसा पोर्न’’ आवरण कथा और तस्वीर छापकर ( इंडिया टुडे, 23-29 फरवरी 2012) पत्रिका ने यह साबित कर दिया है कि इसका मकसद सिर्फ और सिर्फ अश्लीलता परोसकर बाजार में अपने को कायम रखना भर है। एम. जे. अकबर जैसे संपादक और हाल ही में दिलीप मंडल द्वारा पत्रिका का संपादक बनने के बावजूद यह स्पष्ट है कि सब अश्लीलता को ही बाजार और पाठकों की पसंद (जबरदस्ती ) मानते हुए खामोश हैं। शायद यह पत्रिका के दिवालियेपन की निशानी भी झलकाती है।

लेकिन ऐसी तस्वीरें छापने से पहले यकीनन पत्रिका को खुद को ‘‘केवल वयस्कों के लिए’’ घोषित कर देना चाहिए। क्योंकि अमूनन घर के सभी लोगों द्वारा पढ़ी जाने वाली यह पत्रिका इस बार यह न सिर्फ बच्चों के सामने रखने के लायक नहीं है, बल्कि इसे आम भारतीय घरों में आप बड़े बुजुर्गों के सामने भी नहीं रख पाएंगें। मतलब कि यह सिर्फ निजी तौर पर इस्तेमाल की जा सकेगी !

विषय पर लिखी गई सामग्री की बात जाने दें। यह तो पत्रकारिता के हिसाब से खबर है, (हांलांकि इस खबर का कोई सरोकार नजर नहीं आता) लेकिन ऐसी तस्वीरें छापने की क्या जरूरत? यह कह सकते हैं कि सनी लियोनी तो महीनों राष्ट्रीय चैनल पर दिखाई दी हैं। लेकिन देखने वाले जानते हैं कि वहां भी सनी ऐसी वेशभूषा में नहीं दिखीं।

और ऐसा करके पत्रिका ने जिस कहानी को परोसा है उसे ही पुरजोर बढ़ावा दे रहा है। यानी खासकर बच्चों में पोर्न के प्रति उत्कंठा जगाना। यही नहीं पत्रिका ने कहां कहां चीजें उपलब्ध हैं सारी जानकारी भी जुटा दी है।

वैसे यह सर्वविदित तथ्य है कि हमेशा से ही व्यस्क लोगों का पोर्न के प्रति रुझान रहा है और वे इसे देखते रहे हैं। घरों में एक परिवार में हर माता पिता अपने बहू- बेटे या फिर घर में रहने वाले किसी भी दम्तत्ति या (इसके उलट) के बारे में जानते हैं कि बंद कमरे में क्या होता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे इसकी सार्वजनिक चर्चा करते हों ? खबर के नाम पर पत्र-पत्रिकाएं और इस बार इंडिया टुडे ने जो किया है वह कुछ ऐसा ही है।

पत्रिका के लिए वैसे यह कोई नई बात नहीं है। खबर या सर्वे के नाम पर अश्लीलता परोसने का काम वह अक्सर ही करता रहा है। सर्वेक्षणों के बहाने अश्लीलता परोसने का कोई मौका नहीं चूके देश के कई प्रतिष्ठित, लोकप्रिय और आमजनों की पत्रिका। वैसे भी पत्रिका ने ‘पोर्न बाजार की काली कहानी’ शीर्षक से इस इंडस्ट्री की वही पुरानी और बार बार दोहराने वाली कहानी छाप कर यह साबित कर दिया है कि वह नई बोतल में पुरानी शराब ही पेश कर रही है। इसे क्या कहें ? खबरों का अभाव, वैचारिक दारिद्र्यता, विचारों-विश्लेषणों का अभाव, या फिर प्रकाशकों- संपादकों की संकीर्ण होती यह सोच कि पाठकों को सिर्फ और सिर्फ अश्लीलता के माध्यम से ही खींचा जा सकता है। या फिर बाजारवाद इतना हावी है और आपको ऐसा लगता है कि सिर्फ अश्लीलता से ही पत्रिकाएं बिकेंगी। और आपको सिर्फ बेचने से ही मतलब है तो फिर क्यों न ‘केवल व्यस्कों के लिए’ पत्रिकाएं निकाली- छापी जाएं ? एक पारिवारिक पत्रिका नहीं। इंडिया टूडे, आउटलुक जैसी पत्रिकाएं पारिवारिक हैं। (अब तक तो लोग यही मानते हैं ।) लेकिन पिछले कई वर्षों के कई अंक किसी भी मायनों में सबके बीच घर की मेज या विद्यार्थियों के स्टडी टेबल पर रखने लायक नहीं थे। शहरी पुरुषों की नजर में कैटरीना कैफ की सेक्स अपील का प्रतिशत बताने के लिए पेड़ों के पीछे जोड़े को प्रेमरत दिखाने का क्या मतलब ? या फिर यौन सर्वेक्षण विशेषांक के आवरण पर लगभग पोर्नग्राफी वाली तस्वीर जरूरी है। यानि जान बूझकर बेमतलब ही परोसी गई अश्ललीता। चर्चा में आने के लिए! माना चर्चा में आए भी। लेकिन क्या यह जरूरी- उचित है ? या पाठकों को सचमुच खींचने में सफल रहे आप- यह तो पत्रों को सोचना ही पड़ेगा।

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लीना
पटना, बिहार में जन्‍म। राजनीतिशास्‍त्र से स्‍नातकोत्तर एवं पत्रकारिता से पीजी डिप्‍लोमा। 2000-02 तक दैनिक हिन्‍दुस्‍तान, पटना में कार्य करते हुए रिपोर्टिंग, संपादन व पेज बनाने का अनुभव, 1997 से हिन्‍दुस्‍तान, राष्‍ट्रीय सहारा, पंजाब केसरी, आउटलुक हिंदी इत्‍यादि राष्‍ट्रीय व क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रिपोर्ट, खबरें व फीचर प्रकाशित। आकाशवाणी: पटना व कोहिमा से वार्ता, कविता प्र‍सारित। संप्रति: संपादक- ई-पत्रिका ’मीडियामोरचा’ और बढ़ते कदम। संप्रति: संपादक- ई-पत्रिका 'मीडियामोरचा' और ग्रामीण परिवेश पर आधारित पटना से प्रकाशित पत्रिका 'गांव समाज' में समाचार संपादक।

2 COMMENTS

  1. (१)
    ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थास्रम, वानप्रस्थाश्रम, और संन्यस्ताश्रम;——-
    (२)
    इत्यादि से युक्त, आदर्श समाज व्यवस्था के भी वानप्रस्थ और संन्यास उपेक्षित पहले ही हो चुके थे|
    (३)
    किन्तु, शिशु, बाल, किशोर और युवाओं का ब्रह्मचर्याश्रम न्यूनाधिक मात्रामें, आज तक कुछ सुरक्षित रहा था| इस लिए आज तक हमारा समाज, आर्थिक विपन्नावस्था में भी जैसे तैसे जीवित है|
    (४) पोर्नोग्राफी हमारे शिशु बाल किशोर युवाओं को ऐसे रोग (काम ज्वर) की ओर अग्रसर करा देगी, जिस का अनुमान करना भी कठिन है|
    ===> २५ वर्षों पहले ३ में १ विवाह विच्छेद होता था अमरिकामें,
    ====>आज २ में से १ विवाह विच्छेद होता है|
    (५)
    हमारे ४ पुरुषार्थों में से २ ही सामान्यत: बचे थे, अर्थ और काम|
    ===> किन्तु यदि एक ही पुरुषार्थ बचेगा तो २५-५० वर्षों बाद क्या होगा?
    पाषाण युग की और प्रयाण?
    (६)
    और हम आप तो चले जाएंगे, तो कैसी धरोहर छोड़ना चाहते हैं, हम संतानों के लिए ?
    हम वे हैं , जिन्हें, एक आदर्श समाज व्यवस्था परम्परा से प्राप्त है, किधर देख रहे हैं?
    कहाँ जा रहे हैं?
    (७)
    वहां जाकर वापस आया नहीं जाता| यह सिंह की गुफा है| किसीके पदचिह्न वापस आते दिखाई नहीं देते|
    कुछ अधिक तो कहा नहीं ना?
    लेखिका लीना को शतश: धन्यवाद|

    • आप भी कहाँ का रोना लेके बैठ गयी, इन स्वघोषित बुद्धिजीवियों द्वारा उनके स्वघोषित विचारों ( पोर्न, समलैंगिकता,नक्सलवाद, मानवाधिकार आदि ) के पोषण एवं संवर्धन हेतु इस तरह की बातें कहाँ और लिखना ही उनका लेखकीय धर्म बन गया है. सनसनी फ़ैलाने वाले विषय चुन, उस पर दो चार उलजुलूल सर्वे और अतार्किक विचार छाप कर ये बस अपनी लेखकीय रोटियां सेक रहे है.

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