भारत को पहले विकास की अवधारणा पर करना होगा विचार

– डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

भारत में विकास की बहुत चर्चा हो रही है। कई बार अमेरिका के कुछ अखबार पत्र पत्रिकाएं या अर्थशास्त्री यह आकलन कर देते हैं आने वाले वर्षों में भारत विकास की दृष्टि से बडे-बडे देशों को पराजित कर देगा। अपने इधर के कुछ लोग जब ऐसा सुनते हैं तो नाच-गाना शुरू कर देते हैं। आखिर अमेरिका का प्रमाण-पत्र झूठा तो नहीं हो सकता। जब अमेरिका कह रहा है तो जाहिर है कि भारत विकास के रास्ते में दुडकी चाल से चलेगा ही। उसके बाद कुछ अरसे उपरांत अमेरिका के वही विशेषज्ञ दोबारा लिखते हैं कि भारत में विकास की चोटी पर पहुँचने की अपार संभावनाएं तो विद्यमान है लेकिन उसके लिए भारत को कुछ नीतिगत निर्णय भी करने पडेंगे और वे निर्णय क्या होने चाहिए इसका स्पष्ट और अस्पष्ट संकेत भी अमेरिका के ये विशेषज्ञ दे देते हैं। अब प्रश्न आखिर विकास की चोटी पर पहुँचने का है। उसके लिए थोडी मेहनत की जाए तो उसमें कोई बुराई नहीं है। भारत को तो अमेरिका का धन्यवादी होना चाहिए कि अमेरिका के विद्वान इतनी मेहनत करके भारत को विकास के शिखर पर पहुँचाने के लिए रास्ते और नीतियाँ बता रहे हैं। और सचमुच भारत में कुछ लोग अमेरिका के इस एहसान से दबकर दोहरे हुए जा रहे हैं। अमेरिका दो कदम चलने को कहता है। अपने यहां छलांग लगाने की तैयारी हो जाती है।

भारत के साथ ऐसा अभी से नहीं हो रहा है। पिछले 300 सालों से यही किस्सा दोहराया जा रहा है। जब यहां अंग्रेज शासक बनकर आए थे तो उनका यही कहना था कि भारत विकास की दौड में बहुत पिछड गया है। यहां के लोग अर्धविकसित हैं। इसलिए इसको विकसित करना उनका कर्तव्य है। अंग्रेजों के चले जाने के बाद और यूनियन जैक का तारा अस्त हो जाने के बाद यही काम अमेरिका ने संभाल लिया। विकास की भारतीय और पश्चिमी अवधारणा में स्पष्ट ही अंतर है और यह अंतर काफी गहरा है विकास की भारतीय दृष्टि अंतर्मुखी है और पश्चिम की बर्हिमुखी है। मानव विकास की तमाम यात्राएं चाहेवे पूर्वी दर्शन की यात्रा हो या फिर पश्चिमी दर्शन की यात्रा हो यह मानकर चलती है कि मनुष्य के विकास की कहानी पशु के विकास से प्रारंभ होती हैं क्योंकि भारतीय चिंतकों ने भी मनुष्य को मूलतः पशु स्वीकार किया है। पश्चिम में जब जीव विज्ञान का विकास हुआ€ तो वहां तो मनुष्य का वर्गीकरण पशुओं के साथ ही हुआ। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि विकास का अर्थ पशुता से प्रारंभ की गई उर्ध्वमुखी यात्रा है। यहां तक तो शायद मतभेद की गुंजाइश नहीं है परंतु उसके बाद मतभेद की गुंजाइश के आधार बढते जाते हैं। पश्चिम की दृष्टि में (अब तक की उसकी तमाम गतिविधियों, क्रियाकलापों और कर्मों को देखकर) विकास का भाव इस पशु को ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुविधाएं प्रदान करने का है। उसे सजधज कर रहना है। उसके लिए बढिया मकान होने चाहिए, उसके लिए अन्य सभी सुविधाएं होनी चाहिए जिससे उसे कम से कम श्रम करना पडे। उसके पास जितनी ज्यादा चीजों का अंबार है वह उतना ही ज्यादा विकसित है। नए-नए यंत्र, नए-नए उपकरण उसकी पहुँच में होने चाहिए। जाहिर है कि इसी दृष्टि से इन उपकरणों का उत्पादन भी होना चाहिए। अपरिमित उत्पादन और उसका अपरिमित भोग आधुनिक दृष्टि से पश्चिम इसी को विकास का मानदण्ड मानता है। उत्पादन और भोग में केवल वस्तुएं ही सम्मिलित नहीं है बल्कि विविध प्रकार की सेवाएं भी शामिल है। ज्यादा से ज्यादा सेवाओं का अधिग्रहण और उपभोग पश्चिम के किसी व्य्ाक्ति को विकसित बनाता है। यदि इसको सूत्र रूप में कहना हो तो भौतिक विकास ही पश्चिम की दृष्टि में विकास है। भौतिक विकास तभी संभव है यदि मानवीय इच्छाएं, इंद्रियां और महत्वकांक्षाएं अनियंत्रित हो जाएं। अतः विकास के लिए यह भी जरूरी है कि अतृप्त इच्छाएं ज्यादा से ज्यादा भोग की कामना करती रहें। यह विकास का भौतिक पक्ष है। पश्चिम के व्य्ाक्ति को जिस देश में यह दिखाई नहीं देता उसकी दृष्टि में वह देश अविकसित है€ और उसके रहने वाले लोग पिछडे हुए। एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। जिस समय इस देश में अंग्रेज शासक बन कर आए उस समय यह देश आर्थिक दृष्टि से शैक्षिक दृष्टि से और सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न देश था। (प्रो. धर्मपाल ने इसे आंकडों से स्थापित किया है, आर्थिक दृष्टि से इस देश की संपन्नता की चर्चा सोद्देश्य्ा की गई है। परंतु इन सब के बावजूद अंग्रेजी शासकों, विद्वानों, और चिंतकों ने भारत को अविकसित और पिछडा हुआ देश माना। इसका अर्थ यह लिया जा सकता है कि उन्हें यहां के लोगों में भौतिक वस्तुओं के प्रति अपरिमित लालसा नजर नहीं आई होगी। जाहिर है इस एक ही कसौटी पर भारत अविकसित ठहरा दिया गया और इसको विकसित करने के उन्होंने अनेक प्रयास किए। हमारे विद्वान अभी तक भी यह स्वीकार करते हैं कि भारत के विकास में अंग्रेजी शासन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

भारत में विकास की अवधारणा इसके विपरीत है। यहां विकास का लक्षण है ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुविधाओं की लालसा पर ज्यादा से ज्यादा नियंत्रण रखना। उतना भोग करना जितना इस शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए पर्याप्त है। भारत में विकास का लक्षण है ऐसा वातावरण और पर्यावरण बनाना जिसमें किसी को रोग न हो। पश्चिम में इस प्रकार का वातावरण बनाने के प्रयासों को पिछडापन कहा जाता है और बिमार के अस्पताल में आ जाने पर उसका सर्वोत्तम इलाज ही विकास कहलाता है। भारत में विकास का अर्थ है कि व्यक्ति को अस्पताल में जाने की जरूरत न पडे। पश्चिम में विकास का अर्थ है अस्पताल में आने पर उसका सर्वोत्तम इलाज किया जाए। विकास को लेकर दोनों अवधारणाओं का यह स्पष्ट अंतर है। लेकिन ऐसा मानना पड़ेगा कि पिछली लगभग दो शताब्दियों से कम से कम भारत सरकार और उसके विशेषज्ञों ने विकास के उन्हीं मानदण्डों को स्वीकार किया है जो मानदण्ड पश्चिमी विशेषज्ञों ने निर्धारित किये हैं।

विकास की अवधारणा को लेकर यह लडाई देश की स्वतंत्रता के उषाकाल में ही प्रारंभ हो गई थी। आजादी से कुछ अरसा पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी में भविष्य्ा के भारत में विकास के मॉडल को लेकर गहरा विवाद छिड गया था। महात्मा गांधी भारत का विकास हिन्द स्वराज के मॉडल पर करना चाहते थे। यह मॉडल अपनी आत्मा, प्रकृति और स्वभाव में भारतीय मॉडल कहा जा सकता है। जवाहर लाल नेहरू ने उसी सिरे से अस्वीकार ही नहीं किया बल्कि गांधी जी के लिए लगभग अपमानजनक शब्दों का भी प्रयोगकिया। नेहरू ने गांधी जी को लिखा था कि बीस साल पहले जब मैंने हिन्दू स्वराज पढा था तब भी मुझे वह अप्रासंगिक ही लगा था अब आज १९४७ में तो वह रद्दी की टोकरी में फेंकने के योग्य है। नेहरू जी का भाव कुछ-कुछ इस प्रकार का था कि उनकी दृष्टि में इस विषय पर महात्मा गांधी से बात करना भी समय की बर्बादी होगी। गांधी जी विकास के लिए गांव को ईकाई के रूप में स्वीकारते थे जबकि नेहरू ने लिखा – कि गांव के लोग तो वौद्धिक दृष्टि से पिछडे हुए होते हैं। यहां पंडित नेहरू और पश्चिम के विशेषज्ञ लगभग एक ही भाषा बोलते हुए नजर आते हैं। यह जरूर आश्चर्य चकित करता है कि नेहरू ने पूरी ईमानदारी से गांधी के विकास के मॉडल को नकार दिया लेकिन गांधी इसके बावजूद नेहरू को नकारने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। नेहरू के मन को जान लेने के बाद महात्मा गांधी भलीभांति कल्पना कर सकते थे, (और उन्होंने की भी होगी- कि नेहरू तथाकथित विकास के जिस रास्ते पर देश का ले जाएंगे। उसमें आदमी बौना बनता जाएगा तंत्र और मशीन भीमकाय होती जाएगी। इस पूरी प्रक्रिया में मानवीय कर्मों में सृजनात्मक आनंद समाप्त हो जाएगा€ और मनुष्य भी धीरे-धीरे या चेतनाविहीन मशीन या फिर अतृप्त लालसाओं का पशु बन जाएगा। कई बार शंका होती है कि गांधी जी विकास के जिस मॉडल के बारे में क हते थे। उसके क्रियान्वयन के बारे में स्वयं कितने गंभीर थे।

आज भी भारत विकास के उसी मॉडल पर चला हुआ है जो पश्चिम का मॉडल है, पंडित नेहरू का मॉडल है। विकास का यह मॉडल प्रकृति से लडने का मॉडल है। प्रकृति को पराजित करने का मॉडल है। उसी का प्रभाव है कि ओजोन परत में छेद हो रहा है ग्लेशियर पिघल रहेे हैं, तापमान बढ रहा है, नई बिमारियाँ आ रही हैं। लेकिन इसके बावजूद भारत तो आँखें मूँदकर विकास के मामले में अमेरिका का पिछलग्गू बना हुआ है। भारत को ऊर्जा की आवश्य्ाकता है। अमेरिका उसके लिए हमें अपने रियेक्टर बेच रहा है और साथ ही परमाणु संधि से विकलांग बना रहा है। हम अपनी जल ऊर्जा को छोडकर परमाणु ऊर्जा के पीछे भाग रहे हैं। भीमकाय अमेरीकी व्य्ावसायिक कंपनियाँ इस देश में आ रही है। कच्चा माल विदेश में जा रहा है। किसान को मालिक से मजदूर बनाया जा रहा है। कभी अंग्रेजों ने पुलिस के बल पर नील की खेती करवाई थी। हजारों किसान मारे थे और भुखमरी का शिकार हो गए थे। आज फिर अमेरिका के कहने पर भारत सरकार किसानों को कांट्रेक्ट फार्मिंग के लिए मजबूर कर रही है। यह नील की खेती का नया संस्करण है। विशालकाय मॉल बनाए जा रहे हैं। दूर जाने की जरूरत नहीं है विकास के नाम पर गांव उजड रहे हैं। शहर भारीभरकम बनते जा रहे हैं, समाज को लक्वा मार रहा है और राज्य हिंसक बनता जा रहा है। इतना हिंसक कि नंदीग्राम में किसानों को दिन दिहाडे मारकर उनकी जमीन छीनकर पूंजीपतियों के हवाले कर रहा है और यह सारा कुछ विकास के नाम पर किया जा रहा है।

विकास के तमाम दावों के बावजूद इस मॉडल में विकसित हुआ मनुष्य मूलतः वहीं खडा हुआ है जहाँ शिकारी युग का मनुष्य खडा था। पश्चिम में विकास के दो सिद्धांत जो सर्वाधिक प्रचलित है वे साम्यवादी सिद्धांत और पूंजीवादी सिद्धांत के नाम से जाने जाते हैं। ऊपर से देखने पर लगता है कि शायद इन दोनों मॉडलों में गहरा अंतर है लेकिन दोनों भौतिक दर्शन के सिद्धांत है। अबाध उत्पादन के सिद्धांत पर आधारित हैं। फर्क केवल इतना है कि पूंजीवाद में उत्पादन के साधनों पर कब्जा चंद व्यक्तियों का है। जब कि साम्यवाद में यही कब्जा राज्य का है।

विकास की भारतीय परिकल्पना पुरूषार्थ चतुष्टय पर आधारित है। भौतिक कामनाओं का निषेध नहीं है परंतु उस पर धर्म का नियंत्रण है। अंतिम लक्ष्य तो मोक्ष है ही। इसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के नाम से जाना गया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इसी के आधार पर विकास के एकात्म दर्शन की कामना की थी। गांधी भी मूलतः इसी के उपासक थे। प्रो. बजरंग लाल गुप्त ने इसी को विकास की सुमंगलम अवधारणा कहा है। परंतु इसे देश का दुर्भाग्य कहना चाहिए कि महात्मा गांधी से लेकर दीनदयाल उपाध्याय तक के शिष्यों ने उनकी मूर्तियों की स्थापना तो कर दी है लेकिन उनके विकास दर्शन को नहीं अपनाया। विकास एकात्म दर्शन की मानवीय रास्ता है इस रास्ते के सिवा और कोई रास्ता नहीं है जो भारत के मन और शरीर को स्वस्थ रख सके। २१वीं शताब्दी में इसी रास्ते का संधान करना होगा।

4 COMMENTS

  1. श्रीराम जी,

    दीनदयाल जी के विचारो के अनुरुप विकास अवधारणा को परिवर्तन कर पाना तत्काल कठिन लगता है. इसका अर्थ यह तो नही की उनके विचार त्याज्य है. हमे विचार करना होगा की आज की बिगडी परिस्थिती मे भी उनके सिद्धांतो को किस प्रकार लागु किया जा सकता है. कोई युक्ति निकालनी होगी.

    आपने ठीक कहा. भारत मे अब तक मोबाईल फोन के उपकरण बनाने का कारखाना नही है. लेकिन 10-20 करोड लोग भारत मे मोबाईल फोन प्रयोग करते है. क्या आप अनुमान नही लगा सकते की भारत की कितनी बडी धनराशी मोबाईल फोन सुविधा प्राप्त करने के नाम पर खर्च की गई है. हम मोबाईल फोन के प्रयोग को दश साल के लिए टाल सकते थे. उससे कोई पहाड नही टुटने वाला था. या हमारी सरकार मोबाईल फोन उपकरण के आयात पर 10 प्रतिशत रिसर्च (अनुसंधान) सरचार्ज लगा सकती थी तथा वह धनराशी हमारे शिक्षण संस्थानो को उपलब्ध करा कर रिसर्च करवा सकती थी.

    हमारी सरकार पुरे जोर-सोर से हवाई यातायात को बढावा देने के लिए हवाई अड्डे बनवा रही है. हवाई जहाजो के काफिले का अर्डर दिए जा रहे है. जबकी हम अपने यहां कुछ भी नही बनाते. हम 1000 रुपए का हवाई टिकट खरीदते है तो उसमे से 800 रुपए सीधे विदेश चले जाते है. क्या जरुरत है हवाई यातायात को बढावा देने की. देश की ऐसी सत्ता जो विदेशी पुंजीपति साम्राज्यवदी शक्तियो कि दलाल हो उससे हम और किसी अर्थनिति की अपेक्षा नही कर सकते है.

    महामना दीनदयाल जी के विचार आज स्र्वादिक सान्दर्भिक है, लेकिन हमे उन्हे लागु करने की युक्ति ढुंढना होगा.

  2. पंडित जी
    साम्यवाद के वारे में अध्ययन की कोई अब्श्यकता नहीं है. क्योंकि यह पूरी तरह बिफल हो चूका है . जिन देशों में यह लागु था बहाँ की स्थिति देखने का बाद भी आप साम्यवाद साम्यवाद चिला रहे हैं., यह ताजुब की बात है .

  3. आदरणीय अग्निहोत्री जी ,आपके आलेख का आशय है की विकास का माडल अभी तय करना वाकी है ?तब हमने जो अन्तरिक्ष ,महासागरों और धरती को छेदने के तमाम संसाधन -यथा -एस एल वी .रॉकेट लांचर ,पन्दुब्बियाँ ,रेल ,कम्प्यूटर ,मोबाइल सभी विदेशी भातिक वस्तुओं को त्याग दें ?आपको यह जानकार बहुत दुःख होगा की संचार क्रांति का यह उत्पाद -इन्टरनेट और मोबाइल अभी भारत में बनाये जाने के कोई कारखाने या फेक्टरी नहीं हैं …सबके सब पाश्चात्य ही हैं ….यह प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था भी वेद या उपनिषद प्रणीत नहीं ,यह तो मैग्ना कार्टा से लेकर फ़्रांसिसी क्रांति की राजनेतिक यात्रा का सारांस है .
    आपने पूंजीवाद की सही व्याख्या की है किन्तु साम्यवाद के बारे में अभी और अध्यन की जरुरत है .

  4. बिलकुल सही बात बिलकुल सही उदहारण द्वारा श्री अग्निहोत्री जी ने कही है.

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