भारतीय वाङ्मय में गुरु महिमा और गुरु पूर्णिमा

guru poornimaअशोक “प्रवृद्ध”

 

भारतीय संस्कृति और दर्शन की परम्परा से गृहीत भारतीय वाङ्मय में गुरु को ब्रह्म से भी अधिक महत्व प्रदान किया गया है ।गुरु को प्रेरक, प्रथम आभास देने वाला, सच्ची लौ जगाने वाला और कुशल आखेटक कहा गया है, जो अपने शिष्य को उपदेश की वाणों से बिंध कर उसमें प्रेम की पीर संचरित कर देता है । लोकमान्यतानुसार प्रत्येक साधक के लिए गुरु की अनिवार्यता इसलिए भी है क्योंकि वह अपनी आध्यात्मिक साधना में कोई भी विघ्न उपस्थित होने पर गुरु से मार्ग निर्देश प्राप्त कर सके ।साधक एक यात्री की भांति होता है जो लक्ष्य की ओर बढ़ने की लालसा तो रखता है, किन्तु चूँकि वह लक्ष्य को नहीं देखा होता है, इसलिए उसे ऐसे मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है, जो स्वयं न केवल मार्ग को देखे हो, वरन अच्छी तरह लक्ष्य को भी पहचानता हो ।गुरु की प्राप्ति द्वारा साधक के ह्रदय से संशय व आशंका की भावनाएं समाप्त हो जाती हैं ।उसे साधना मार्ग में एक मददगार अर्थात सहायक मिल जाता है, जो उसे विघ्नों और बाधाओं से परे निकल सकता है ।उसके पैर डगमगाने पर उसे सहारा दे सकता है। उसके साधना में निराश होने पर उसमे आत्मविश्वास जगाकर आगे बढ़ा सकता है अथवा आगे बढ़ने की प्रेरणा दे सकता है ।गुरु का योग्य होना उतना ही आवश्यक है जितना कि शिष्य का। क्योंकि यदि गुरू स्वयं ही अयोग्य होगा तो वह तो शिष्य को ही ले डूबेगा ।गुरु की सेवा में शिष्य को भी सर्वात्मना समर्पित को हो जाना चाहिए ।गुरु की असीम कृपा शिष्य पर होती है ।वस्तुतः वह ब्रह्म की कृपा पर उतना नहीं आश्रित रहता जितना गुरु की । वस्तुतः सत्य राह दिखने वाला परमात्मा का ही उसके अनंत दिव्य गुणों के कारण असंख्य नामों में से एक नाम गुरु भी है ।इसीलिए भारतीय साहित्य में कहा जाता है कि गुरु और गोविन्द में कोई फर्क नहीं है । कबीर ने भी कहा है-

गुरु गोविन्द तो एक हैं दूजा याहू आकार ।

आप मेटि जीवित मरै तो पावै करतार ।।

अद्वयतारकोपनिषद में अज्ञान रुपी अन्धकार को दूर करके ज्ञान प्रदान करने वाले को गुरु कहा गया है –

गुशब्दस्त्वन्धकारः स्यादुशब्दस्तन्निरोधकः ।।

इस प्रकार अज्ञान रुपी अन्धकार को दूर करके ज्ञान प्रदान करने वाला गुरु कहाता है ।

गृ शब्दे इस धातु से गुरु शब्द बना है ।निरुक्त में कहा गया है ‘यो धर्म्यान् शब्दान गृनात्युपदिशति स गुरुः’ ‘स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात’ । योग जो सत्य धर्म प्रतिपादक, सकल विद्यायुक्त वेदों का उपदेश करता, सृष्टि की आदि में अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा और ब्रह्मादि गुरुओं का भी गुरु और जिसका नाश कभी नहीं होता इसलिए उस परमेश्वर का नाम गुरु है ।

गुरु तो माता,पिता,आचार्य और अतिथि होते हैं ।उनकी सेवा करनी, उनसे विद्या, शिक्षा लेनी-देनी शिष्य और गुरु का काम है ।

गुरु की व्युत्पति करते हुए कहा गया है- गारयति ज्ञानम् इति गुरुः । गुरु उसे कहते हैं जो ज्ञान का घूंट पिलाये ।ज्ञान का मानव जाति के लिए जो महत्व है उसे बतलाने की आवश्यकता नहीं ।इसीलिए ज्ञान का वितरण करने वाले का भी मनुष्य जाति मात्र के लिए अति महत्व है ।

ज्ञान दो प्रकार के होते हैं- एक तो स्वयं प्रकाश्य अर्थात अपने आप पैदा होने वाला और दूसरा परतः प्रकाश्य अर्थात दूसरों के द्वारा प्राप्त होने वाला । परतः प्रकाश्य ज्ञान तो सीधे गुरु के द्वारा ही प्राप्त होता है लेकिन स्वयं प्रकाश्य ज्ञान में भी गुरु उस ज्ञान को इंगित करके शिष्य की बुद्धि को ज्ञान की दिशा में प्रवाहित कर देता है, जिससे स्वयं साधक अपने लक्ष्य का आभाष पाकर उसे ही प्राप्त करने में तन-मन-धन से जुट जाता है और फिर अंततः अपनी साधना में सफल होता है । इस प्रकार दोनों प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति में गुरु का महत्वपूर्ण योग रहता है ।यही कारण है कि वेदों से लेकर आज तक भारतीय साहित्य में गुरु की अपार महिमा वर्णित की गई है ।

 

वैदिक ग्रंथों में गुरु का स्पष्ट वर्णन का अभाव है, परन्तु वेदों में अनेक देवताओं की स्तुति गान करते हुए उनसे ज्ञान दान करने की प्रार्थना की गई है ।इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें गुरु माना गया है तथा उनके महत्व को स्वीकार गया है ।उपनिषद ग्रंथों में भी सर्वत्र गुरु की महिमा गई है ।यम ने नचिकेता को आत्मा का स्वरुप बतलाते हुए कहा है कि आत्मज्ञान बहुतों को सुनने के लिए प्राप्य नहीं है, बहुत से लोग उसे सुनकर भी समझ नहीं पाते हैं ।इस आत्मतत्व का निरूपण करने वाला आश्चर्य का विषय है तथा सुनकर उसे ग्रहण कर सकने वाला अति कुशल होता है । कुशल व्यक्ति के उपदेश से ज्ञान प्राप्त करने वाला भी आश्चर्य का विषय है ।

यम ने नचिकेता को आत्मा का स्वरुप और उसको जानने, समझने तथा वर्णन करने वाले पुरुषों की दुर्लभता का वर्णन करते हुए कहा है-

श्रृवणायपि बहुर्भियो न लभ्य श्रृवन्तोऽपि बहवो यां न विद्युः ।

आश्चर्यो वक्ता कुशलो ऽस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ।।

-कठोपनिषद अध्याय १ द्वितीय वल्ली मन्त्र ७

पुरातन साहित्यों में कहा गया है कि आत्मा साधारण बुद्धि वाले पुरुष द्वारा कहे जाने पर अच्छी तरह नहीं जाना  जा सकता। अभेद्दर्शी आचार्य द्वारा उपदेश किये गये इस आत्मा में कोई गति नहीं है, क्योंकि यह सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा दुर्विज्ञेय है –

न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः ।

अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्ति अणीयान्ह्यतवर्यमणुप्रमाणत् ।।

इस प्रकार गुरु के सुविज्ञ और शिष्य के लगनशील होने पर बार-बार जोर दिया गया है ।

वेदान्त में अंकित है कि आत्मा का साक्षात्कार कर चुके सिद्ध पुरुषों द्वारा जो जीवन्मुक्त (जीवित रहकर भी मुक्त) रहते हैं, विधिपूर्वक वेद-वेदांग पढ़े हुए, नित्य नैमितिक प्रायश्चित और उपासना नामक कर्मों द्वारा समस्त पापों से रहित साधक को ज्ञान का उपदेश करना चाहिए। वेदान्त के ही नहीं, समस्त विद्याओं को पढने के लिए प्रारम्भ में ही अधिकारी तथा उसके उद्देश्य की चर्चा की जाती थी ।

रामायण में वशिष्ठ मुनि के गुरुत्व का एक महान गौरवपूर्ण इतिहास का वर्णन अंकित है ।सूर्यवंशी इक्ष्वाकु राजा के कुलगुरु वशिष्ठ ने त्रिशंकु, हरिश्चन्द्र, रोहिताश्व आदि को सत्ययुग में ज्ञान दान किया था और बाद में वही त्रेता में दिलीप, रघु, अज, दशरथ और राम आदि के भी गुरु थे ।इतने लम्बे काल तक एक व्यक्ति का जीना असम्भव है । यही कारण है कि विद्वतजन वशिष्ठ को एक व्यक्ति नहीं वरन एक परम्परा मानना ही उचित समझते हैं । इसी भांति व्यास भी एक परम्परा है । वेदों के विभक्तिकार और अठारह पुरानों के रचयिता कदापि एक नहीं हो सकते ।

मनु महाराज ने विद्यार्थियों (शिष्यों) को धर्म का उपदेश करते समय माता-पिता एवं गुरु की महिमा गाई है ।मनु ने अनेक प्रकार से गुरु को महान बत्ताते हुए कहा है-

गुरु शुत्रूयात्वेवं ब्राह्मलोकं समश्नुते ।

अर्थात्, गुरु की सेवा द्वारा ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है ।यह इसी के तुल्य है कि ‘आचार्य देवो भवो’ अर्थात आचार्य को देवता मानो ।

अपने गुरु को देवता के सामान मानने वाले आरुणि अथवा उद्दालक ने अपनी गुरु-भक्ति से गुरु धौम्य को भी अमर बना दिया, जो खेत से बहते पानी को रोकने की गुरु की आज्ञापूर्ति के लिए पानी न रुकता देखकर मेड़ पर ही लेट गया था ।भवभूति ने गुरु के बारे में कहा है-गुरु बुद्धिमान और जड़ दोनों ही प्रकार के शिष्यों को समान रूप से विद्या प्रदान करता है, परन्तु जड़ शिष्य दुर्भाग्य से बुद्धिमान की अपेक्षा कम ग्रहण कर पाता है ।सच्चे गुरु की खोज में भगवान् बुद्ध कई वर्षों तक जंगलों में विचरते रहे और अंततः उन्हें अपना गुरु स्वयं बनना पड़ाथ था । बुद्ध कुक्कुट मिश्र की भांति नहीं थे जो गुरु की वाणी का पांच दिन अध्ययन कर, वेदान्त शास्त्रों का तीन दिन मनन कर तथा तर्कशास्त्र को सूंघकर ही अपने को अद्वितीय ग्यानी समझने –मानने लगे थे-

गुरोर्गिरः पञ्चदिनान्यधीत्य, वेदान्तशास्त्राणि दिनत्रंद्यंच ।

अमी समाध्राय च तर्कवादा् समागताः कुक्कुटमिश्रपादाः।।

इस प्रकार सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में किसी न किसी भांति कसी न किसी स्थल पर गुरु की महिमा का अंकन है और अच्छे गुरु की प्राप्ति एक बड़ी उपलब्धि मानी गई है । इसीलिए कहा गया है-

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवै नमः ।।

पुरातन ग्रंथों में पराशर नन्दन व्यास को महाशाल शौनकादि कुलपतियों तथा गुरुओं के भी परम गुरु साक्षात् वादरायण माना गया है। पुराणों में व्यास परमपूज्य घोषित किये गए हैं। यतिधर्म समुच्चय में कहा है-

देवं कृष्णं मुनिं व्यासं भाष्यकारं गुरोर्गुरूम।

कतिपय विद्वानों के अनुसार कृष्ण द्वैपायण वेदव्यास वेद, पुराण, महाभारत, वेदान्त-दर्शन (ब्रह्मसूत्र), सैंकड़ों गीताएँ, शारीरिक सूत्र, योगशास्त्र के साथ ही कई व्यास स्मृतियों के रचयिता हैं। ऐसा माना जाता है कि वर्तमान का सम्पूर्ण विश्व विज्ञान एवं साहित्यिक वाङ्मय भगवान व्यास का उच्छिष्टत है। कहा है-

व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम् ।

कृष्ण द्वैपायण वेदव्यास का जन्म आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को उत्तराषाढ़ नक्षत्र में हुआ माना जाता है। अतः आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के नाम से प्रसिद्ध है।

प्राचीन काल में वर्षा के आरम्भ होने के कारण वानप्रस्थी एवं सन्यासी गुरुजन जंगलों से नगरों में आ वर्षा के चार महीनों को वहाँ व्यतीत करते थे तथा गृहस्थों की जीवनरक्षा एवं आरोग्यता के लिए बड़े-बड़े यज्ञ किया करते थे। आषाढ़ सुदी पूर्णिमा को इन गुरुजनों की पूजा अर्थात अतिथि सत्कार, श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक शिष्य एवं गृहस्थीजन करते हैं।

 

 

 

हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ नाथों एवं सिद्धों से माना जाता है ।नाथों एवं सिद्धों के यहाँ गुरु की महिमा सर्वविदित है ।गुरुओं की जो भक्ति नाथों एवं सिद्धों के शिष्यों में मिलती है, वह संस्कृत साहित्य में वर्णित कथाओं से किसी मायने में कम महत्व नहीं रखती।भक्तिकाल में तो भक्त एवं संत सभी ने गुरु की मुक्त कंठ से महिमा एवं प्रशंसा गान की है । गोस्वामी तुलसीदास ने गुरु को शंकर स्वरुप कहा है – वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुशंकर रूपिणम ।

गुरु की स्तुति में तुलसी ने बहुत कुछ लिखा है ।

वन्दौ गुरु पद पदुम परागा ।

सुरुचि सुवाष सरस अनुरागा ।।

तुलसी ने गुरु का महत्व बताते हुए उसके स्मरणमात्र से होने वाले लाभ को  भी बतलाया है, कि गुरु की कृपा से  ह्रदय के नेत्र खुलने से साधक को दिव्यदृष्टि प्राप्त होती है –

उधरहि विमल विलोचन हिय के ।

मिटहिं दोष दुःख भाव रजनी के ।।

इस प्रकार वह (साधक) प्रमात्व का साक्षात्कार उसी प्रकार सहज ही कर लेता है । जैसे-

यथा सुअंजन आंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।

कौतुक देखहिं सैल बन, भूतल भूरि निधान ।।

सूर के विषय में तो एक कहावत ही प्रचलित है की उनके गुरु बल्लभाचार्य ने उनके कर्तृत्व को ही उलट दिया था ।सूरदास के दैन्य एवं आत्मग्लानि के पदों को सुनकर बल्लभाचार्य ने कहा था की क्या घिघियाते ही रहोगे, कुछ कृष्ण की लीला गाओ ? और फिर वात्सल्य और श्रृंगार का सूरसागर उताल तरंगें भरने लगा था, जो आज भी हिन्दी साहित्य के लिए गौरव की वस्तु मानी जाती है ।

जायसी के पद्मावत में सुआ गुरु का काम करता है –गुरु सुआ होई पंथ देखावा । इससे यह सिद्ध होता है कि प्रेम मार्ग में भी गुरु का महत्व है ।वही प्रेमी को प्रिय की ओर सर्वप्रथम उन्मुख करता है ।प्रिय का आभास मिल जाने पर प्रेमी में उसे पाने की अदम्य लालसा उत्पन्न होती है । इस प्रयास में साधक के साथ-साथ निर्देशक के रूप में सदैव गुरु रहता है।वह साधना में आने वाले प्रत्येक विघ्न में साधक की सहयता करता है तथा उसे विविध गुर बतलाता है। अंततः सिद्धि होने पर ही वह साधक को छोड़ता है।

कबीर अपनी गुरु की प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते। उन्होंने तो गुरु दिखाई बाट कहकर साधना में सिद्धि का सारा श्रेय अपने गुरु को दिया है। काशी में हम प्रकट भये हैं रामानन्द चेताये जैसी उक्ति भी कबीर के गुरु प्रशंसा का प्रमाण है। कबीर तो गुरु को ईश्वर से भी बड़ा मानते हैं –

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काको लागूं पाँय?

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दिए बताय।

समर्थ गुरु की वाणी को कबीर हथियार मानते हैं –

हंसी न बोलै उनमनी,चंचल मेल्ह्या मारि ।

कह कबीर मितर मिधा, सतगुरु के हथियारि।।

कबीर ग्रंथावली में गुरु की प्रशंसा और तथा आभार व्यक्त करने के लिए गुरु कौ अंग नमक भाग केवल गुरु को ही समर्पित है।कबीर ने उचित गुरु के चुनाव पर भी जोर देते हुए अनुचित गुरु की निंदा की है –

जाका गुरु ही अन्धड़ा, चेला खरा निखन्त।

अन्धेहि अन्धा ठेलिया, दोनों कूप पड़न्त।।

मीरा ने भी बड़े गर्व से कहा है-

गुरु रैदास मिलै मोहिं पूरे,धुर से कमल मिलो ।

संत गुरु सीख दियो जब अपनी,जोति में जोति रली।।

भारतीय साहित्य में शिष्यों, सन्तों एवं भक्तों द्वारा गुरु को जो महत्व प्रदान किया गया है, उसका कारण डॉ. धर्मवीर भारती के अनुसार, संभवतः तान्त्रिक युग का अवशिष्ट प्रभाव था, क्योंकि जैन, बौद्ध, शक्त, शैव, वैष्णव सभी सम्प्रदायों में जब गुह्य साधनों का समावेश हुआ, तो गुरु की स्थिति महत्वपूर्ण होती गई, क्योंकि साधना की प्रकृति दुरूह थी तथा अज्ञानी साधक को गुरु का निर्देशन आवश्यक था । साथ ही विद्वानों का कथन है कि तंत्र सम्प्रदाय थे । अतः अनुदार पुराने आचार्यों की तुलना में अपने सम्प्रदायों के आचार्यों को प्रतिष्ठित करने के लिए भी सहसा गुरु को अत्यधिक श्रद्धा से मण्डित किया जाने लगा था । यह प्रतिद्वंद्विता यदा-कदा जातीय एवं प्रादेशिक आधार पर भी चलती थी।

गुह्यतंत्र समाज में प्रत्येक तथागत का गुरु ब्रजाचार्य बताया गया है, जिसकी वे स्वतः पूजा करते हैं। इसी सिद्धांत के अनुसार सिद्धों ने गुरु की महिमा का गान किया है। नाथों का गुरु योग-साधना का ज्ञाता है तथा संतों का गुरु वैष्णव प्रतीत होता है। इसी से संत सदैव गुरु की भक्ति के प्रबल समर्थक हैं। गुरु को संतों ने अहेरी,सूरमा, पारख, गारुडी, भेदी, खेवक, ज्ञान प्रकाशी और शतरंज का चाल बताने वाला कहा है तो कभी चैतन्य की चौकी पर आसन लगाकर निर्भय, निःशंक रहने का उपदेश देने वाला, शब्द घोलना से घोलकर ज्ञान मसकला देने वाला किसलीगर बताया है।गुरु को परमेश्वर अथवा उससे भी बड़ा कहा गया है।

संतों ने गुरु के लिए ऐसा पद दिया है जो वेदों में त्वमसि कहकर ब्रह्म या परमेश्वर को दिए गए पद से भी ऊंचा है। यह पद है पारखपद तथा यही सच्चा पद है। श्रीमद्भगवदगीता ८/२१ के परम धाम से भी बहुत-बहुत ऊंचा। इसी पद को पानेवाला परखी कहा जाता है।गुरु इसी चैतन्य चौकी पर बैठने के कारण पारखी कहलाता है। इसी पारख पद पर पहुंचकर जुलाहा कबीर पारष हुए थे।

Previous articleमैं ब्रह्म नहीं अपितु एक जीवात्मा हूं
Next articleयाकूब मेमन की फांसी बरकरार
अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here