विदेश नीति में भारतीय भाषा

-डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री-
14sep. Hindi Diwas

जिन दिनों दूरदर्शन का प्रचलन नहीं था उन दिनों अख़बार में ख़बर छपती तो थी लेकिन ख़बर बनती कैसे है यह पता नहीं चलता था । लेकिन जब से दूरदर्शन का प्रचलन बढ़ा है तब से आँखों के आगे ख़बर बनती हुई दिखाई भी देती है । पुराने दिनों में ख़बर छपती थी कि भारत और इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ने आपसी हितों के बारे में बातचीत की । क्या बातचीत की, इसका विवरण भी छपता था । अब भी छपता ही है । लेकिन अख़बार में यह नहीं छपता था और अब भी नहीं छपता है कि बातचीत किस भाषा में की । समाचार पत्रों के लिये यह पता करने की जरुरत भी नहीं थी । लेकिन अब स्थिति बदल गई है । अब दूरदर्शन के सभी चैनलों पर दोनों देशों के नेता आपस में बातचीत करते हुये दिखाई भी देते हैं । जिनकी विदेश नीति की गहराइयों में रुचि नहीं भी होती वे भी विदेशियों की शक्ल देखने के लोभ का संवरण नहीं कर पाते । लेकिन दूरदर्शन पर आश्चर्यजनक दृश्य दिखाई देते हैं । मसलन जापान का प्रधानमंत्री जापानी भाषा में बातचीत करता है और हमारा प्रधानमंत्री अंग्रेज़ी में बोलता है । फिर भी अनुवादक की जरुरत तो होती ही है । अनुवादक जापान के प्रधानमंत्री की बात का अनुवाद अंग्रेज़ी में करता है और हमारे प्रधानमंत्री की अंग्रेज़ी में बोली गई बात का अनुवाद जापानी में करता है । प्रश्न पैदा होता है कि जब सारी बातचीत अनुवादक के सहारे ही चलती है तो भारत का प्रधानमंत्री अपने देश की भाषा में बातचीत क्यों नहीं करता ? यह दृश्य देख कर कोफ़्त होती है । अपमान भी महसूस होता है ।

चीन के राष्ट्रपति माओ जे तुंग अंग्रेज़ी बहुत अच्छी तरह जानते थे । उनसे मिलने के लिये जब किसी अंग्रेज़ी भाषी देश का राष्ट्राध्यक्ष भी मिलने आता था तो वे अंग्रेज़ी समझते हुये भी उसका उत्तर अंग्रेज़ी में नहीं देते थे । वे चीनी में ही बोलते थे और अनुवादक अनुवाद कर देता था । किसी देश की भाषा विदेश सम्बंधों में स्वाभिमान का प्रतीक भी होती है, वहां वह केवल संवाद का काम नहीं करती । विदेश सम्बंधों में इन प्रतीकों का प्रयोग कैसे करना है, यह भी विदेश नीति के संचालकों की सफलता का एक बड़ा कारक माना जाता है । लेकिन दुर्भाग्य से भारत में अभी तक विदेश मंत्रालय में ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार क्लब का आधिपत्य रहा है । इस क्लब की चमड़ी मोटी है । इसलिये जब दूसरे देशों के प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष भारत में आकर अपने देश की भाषा बोलते हैं तो हमारे प्रतिनिधि कम्पनी बहादुर (ब्रिटेन) की भाषा में जुगाली करते । भैंस के आगे बीन बजे और भैंस खड़ी पगुराये । लेकिन अंग्रेज़ी भाषा में पगुराने के कारण भैंस वे बजह नथुने भी फैलाती है । उनकी इन हरकतों से देशवासी तो लज्जित होते लेकिन भारत की जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधि सिर पर विदेशी भाषा का यूनियन जैक लगा कर नाचते रहते । कई देशों ने तो भारत के इन प्रतिनिधियों को उनकी इस हरकत पर लताड़ भी लगाई । रुस से एक बार विजय लक्ष्मी पंडित को अपने काग़ज़ पत्र हिन्दी में तैयार करवाने के लिये ही वापिस आना पड़ा था ।

लेकिन देश के नये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विदेश नीति के इस लज्जास्पद अध्याय को समाप्त करने का निर्णय ले लिया लगता है । प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस देशों के राष्ट्राध्यक्ष दिल्ली आये थे । श्रीलंका के श्री राजपक्षे से द्विपक्षीय वार्ता में मोदी ने हिन्दी भाषा का प्रयोग किया । राजपक्षे अंग्रेज़ी में बोल रहे थे । मोदी उसे समझ तो रहे थे । वे चाहते तो स्वयं उसका उत्तर दे सकते थे । लेकिन मोदी-राजपक्षे की वार्ता के लिये हिन्दी अनुवाद के लिये दुभाषिए की व्यवस्था की गई । इससे देश विदेश में एक अच्छा संदेश गया है । अब दुनिया से भारत अपनी भाषा में बातचीत करेगा । मोदी पहले ही कह चुके हैं कि भारत किसी भी देश से आँख से आँख मिला कर बात करेगा। आँख से आँख अपनी भाषा में ही मिलाई जा सकती है । जो देश ताक़तवर होते हैं वे विदेश नीति के लिये उधार के प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करते। अपने देश की भाषा, अपने देश के मुहावरों का प्रयोग करते हैं । विदेशी राज्यों की दासता में लगभग हज़ार साल तक रहने के कारण हमारे लोगों की मानसिक स्थिति भी दासता की हो गई है । उनके लिये राष्ट्रीय स्वाभिमान साम्प्रदायिकता एवं पोंगापंथी होने का पर्याय हो गया है । उन्होंने भारतीय भाषाओं की वकालत को भी साम्प्रदायिकता से जोड़ दिया है । लेकिन यह भाव देश की आम जनता में इतना नहीं है जितना देश के बुद्धिजीवी वर्ग एवं नीति निर्धारकों में है । देश का श्रमजीवी अपने देश की भाषा से जुड़ा हुआ ही नहीं है बल्कि उस पर गौरव भी करता है । इस का एक कारण यह भी है कि वह अपने देश की मिट्टी से जुड़ा हुआ है । लेकिन यहाँ का बुद्धिजीवी वर्ग शिक्षा की उस भट्ठी में तप कर निकला है जिसे अंग्रेज़ों ने बहुत ही शातिराना तरीक़े से यहां स्थापित किया था । इसलिये भाषा को लेकर उसकी सोच अभी भी १९४७ से पहले की ही है, जिसमें भारतीय भाषाओं को वर्नक्यूलर कह कर अपमानित किया जाता था । लुटियन की दिल्ली में बैठ कर सत्ता के शिखर पर बैठा कोई व्यक्ति इन वर्नक्युलर भाषाओं का प्रयोग भी कर सकता है यह तो कोई सोच ही नहीं सकता था । लेकिन नरेन्द्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जिनका जन्म अंग्रेज़ों के शासन काल में नहीं हुआ था बल्कि अंग्रेज़ी सत्ता समाप्त हो जाने के बाद स्वतंत्र भारत में हुआ था । इस लिये वे विदेशी भाषा की दासता के भाव से मुक्त हैं । दूसरे वे अपनी शक्ति और उर्जा देश के सामान्य जन से ग्रहण करते हैं अत उन्हें स्वयं को एक विदेशी भाषा के अहम से कृत्रिम रुप से महिमामंडित करने की जरूरत नहीं है । अब तक विदेशी भाषा का जाल फेंक कर देश के लिये नीति निर्धारण का काम नौकरशाही ने राजनैतिक नेतृत्व से छीन रखा था । नरेन्द्र मोदी ने विदेश नीति के क्षेत्र में लगता है सबसे पहले इसी भाषायी ग़ुलामी से मुक्त होने की पहल की है।

ऊपर से देखने पर यह पहल मामूली लग सकती है। लेकिन इसके संकेत बहुत गहरे हैं। चीनी भाषा में एक कहावत है कि हज़ारों मील की यात्रा के लिये भी पहला क़दम तो छोटा ही होता है। कोई भी यात्रा सदा इस छोटे क़दम से ही शुरू होती है। लगता है विदेश नीति के मामले में मोदी ने छोटा क़दम उठा कर यह यात्रा शुरु कर दी है।

3 COMMENTS

  1. एक कहावत है,जब जागे तब सबेरा.भारतीय भाषा को (हिंदी) को जो सम्मान १९४७ में मिलना था,उससे वह आज भी वंचित है.अटल बिहारी वाजपेई ने जब जनता पार्टी के शासन काल में भारत के विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ में अपना अभिभाषण हिंदी में दिया था तब उसकी सर्वत्र सराहना हुई थी.हालांकि भारत के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंच पर वह ऐतिहासिक दिवस था,पर उसको आगे नहीं बढ़ाया गया.अगर १९७८ में आगे कदम उठाये गए होते,तो आज हमें नए सिरे से शरुआत करने की आवश्यकता नहीं पड़ती.बाजपेई के शासन काल में भी इस दिशा में शायद ही कोई पहल की गयी. आज जब मोदी जी ने प्रधान मंत्री के रूप में इसका शुभारम्भ किया है,तो हर भारतीय को इस पर गर्व होना चाहिए,पर यह तो सांकेतिक पहल है.इसको आगे ले जाने में अनेक अड़चने हैं.अहिन्दी भाषी राज्य ,जिसमे गुजरात भी शामिल है,इसको किस रूप में देखेंगे और उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी ,यह सुनिश्चित करना आवश्यक है.
    भारतीय इतिहास के पन्ने पलटिये,तो पता चलेगा कि १९३५ में जब मद्रास(अब चेनई) में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई थी,तब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी उसके पहले अध्यक्ष थे.वही राजगोपालाचारी १९४७ में हिंदी के कट्टर विरोधी बन गए.इसके बाद के वर्षों में दक्षिण भारत में हिंदी का कितना पुरजोर विरोध हुआ,यह अब इतिहास हो चुका है.उसके बाद तो हिंदी भाषा को आगे बढ़ाने का काम एक तरह से ठप्प पड़ गया.हिंदी भाषी क्षेत्रों में सरकारी काम काज में इसको थोड़ा बहुत स्थान अवश्य मिलता रहा,पर बात बनी नहीं.
    अब मोदी जी ने फिर से संकेत दिया है,उससे लगता है कि वे और उनकी सरकार इस दिशा में कुछ करना चाहते है,पर वे प्रबल विरोध के बावजूद कितना कुछ कर पाएंगे ,यह तो भविष्य ही बताएगा,पर आज तो लाडू या पेड़ा खाया ही जा सकता है.

  2. कई हिन्दी भाषी लोगो से आप हिन्दी में कुछ पूछो तो वे अंगरेजी में जवाब दे कर यह जताने की कोशीस करते है की उनका स्तर हमसे उंचा है. हिन्दी के लिए आज की समस्या यही है. हमें हिन्दी को इज्जत की भाषा बनाना होगा. और जब अंगरेजी जानते हुए हमारे नेता एवं अधिकारी भारतीय भाषाओं में बोलेंगे तब हमें वह गौरवानुभूति मिलेगी. हम एक नए युग में प्रवेश करेंगे…..

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