भारत राष्ट्र 

सुरेंद्र नाथ गुप्ता

भारतीय संस्कृति ने अखिल ब्रह्मांड के कण-कण में अनन्त चेतन परमब्रह्म परमात्मा का दर्शन किया है।  भारत ने मानव ही नही वरन सम्पूर्ण प्राणी मात्र -जल चर, थल चर, नभ चर एवम् बनस्पतियों के भी कल्याण का आदर्श अपनाया है, इसीलिये ऋग्वेद में घोषणा की गयी कि

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।

(सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।)

सम्पूर्ण विश्व एक परिवार की कल्पना भी केवल भारत ने ही की है । यथा

”अयं बन्धुरयं नेति गणना लघुचेतसाम् | उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् || ”                             (महोपनिषद VI ७०-७३)
भारत भूमि वह दिव्य भूमि है जहां धन से अधिक धर्म, भोग से अधिक योग और संस्कारों के आधार सदाचार को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। सम्पूर्ण विश्व में केवल भारतीय संस्कृति ही है जिसमें पाषाण में प्रतिमा और प्रतिमा में परमात्मा को प्रतिष्ठित करके श्रद्धा के साथ पूजा जाता है। यही नही, देवी-देवताओं के साथ-साथ धरती, सरिताएं, वृक्ष और पशुओं से भी पूजनीय रिश्ते स्थापित किये जाते हैं। आदिशक्ति, जन्मभूमि, गंगा और गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने वाली “माँ” मात्रत्व प्राप्त कर स्वयं को कृतार्थ अनुभव करती है।

 

विश्व का कल्याण चाहने वाले हमारे ऋषियों के तपोबल के कारण ही भारत राष्ट्र का जन्म हुआ था। भारत राष्ट्र बनाया ही गया था, परोपकार की आकांक्षा से। लोक कल्याण, लोक मंगल, स्वराष्ट्र आराधन और स्वराज्य अर्चन अनादि काल से भारतीय राजनीति / राष्ट्रनीति के आधार स्तंभ रहें हैं। भारत में तो युद्ध भी लोक कल्याण और मानव मूल्यों की रक्षा हेतु धर्मयुद्ध ही थे- वो चाहे देवासुर संग्राम हो अथवा रामायण या महाभारत के युद्ध हों।

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