विराट भारत – समाज अपना

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-कन्हैया झा-
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संस्कृत के शब्द विराट का अर्थ है “एक ऐसा विशाल जिसमें सब चमकते हैं”. इसी शब्द से जुड़े अन्य शब्द सम्राट, एकराट (मनुष्य), राष्ट्र आदि हैं. अर्थात विराट भारत की कल्पना एक ऐसे राष्ट्र की है जिसका तंत्र सभी को सुख देने में समर्थ है. “सर्वे भवन्तु सुखिनः” श्रृंखला के पिछले ९ लेखों में दो मुख्य तंत्रों – शासनतंत्र एवं प्रजातंत्र के बारे में विस्तार से चर्चा की गयी है. वेदों में हर समय परिवर्तित होने वाले विश्व को “अग्निसोमात्मक जगत” कहा है, अर्थात एक “पूर्ण” कल्पना के लिए इसमें दो तत्वों अग्नि एवं सोम का होना जरूरी है. नीचे लिखे श्लोक से पूर्ण के बारे में:
पूर्णमदः पूर्णमिदम पूर्णात पूर्णमुदच्यते!
पूर्णस्य पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिश्य्ते! (ईशोपनिषद)
पूर्ण से पैदा हुआ है, इसलिए जगतपूर्ण है. पूर्ण से यदि पूर्ण लें तो जो शेष बचेगा वह भी पूर्ण होगा. पूर्ण घटता है न बढ़ता, एक रस रहता है. अग्नि-सोम के प्रतीक पति-पत्नि के उदाहरण से पूर्ण को समझा सकता है. एक पूर्ण राष्ट्र की कल्पना में अग्नि एवं सोम के प्रतीक क्रमशः शासनतंत्र एवं प्रजातंत्र हैं.
वर्णाश्रम में ब्रह्मचर्य एवं गृहस्थ आग्नेय हैं, जबकि वानप्रस्थ एवं संन्यास अनुभव से परिपक्व होने के कारण सोम के प्रतीक हैं. इस प्रकार वर्णाश्रम अग्निसोमात्मक होने से पूर्ण है. विकास शासन एवं प्रजा के लिए पुत्रवत है. यदि विकास दोनों ही तंत्रों के सम्मिलित प्रयास से होगा तभी पूर्ण होगा. पूर्ण विकास की कल्पना को साकार करने के लिए इस श्रंखला में जो सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं, वे इस प्रकार हैं:
1. विकास का आधार शासन एवं प्रजा के बीच का विश्वास है. चुनाव द्वारा सरकार बना लेने से जनता का शासन के प्रति विश्वास सिद्ध नहीं होता. और ना ही शासन हर निर्णय के लिए जनता के समक्ष उपस्थित हो सकता है. चुनाव के तुरंत बाद पक्ष एवं विपक्ष दोनों को ही जनता के विश्वास के लिए, अगले पांच वर्ष के अपने मुद्दों की स्पष्ट चर्चा करनी चाहिए.

2. प्रत्येक चुनाव में लोग अपने जातीय, व्यक्तिगत आदि अनेक समीकरणों के आधार पर वोट देते हैं. परंतु चुनाव के बाद उन सभी समीकरणों को भूल प्रजा को अनेक भ्रमों से बचते हुए शासन में विश्वास बनाए रखना होगा. साथ ही वर्णाश्रम को समझ एवं ग्रहण कर चारों पुरुषार्थों को विकसित कर प्रजातंत्र को सुदृढ़ करना होगा.

3. शासन राष्ट्र की सम्पन्न्ता के लिए अर्थोपार्जन के केवल साधन सुलभ कराये, न कि स्वयं भूमि, उद्योगों आदि का मालिक बन वाणिकी में संलग्न हो. साथ ही पैनी नजर के ईमानदार एवं बफादार अफसरों द्वारा उनकी प्रजा के प्रति “हिंसक गति” पर नियंत्रण भी रखे.

4. भारत की एक विशेष सभ्यता रही है. “एकं सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति” सिद्धांत को मानते हुए हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि अनेक मतों के होते शासन निष्पक्ष रहे हैं. प्रजा में भी सभी अपने मतों को मानने के लिए स्वतंत्र रहे हैं. परंतु साम्प्रदायिक दंगे ना हों, इसके लिए प्रजातंत्र को स्थायी समाधान निकालना होगा.

5. शिक्षा एवं शिक्षक में सामर्थ्य हो कि वे शासन की परख कर उसे सुधार के सुझाव दे सकें तथा शासन के पूरी तरह भ्रष्ट हो जाने पर नए शासन का निर्माण कर सकें. शासन शिक्षा के लिए उचित आधारभूत ढांचा सुलभ कराये, तथा प्रजातंत्र शोध के महत्व को ध्यान में रखते हुए अनुभवी सन्यासियों द्वारा शिक्षा तंत्र से “सोम” की रचना कराये.

6. प्रजा का वानप्रस्थी एवं सन्यासी वर्ग यज्ञों द्वारा सुख का विस्तार करे. आज समाज में अज्ञानता के कारण महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. शासन की उचित दंड-व्यवस्था से इस जघन्य अपराध की रोक-थाम तो अवश्य हो सकती है, परंतु स्थायी समाधान के लिए सन्यासी समाज को शिक्षित करें.

7. देश के 20 लाख से अधिक गैर-सरकारी संस्थान यज्ञ विधि से सामाजिक कार्यों को कर प्रजातंत्र का हिस्सा बने, न कि उन कार्यों के लिए शासन से धन की अपेक्षा करें.

मई 2014 के चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़े गए हैं. शासन “पूर्ण विकास” की कल्पना को प्रजा के सहयोग के बिना कार्यान्वित नहीं कर सकता. भारत देश में प्रजा द्वारा सेवा कार्यों को करने की परम्परा रही है, परंतु आज के तकनीकी प्रधान युग में प्रजा को भी वर्णाश्रम के अलावा किसी तंत्र का निर्माण अवश्य करना होगा. इसके अलावा, शासन स्वयं में पूर्ण कैसे बने, ये दोनों विषय विचारणीय हैं. इस श्रृंखला का समापन करते हुए लेखक एक नयी श्रृंखला “नयी विकास नीति” नाम से प्रारम्भ कर रहे हैं. नई श्रृंखला में विकास के विभिन्न आयाम जैसे ऊर्जा, उद्योग, शिक्षा, ग्रामीण एवं शहरी विकास, आदि के लिए उपयुक्त नीति की चर्चा की जायेगी. यह चर्चा पूर्व-प्रसारित “सर्वे भवन्तु सुखिनः” श्रृंखला में प्रतिपादित सिद्धांतों के आधार पर होगी.

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