भारतीय महिलाएँ एवं मानवाधिकार

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर 1945 से प्रारम्भ मानवाधिकार एवं महिला आन्दोलनों ने लिंग भेदभाव एवं असमानता के प्रश्नों को अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय मंचो पर राजनैतिक मुद्दों के रूप मे प्रस्थापित किया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने शांति स्थापना एवं विकास यात्रा में महिलाओं की भूमिका के महत्त्व को भी रेखांकित किया है। संघ ने अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संघठन बनाए, जिसमे महिलाओें को पुरूष के समान उत्थान का अधिकार दिया।इस प्रक्रिया में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणा से पूर्व 1946 में महिला प्रस्थिति के अध्ययन के लिए गठित समिति की घोषणा महत्तवपूर्ण रही जिसको ॔॔कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ वूमेन ॔॔ का नाम दिया गया।

1967 में संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा द्वारा महिलाओं के प्रति भेदभाव समाप्त करने सम्बन्धी प्रस्ताव पारित किया गया। इस के अन्तर्गत यह प्रावधान किया गया है कि महिलाओं को चाहे वे विवाहित हो या अविवाहित, पुरूषों के साथ आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्र में सभी समान अधिकार प्रदत्त किये जाने के लिए समुचित व्यवस्था की जाएगी और किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होगा। महिलाओं के उत्थान के संदर्भ में सम्पूर्ण विश्व में महिला उत्थान व विकास के प्रति चेतना जगानें के लिए संयुक्त राष्ट्र की महासभा में 1975 को ॔॔ अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष॔॔ घोषित करने का निर्णय लिया। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महिला सहयोग की अपेक्षा करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला योगदान व महिला सकारात्मक व रचनात्मक भूमिका के महत्तव को स्वीकार करते हुए महिला जगत के उत्थान के कार्यक्रम बनाये।

1975 में प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र संघ ने महिला कल्याण हेतु 1975 से 1984 दशक को महिला दशक घोषित किया जिसमें महिला शिक्षा, रोजगार, लिंग भेदभाव मिटाने, नीति निर्धारण में महिलाओं को सम्मिलित करने एवं समान राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, नागरिक अधिकार देने आदि की घोषणाऍ की गई। 1978 में महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभाव समाप्त करने के लिए समिति के गठन का प्रस्ताव किया गया एवं हिंसा को समाप्त करने के आशय से नवीन घोषणा जारी की गई।

दिसम्बर 1993 को संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा के भीतर महिलाओं के प्रति हिंसा निष्कासन की घोषणा को स्वीकार किया गया एवं महिलाओं के प्रति हिंसा को सात भागों में बाँटा गया:

1.समुदाय तथा परिवार के भीतर शारीरिक जैविक तथा मनोवैज्ञानिक हिंसा जिसमें पत्नी को पीटना, लडकी का अनैतिक शोषण, दहेज सम्बन्धी हिंसा, वैवाहिक बलात्कार, महिला जनन अंगो की काँटछाँट तथा अन्य महिलाओं के प्रति घातक पारम्परिक क्रियाऍं।

2.अवैवाहिक हिंसा।

3.असन्तोष आधारित हिंसा।

4.शैक्षणिक संस्थाओं एवं अन्य स्थानों में कार्यस्थल पर धमकी तथा यौनिक उत्पीडन।

5.महिला को बेचना तथा व्यापारीकृत करना।

6.वैश्यावृत्ति हेतु दबाव डालना।

7.राज्य द्वारा क्षमादान तथा अपराधी हिंसा।

वर्तमान परिदृश्यः

महिलाओं के प्रति शोषण, अत्याचार तथा उत्पीडन वर्तमान परिपे्रक्ष्य में एक सार्वभौमिक तथ्य हैे

आज सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणापत्र को लगभग 60 वर्ष पूरे होने को हैं, फिर भी मानवाधिकारों का उल्लंघन समाज में प्रतिदिन दिखाई देता है, विशोष तौर पर महिलाओं के प्रति। महिलाओं को सदा से ही सामाजिक, धार्मिक, विधिक, शैक्षणिक, आर्थिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में उपेक्षा सहनी पडी एवं उन्हें समाज में सदैव दोयम दर्जा ही प्राप्त हुआ । शारीरिक रूप से कमजोर और आर्थिक रूप से पुरूषों पर निर्भर होने के कारण सदियों से महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार, शोषण और यौन उत्पीडन होता रहा है ओर यही कारण है कि उन्हें अपने मानवाधिकारों के लिए अधिक संघर्ष करना पडता है।

संवैधानिक प्रावधानों और कानूनो के बावजूद महिलाओं के उत्पीडन की घटनाओं की संख्या दिन प्रतिदिन ब रही है। वह अपने आप को पहले से भी कही ज्यादा असुरक्षित महसूस करती है। महिलाओं में शिक्षा प्राप्ति के अधिकार भी पुरूषों की अपेक्षा न्यून हैं। हालांकि शहरों में तो स्थिति सुधर रही है परन्तु गाँवो में अभी भी महिला शिक्षा मे भेदभाव किया जाता है। महिलाओं के प्रति शिष्टता का हनन आधुनिक समाज में खुलओम हो रहा है, फिल्मों और विज्ञापनों मे महिलाओं की देह को उपभोग की सामग्री की तरह बेचा जा रहा है।

आज वर्तमान में घर के बाहर एवं अन्दर महिलाओं को शोषण तथा दमन का सामना करना पडता है। घर की चारदीवारी के अन्दर दमन अधिकतर गुप्त होता है तथा परिवार के अंदर महिलाओं की समस्याऍं ब जाती हैं। महिलाओं एवं पुरूषों के बीच असमान शक्ति सम्बन्धों की अभिव्यक्ति जीवन के अनेक क्षेत्रों में प्रतिबिम्बित होती है और महिलाओं को हिंसा, भ्रूण हत्या, शिशु हत्या, दहेज प्रताडना, मारपीट, यौन शौषण, शारीरिक एवं भावनात्मक दुव्र्यवहार आदि का सामना करना पडता है।

यूनीसेफ के एक अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 50 लाख भ्रूण हत्याऍं होती हैं जिनमे अधिकतर मादा भू्रण हत्या हैं। महिलाओं की आर्थिक गतिविधि कुल आर्थिक गतिविधि का लगभग 50 प्रतिशत है, किन्तु आमदनी में उनका हिस्सा 34 प्रतिशत से अधिक नहीं है। असमानता के आंकडे हर क्षेत्र में देखे जा सकते है। महिलाओं पर बती हिंसा और भी अधिक शोचनीय है। शिक्षा के अवसर निरन्तर बे हैं किन्तु बहुसंख्यक बालिकाओं को लाभ नहीं मिल पाया है। विडम्बना है कि विकास की गति के बावजूद महिलाओं की प्रस्थिति में आशानुकूल सुधार नहीं हुआ है, बल्कि कुछ क्षेत्रों में तो स्थिति बदतर हुई है। महिलाऍं जो विश्व की आबादी का आधा हिस्सा हैं और जिनका समाज निर्माण में योगदान पुरूषों से किसी भी प्रकार कम नहीं है, पुरूष प्रधान समाज में कभी भी अपना न्यायोचित स्थान प्राप्त नहीं कर पाई।

 बीसवीं शताब्दी मानवाधिकारों के क्षेत्र में सोचविचार को नवीन आयाम प्रदान करने के लिए इतिहास में एक विशष्ट स्थान रखती है। यद्यपि यह एक कटु सत्य है कि आज भी विश्व के अनेक देशों के नागरिकों को पूर्ण मानव अधिकार प्राप्त नहीं हो सके हैं। महिला जनसंख्या के अधिकांश भाग के लिए भारत में ही नहीं वरन सम्पूर्ण विश्व में मानवाधिकार आज भी मिथक है। आजादी के साठ वर्षो की विकास यात्रा में देश में महिलाओं उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक स्थिति और सामाजिक मान्यताओं के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन की सुगबुगाहट अवश्य लक्षित हैं लेकिन इस विशाल और अनगिनत विविधताओं वाले देश में इस परिवर्तन का अंश नगण्य ही है। लेकिन यह एकदम सत्य और प्रामाणिक तथ्य है कि देश में महिलाओं पर अत्याचारों की विविधता तथा गंभीरता भी बी है। महिलाओं से सम्बन्धित अपराधों के नयेनये विकृत रूप सामनें आए है जो यह प्रमाणित करता है कि शिक्षा, संविधान, सामाजिक मर्यादा और नारी महत्त्व के सारे प्रगतिशील कार्यो के बावजूद उन पर हो रहे अत्याचारों में वृद्धि होती जा रही है। महिलाओं की स्थिति को सुधारने एवं उसके विकास हेतु उन्हें समाज व संविधान ने कई अधिकार तो दे दिए हैं, ताकि वह अपने हक को पा सके किन्तु क्या इन अधिकारों के बनने से ही उनकी स्थिति सुधर जायेगी, क्योंकि जो अधिकार उन्हें मिलने चाहिए थे, आज भी वे उन अधिकारों से वंचित है। उनके जीवन में तभी प्रसन्नता आयेगी जब उन्हें समाज मे समानता का अधिकार प्राप्त होगा, इससे एक कुशल समाज का निर्माण होगा।

 संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रकाशित ॔॔ दी ह्यूमन डवलपमेन्ट रिपोर्ट॔॔ में भारतीय महिलाओं की स्थिति के बारे में आशावादी भविष्यवाणियाँ की गई हैं और इस स्थिति में सुधार बताया है, इसके अलावा ॔॔ दी यू.एन. फण्ड फॉर डवलपमेन्ट रिपोर्ट॔॔ के अनुसार भारतीय महिलाओं की स्थिति में शिक्षा, नियोजन, प्रति महिला आय दर के क्षेत्र में कुछ सुधार हुआ है। इसके अलावा मानवाधिकार के बेहतर संरक्षण के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के गठन के लिए भारत की संसद ने 1993 में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम पारित किया।

वस्तुतः महिला अधिकारों का प्रश्न जितना कानूनी एवं राजनैतिक है उतना ही सामाजिक परिवेश, सांस्कृतिक परम्पराओं तथा आर्थिक संरचनाओं द्वारा निर्धारित एवं प्रभावित हैं।

महिलाओं की अपनी स्वयं की मनोवृत्तियों में भी परिवर्तन अपेक्षित है यह परिवर्तन शिक्षा एवं आर्थिक स्वायत्तता, चेतना एवं संगठनात्मक प्रयासों द्वारा सम्भव है। अतः विश्व समाज में महिला चेतना व उसके अधिकारों के प्रति जो उत्साह जागा है उसका लाभ सारी विषमताओं व असमानताओं के रहते हुए भी भारतीय महिलाओं को क्रमिक रूप से शनै:शनै: मिल सकता है। महिलाओं को जो अधिकार मिले, साधिकार मिले इसी में उसकी व समाज की प्रसन्नता हैं।

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