भारत के नोबेल पुरस्कार विजेता : गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर

 राकेश कुमार आर्य

भारत की पावन धरती पर कितनी ही महान विभूतियों ने जन्म लिया है, कितने ही विदेशी महापुरूषों ने इस पावन धरती को अपनी कर्म स्थली बनाया है। प्राचीन काल से ही भारत की पावन धरा ने मातृवत मानवता को अपने पुनीत पयोधर से पावन पयपान कराकर उसे सत्कृत्यों के लिए प्रेरित किया और संसार को स्वर्ग बनाने की दिशा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। अपनी इसी विशिष्टता के कारण ही भारत की धरती को विश्व के लोगों ने जहां वंदनीय माना वहीं इस महान देश की महानपरंपराओं को विश्व शांति और मानवता के कल्याणार्थ सर्वश्रेष्ठ माना। भारत ने अपनी कोख से या गोद से विश्व समुदाय को अब तक ऐसे सात मूल्यवान मोती दिये हैं। जिन्होंने संसार के सबसे बड़े पुरस्कार नोबेल पुरस्कार को प्राप्त किया। विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा की आभा को बिखेरने वाले इन मोतियों पर भारत को ही नहीं अपितु विश्व विरासत को भी नाज है। इन मोतियों में सर्वप्रथम और पहला नाम है :-गुरूदेव रविन्द्र नाथ टैगोर का।

गुरूदेव रविन्द्र नाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को कलकत्ता के जोरासांको मौहल्ले में हुआ। सरस्वती के पुत्र गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता का नाम देवेन्द्रनाथ टैगोर था। इनके पिता उपनिषदों के विद्वान तो थे ही साथ ही हिंदु समाज में व्याप्त मूर्ति पूजा के महान विरोधी भी थे। कलकत्ता के गणमान्य लोगों में उनकी गिनती होती थी। राजा राममोहनराय के समाज सुधार के कार्यों का उन पर गहरा प्रभाव था। ऐसे गुणी पिता के बहुत से गुण व्यक्तित्व की निराली शोभा बनकर गुरूदेव को उत्तराधिकार में प्राप्त हुए थे। उन्हें प्राकृतिक सौंदर्य से विशेष लगाव था। उन्होंने केवल सात वर्ष की आयु में ही बंगला भाषा में कविता लिखना सीख लिया था। बचपन का यह चमत्कार आने वाले दिनों का आगाज दे रहा था। 17 वर्ष की अवस्था में गुरूदेव उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए लंदन गये। वहां वायरन शहर के बाहर एक स्कूल में प्रवेश लिया। वहीं रहकर आपने पहली पुस्तक वाल्मीकि-प्रतिभा लिखी। उसकी सफलता से प्रभावित होकर कालमृगया लिखी। 1884 में आपका विवाह   मृणालिनी देवी के साथ हुआ। वैवाहिक जीवन संक्षिप्त रहा, क्योंकि मृणालिनी देवी 1902 में ही स्वर्ग सिधार गयीं। उनसे आपको तीन बेटी और दो बेटे कुल पांच संतानें थीं। सबसे बड़ी बेटी 15 वर्ष की थी तो छोटा बेटा पत्नी के देहांत के समय मात्र सात वर्ष का था। 1905 में पिता का स्वर्गवास हो गया। एक बेटी रेणुका भी कुछ समय बाद चल बसी। इसी क्रम में एक दिन हैजे की चपेट में आकर छोटा प्यारा बेटा शमीन्द्र भी संसार से चला गया। दुखी गुरूदेव की सरस्वती साधना चलती रही। वह बहुत दुखी थे। परंतु भीतर का कवि कुछ नई नई प्रेरणा देकर उन्हें सम्बल देता और आगे बढऩे के लिए प्रेरित करता। तब आपने गीतांजलि लिखी। इसी महान पुस्तक पर आपको 1913 में नोबेल पुरस्कार मिला। भारत के लिए यह पहला नोबेल पुरस्कार था। गुरूदेव इसे प्राप्त कर पत्नी, पिता व संतान को याद कर बहुत रोये थे। वह भारत के ही नहंी बल्कि एशिया के पहले व्यक्ति थे जिन्हें यह पुरस्कार मिला था। अंग्रेज सरकार ने उन्हें सर की उपाधि प्रदान की थी। लेकिन 1919 में जलियांवाला बाग के हत्याकाण्ड से आहत होकर उन्होंने यह उपाधि वापिस कर दी थी। 1912 में जब भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लायी गयी तो कांग्रेसी लोगों ने ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम के स्वागत के लिए एक स्वागत गान बनाने की जिम्मेदारी गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को ही दी थी। बाद में गुरूदेव गांधीजी के संपर्क में आकर नेहरूजी से मिले और नेहरूजी ने उन्हें पर्याप्त धन देकर उपकृत किया था। जॉर्ज पंचम के लिए स्वागत गान गुरूदेव ने बनाया और उसे कांग्रेसी लोगों ने बड़ी शान से गाया। बाद में यह स्वागत गान कांग्रेस के हर समारोह में गाया जाने लगा। यह स्वागत गान ही आज कलहमारा राष्टï्र गान है। जन-गण-मन अधिनायक जय हे! का यह गीत बंगला में लिखा गया था। इसकी कुल 8 कली हैं। हम पहली कली को ही गाते हैं। गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस गीत की सफलता पर तथा हर अवसर पर इसे गाने से अप्रसन्नता व्यक्त की थी। वह नही चाहते थे कि यह गीत इतना लोकप्रिय हो क्योंकि इस गीत में एक विदेशी सम्राट की वंदना में कशीदे काढ़े गये थे। वह इस गीत को लेकर कुंठित रहे। अपनी मृत्यु से पूर्व भी उन्होंने एक पत्र लिखा जिसमें इस गीत को किसी समारोह में न गाने की इच्छा व्यक्त की गयी थी।गुरूदेव टैगोर पारिवारिक जीवन से दुखी रहे थे। उनकी बेटी का बेटा नीतू उनके आश्रम शांतिनिकेतन में उनके साथ रहता था। अब गुरूदेव अपने उस नाती के ऊपर ही अधिक निर्भर थे। वह उससे अधिक प्रेम करते थे। सारा आश्रम उसके कारण खुशियों से भरा रहता था। इसे आपने उच्च शिक्षा के लिए यूरोप भेजा था। वहां उसकी तबियत बिगड़ी और एक दिन गुरूदेव के जीवन की अंतिम ज्योति को काल के क्रूर हाथों से बुझाकर वह नाती भी संसार से चला गया। गुरूदेव उसकी मृत्यु के कष्टï को झेल नही पाए।अब उन्हें अकेलापन खाने लगा था। उनके लिए जीवन का कोई अर्थ नहीं था। वह ईश्वर से प्रार्थना करने लगे कि बस! अब बुला लो, और यही हुआ। 8 अगस्त1941 को ईश्वर ने उनकी प्रार्थना सुनी और वह हमें रोता बिलखता छोड़ संसार से चले गये। उन्होंने कुल 15 किताबों की रचना की। एक से बढक़र एक महानता के कार्य किये। इसीलिए संसार आज तक उन्हें सम्मान के साथ याद करता है। गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के बाद नोबेल पुरस्कार भौतिकी के क्षेत्र में विशेष कार्य करने के लिए चंद्रशेखर वेंकट रमण को 1930 में, डा. हर गोविंद  खुराना को चिकित्सा क्षेत्र में विशेष कार्य करने के लिए 1968 में, मदर टेरेसा को शांति के क्षेत्र में विशेष कार्य करने के लिए 1980 में,भौतिकी के क्षेत्र में विशेष कार्यों के लिए अमत्र्य कुमार सेन को 1998 में, तथा विद्याधर सूरजप्रसाद नाययाल को 2001 में साहित्य के क्षेत्र में इन पुरस्कार से नवाजा गया है। इन पुरस्कार विजेताओं में से मदर टेरेसा मूलत: यूगोस्लाविया कीं थीं। जिन्होंने भारतीय नागरिकता ले ली थी। जबकि डा. हरगोविन्द खुराना मूलत: भारतीय थे। जिन्होंने 1964 में अमरीका की नागरिकता ले ली थी। वी.एस.नाययाल के दादा ढाका के निवासी थे। 20वीं सदी के आरंभ में ही वह भारत  छोड़ गये थे। वी.एस. नायपाल का जन्म भी 17 अगस्त 1932 में त्रिनिदाद में  हुआ था। अमत्र्य कुमार इंग्लैंड में रहकर अध्यापन कार्य कर रहे हैं।सुब्रहमण्यम चंद्रशेखर भी अमरीका में रहे थे और शिकागो में रहकर ही उन्होंने अपने जीवन की अंतिम सांस ली थी। सी.वी. रमन भारत को गुलाम देखना नहीं चाहते थे, उन्होंने भारत के लिए विशेष कार्य किया पर राजनीति से परहेज किया, यहां तक कि 1952 में उपराष्ट्रपति पद का न्यौता भी ठुकरा दिया। कुछ भी हो हमें अपने इन महान नक्षत्रों पर गर्व है।

1 COMMENT

  1. Nice sir….ye read kar ki mujhe bhut proud feel ho rha hai. Aur ye jaan ke bhut dhukh v ho rha hai ki guru ji ko bhut hi taklif hui apne jivan me…? but ye kahani padh ke ek baat ka pata chala ki insaan ki janam kuch karne ke liye hua hai…aur mai kuch baanke rahunga…? aap ke karan mujhe apne jeevan ke rahesya ke bare me janne ko mila …aur guru ji ke bare me v…thank u a lot sir..??

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