भारत की गुलामी

एयर वाइस मार्शल विश्व मोहन तिवारी, से. नि

चित्र देखें। इसमें और आज की स्थिति में उतना ही अन्तर है जितना कि उस जमाने की प्रौद्योगिकी में और आज की प्रौद्योगिकी‌ में है। आप शायद सहमत न हों, किन्तु थोडा सा गौर तो करें। आज इस वैज्ञानिक युग में जहां विज्ञान की खोज के प्रकाशन को विद्वानों द्वारा परखा जा सकता है, वहां इस देश में उसी वैज्ञानिक की पदोन्नति होती‌ है जिसके प्रपत्र विदेशी जर्नल अर्थात यू एस ए और ब्रितानी जर्नलों में प्रकाशित हुए हों! देशी जर्नल में प्रकाशित होते ही उस प्रपत्र को तीसरे दर्जे का मान लिया जाता है। क्या हम लोग विज्ञान में इतने पिछड़े हैं कि एक प्रपत्र को परख नहीं सकते और हमें विदेशी जर्नल की शरण लेना पडती है? क्योंकि हम अंग्रेज़ी के गुलाम हैं। यही बात साहित्य पर या विज्ञान कथा पर लागू होता है। यदि विदेशी पत्रिका में कुछ भी प्रकाशित हो जाए तो लोग उत्सव मनाते हैं, और देशी माध्यम में प्रकाशित हो तो उसे घटिया मानते हैं, क्योंकि हम अंग्रेज़ी के गुलाम हैं। उस जमाने में अंग्रेज़ साहब जैसी हिन्दी बोलता था आज हम सब वैसी ही हिन्दी, उसी शान से, बस शायद थोडी और आधुनिक गुलामी से भरी, बोलते हैं। उस जमाने में हिन्दुस्तानी जितनी शान से अन्ग्रेज़ की सेवा करता था (फ़ोटोग्राफ़र का कमाल है) आज हम भी उसी शान से अमेरिकी या ब्रितानी की सेवा करने में अपना गौरव समझते हैं। मेरे एक मित्र की पुत्री अंग्रेज़ी कि पत्रकार थी. उनके पास विवाह के लिये एक लडके का प्रस्ताव आया। उऩ्होने कहा कि मैं अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कैसे कर सकता हूं, क्योंकि वह तो हिन्दी का पत्रकार है! हमारे प्रसिद्ध स्कूलों के प्रसिद्ध प्रिन्सिपल विद्यार्थियों को हिन्दी में बातचीत करने पर दण्ड देते हैं, वे छोटे से अपने प्यारे ‘इंग्लैण्ड’ में रहते हैं; वे शायद सपने में उस अंग्रेज़ साहब को पंखा झल रहे हैं। अंग्रेज़ी राज के ज़माने से हमारे दिलों में यह सपना बैठ गया, तभी तो अंग्रेज़ी को इस देश की राजभाषा बनाया गया। फ़िर क्या था। बहुतों‌ ने मन्नतें कीं कि मेरा बच्चा भी बस जन्म लेते ही साहब के समान गिटपिट बोलने लगे, और मेरा बेटा भी वहीं वैसे ही साहब-सा बैठकर अपने पैरों कि सेवा करवाए किसी घटिया भाषा बोलने वाले से। आप शायद अभी भी सहमत न हों, कि हम अभी भी गुलाम हैं; तब मैं समझ जाउंगा कि मैं तो घटिया भाषा में बोल रहा हूं, आप कैसे उसे मान सकते हैं।

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विश्‍वमोहन तिवारी
१९३५ जबलपुर, मध्यप्रदेश में जन्म। १९५६ में टेलीकम्युनिकेशन इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि के बाद भारतीय वायुसेना में प्रवेश और १९६८ में कैनफील्ड इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलाजी यू.के. से एवियेशन इलेक्ट्रॉनिक्स में स्नातकोत्तर अध्ययन। संप्रतिः १९९१ में एअर वाइस मार्शल के पद से सेवा निवृत्त के बाद लिखने का शौक। युद्ध तथा युद्ध विज्ञान, वैदिक गणित, किरणों, पंछी, उपग्रह, स्वीडी साहित्य, यात्रा वृत्त आदि विविध विषयों पर ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित जिसमें एक कविता संग्रह भी। १६ देशों का भ्रमण। मानव संसाधन मंत्रालय में १९९६ से १९९८ तक सीनियर फैलो। रूसी और फ्रांसीसी भाषाओं की जानकारी। दर्शन और स्क्वाश में गहरी रुचि।

22 COMMENTS

  1. “आर्थिक उन्नति का रहस्य” टिप्पणी चार। कृपया ज़रुर पढिए।
    मेरा सीना तन गया, उंचाई कुछ बढ गयी, निम्न इतिहास पढकर।
    (मेरे मित्र अनुनादसिंह जी ने यह जानकारी, भेजकर हम भारतीयोंपर बहुत बडा उपकार किया है।) पढिए, पढिए, और औरोंको भी पढाइए।ना छोडिए।
    ==> १९४६ में वायसराय कौन्सिलके सदस्य चौधरी मुख्तार सिंह ने जापान और जर्मनी (वहां छात्र जन भाषामें पढते हैं) यात्रा के बाद यह अनुभव किया था कि यदि भारत को कम समय में आर्थिक दृष्टिसे उन्नत होना है, तो जन भाषा में जन वैज्ञानिक बनाने होंगे। उन्होने मेरठ के पास एक छोटे से कस्बे में “विज्ञान कला भवन” नामक संस्था की स्थापना की।हिंदी मिडल(?) पास छात्रोंको उसमें प्रवेश दिया। और हिंदी माध्यमसे मात्र पांच वर्षों में उन्हें “एम एस सी” (चौंकिए!) के कोर्स पूरे कराकर “विज्ञान विशारद ” की उपाधि से विभूषित किया। इस प्रकारके प्रयोगसे, वे देश की सरकार को, दिशा देना चाहते थे, कि जापान की भांति भारत का, हर घर लघु उद्योग केंद्र हो सकता है। दुर्भाग्यवश दो स्नातक टोलियों के निकलने के बाद, ही चौधरी साहब की मृत्यु, हो गई और प्रदेश सरकारने “विज्ञान कला भवन” को इंटर कॉलेज बना दिया। वहां तैयार किए गए ग्रंथो के प्रति भी, कोई मोह सरकार का नहीं था। पर इस प्रयोग ने, यह भी तो सिद्ध तो किया ही, (जैसे, यह सिद्ध करने की आवश्यकता थी ?) कि जन भाषा ही, आर्थिक उन्नति का रहस्य है।जन विज्ञान विकास की आत्मा है। मेरे देश बंधुओं बैसाखी त्यागें, और अपने सशक्त पैरोंपर दौडे। चौधरी मुख्तार सिंह को अमर करें। यही हमारी उनके प्रति श्रद्धांजलि होगी। हिसाब लगाएं, कितने कोटि कोटि छात्र वर्ष हमने बिगाडे? कितना धन व्यर्थ किया? आज भी हमारा ग्रामीण क्यों निर्धन है? उत्तर मिल गया। —-“तेरा वैभव अमर रहे, माँ, हम दिन चार, रहे न रहे”—-

    • धन्यवाद प्रो.. मधुसूदन जी।
      चौधरी मुख्तार सिऩ्ह जी सचमुच में ही सिऩ्ह थे, मुख्तार अर्थात मुखिया थे और चौधरी अर्थात नेता तो थे ही., वे निस्वार्थी और सक्रिय क्रियावान देशभक्त् थे , दूरदर्शी थे और गहन दर्शी भी।
      उनके विषय में जब मुझे पहले ज्ञात हुआ तब से मैं उनके सिऩ्ह के समान साहस की प्रशंसा करते नहीं थका हूं।

      किन्तु आज के भारतीय को क्या कहा जाए !! मुझे लगता है कि शराब से ज्यादा नशा टी वी में है, और आज औसत भारतीय उस नशे में मस्त रहता है, उस पर महत्वपूर्ण घटनाओं का असर ही नहीं पड़ता।; चाहे वह कामनवैल्थ गेम्स का घोटाला हो, मदानी की जायज गिरफ़्तारी में पुलिस की शर्मनाक असफ़लता हो, काश्मीर में भारतीय ध्वज का जलाना हो, दामों का आसमान में चढ़ना हो, अनाज का गोदामों के बाहर सड़ना हो,. . . वह तो टीवी के नकली और खतरनाक मुद्दों का आनन्द लेता रहता है., खान इज़ किंग को देखकर, पीपली लाइव या स्ल्मडाग के देखकर मस्त रहता है।

      ऐसे भारतीय को कैसे उसके नशे से मुक्त करें ?? उसकी गुलामी से मुक्त करें??

  2. आदरणीय तिवारी जी! एक अछे विषय की अछी प्रस्तुती के लिए बधाई. आपके आलेख पर प्रश्न चिन्ह लगाने वालों से मेरा निवेदन है——————–
    * आप अंग्रेज़ी भक्तों को पता है कि संसार के अधिकाँश देश अंग्रेज़ी नहीं बोलते.
    * उन्नत देशों में गिने जाने वाले देशों चीन, जापान, रूस, जर्मन, फ़्रांस ने अपना विकास अपनी-अपनी भाषाओं के आधार पर किया है, अंग्रेज़ी की गुलामीन के बिना.
    * जापान ने अपनी आजादी के तुरंत बाद अंग्रेज़ी स्कूलों ( कान्वेंट स्कूलों को ) को प्रतिबंधित कर दिया क्योंकि उनकी नज़र में इन स्कूलों से देशद्रोही पैदा होते हैं. ( अपवादों को छोड़कर हमारे देश में भी यही तो नहीं हो रहा ? इसका जवाब मुझे न दें, अपने आप से पूछें. )
    * विश्व मोहन तिवारी जी को प्रोत्साहन देने की बजाय उनकी इमानदारी पर संदेह जगाने, उन्हें हिपोक्रेट दर्शाने की शरारतपूर्ण कोशिश टिप्पणीकारों की बदनीयती को दर्शाती है कि उनके बच्चे कहाँ पढ़ते हैं. अरे भाई जिस भाषा के स्कूल अंगरेजी सरकार की पिट्ठू भारत सरकार ने हमें दिए हैं, उसी में पढ़ाकर सुभाष, भगत सिंह, गांधी, विवेकानंद बनाने का कठिन प्रयास कर रहे हैं जो कि देश की दुश्मन ताकतें नहीं होने देना चाहती हैं. अमेरिका में रहकर अंग्रेज़ी पढनी पड़ेगी न. फिर अंग्रेज़ी या कोई भी भाषा पढने का विरोध कहाँ है. बात इतनी है कि भारत के विकास, देश भक्ती के जागरण के लियी हमारी शिक्षा, हमारे देश का प्रशासन हमारे देश की अपनी भाषाओं में चलना चाहिए.
    * स्वदेशी भाषा में पढ़ा गया विषय बच्चों को जल्दी समझ आता है. विदेशी भाषा में पढने पर विषय को समझाने के लिए 3-4 गुना क्षमता अधिक लगती है. अर्थात हमारे बच्चे जिस विषय को अंग्रेज़ी में समझने में चार वर्ष लगाते हैं, हिन्दी या किसी अन्य अपनी मात्री भाषा में उसे लगभग एक वर्ष लगेगा. याने ३-४ गुना देश की ऊर्जा हम अंग्रेज़ी में पढ़ कर व्यर्थ गंवा रहे हैं.
    * मात्री भाषा से इतर भाषा में पढाई करने वाले अधिकाँश बच्चों की तर्क शक्ती समाप्त हो जाती है और वे कोई विश्लेषण, खोज, शोध का कार्य करने में असमर्थ हो जाता है. बिना समझे अंग्रेज़ी में रट्टा मरने के कारण ऐसा होता है.
    *** एक विशेष बात यह है कि ‘अंग्रेज़ी’ अविकसित बुद्धी के अविकसित मानवों की एक बड़ी अविकसित भाषा है. तभी तो इसमें अनेक वर्णों का अभाव है, अनेक शब्दों का लेखन नहीं हो पाता. विश्व की एक मात्र भाषा है कि जिसके हर शब्द का हिज्जे ( स्पेलिंग) याद करने पड़ते हैं. कितनी ऊर्जा बेकार में नष्ट होती है. अपने इस विकार के कारण यह भाषा तो स्वयं अंग्रेजों, अमेरीकियों के विकास में काफी बाधक ही होती होगी. यह तो आप जानते हैं न कि आम अमेरिकी अत्यंत अल्प बुद्दी का होत़ा है?
    * भाषा विज्ञानियों के षड्यंत्रों की पोल खुलने के बाद अब यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि संसार की सारी भाषाओं की जननी हिन्दी की माँ संस्कृत है ( कोई असहमत हों तो इसपर मुझ से संवाद की कृपा करे, प्रमाणों की कोई कमी नहीं है.) स्मरणीय है कि भारत सभी भाषाओं की जननी संस्कृत है. इसके विपरीत दिए गए सभी शोध झूठ का पुलिंदा हैं, देश को टुकड़ों में बांटने की चालों का एक अंग है.
    * भारत भक्तों की की जानकारी के लिए बतला दूँ कि अफ्रीका की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा ‘स्वाहिली’ में संस्कृत के ४०% से भी अधिक शब्द हैं. यानीं आपका सांस्कृतिक शासन कभी अफ्रीका पर रहा है ; जानते हैं आप भारत भक्त ये बात ? संदेह हो तो आपको एक और प्रमाण देदूं,
    # स्वामी कृष्णानंद जी ने अफ्रीकी सम्राट हेल सलासी को रामायण की एक प्रती भेंट में दी तो वे बोले कि हमको रामायण क्या देते हो, हम तो कुशाईट हैं . यानी राम के पुत्र कुश के वंशज हैं. यही वहाँ की प्रचलित किंवदंती है. अफ्रीकी लोग अपने आप को कुश के वंशज मानते हैं. इस महान तथ्य पर अँगरेज़ ओर उनके एजेंट कुंडली मार कर बैठे हुए हैं.
    ** अधिकाँश अंग्रेज़ी पढ़े, अंग्रेज़ी संस्कारों में पले आसानी से विदेशी ताकतों के द्वारा इस्तेमाल हो जाते हैं या उनके एजेंट बन जाते हैं.अतः अंग्रेज़ी को, कॉन्वेंट स्कूलों को बंद करने के प्रयास होने चाहियें. साथ ही कोई नेताजी सुभाषचंद्र, सर्दाद पटेल जैसा देश का शासक होना चाहिए जो इस्राईल की तरह एक दिन में देश की स्वदेशी राष्ट्र भाषा के लागू होने का आदेश जारी करे. नून-नच करने वालों को समझने का प्रयास करना चाहिए कि केवल इस एक निर्णय से ही देश कई गुना अधिक तीजीसे तरकी करने लगेगा और देश के दुश्मनों, अपने खुद का विनाश करने वाले आत्मघातियों का उत्पादन बंद हो जाएगा.
    !! तिवारी जी, प्रो. मधुसूदन जी जैसे देश भक्तों की दूरदर्शिता व इमानदारी पर भरोसा करें और उनके प्रयासों में सहयोगी बनें, ये मेरा विनम्र निवेदन और सुझाव है.!!

    • हिंदी भाषा को लेकर मेरे विचारों को आप भावुकतावश व्यर्थ ही कोई शरारती प्रयत्न या असद्भाव जैसी उपमा दे रहे हैं| तिवारी जी मुझसे बड़े हैं और उन्हें मुझसे कही अधिक जीवन-अभ्यास और ज्ञान है| मैंने उनकी रचना में गुलामी शब्द को लेकर अपने विचार व्यक्त किये थे| हिंदी भाषा की एक चित्र के पृष्ठपट पर अंग्रेजी भाषा से तुलना करना ही उसे गुलामी का दर्जा देने के समान है| मेरे स्वयं के विचार प्रोफ़ेसर मधुसूदन जी के विचारों से समक्रमिक हैं और इस कारण विषय के बिखराव को रोक मैंने व्यक्तिगत टीका टिप्पणी से यह कह कर विश्राम ले लिया था कि भारतीय संस्कृति एक विशाल जलसमूह है और उसे कुछ मछलीयाँ गंदा कदापि नही कर सकती| तिवारी जी के बच्चों से मेरा अभिप्राय उनके अंग्रेजी भाषा के ज्ञान द्वारा उन्नति कर पाने से है न कि तिवारी जी के चरित्र और इमानदारी पर किसी प्रकार का संदेह जताना है| अंग्रेजी भाषा के माध्यम द्वारा शिक्षित यदि उनके बच्चे स्वामी विवेकानंद समान महान बनते हैं तो भारत को ही सम्मान मिलेगा| हिंदी को शाशकीय भाषा से राष्ट्रीय भाषा बनाने में भारत में एकात्मकता का विशेष लाभ है| हमें काम करने के ढंग और प्रगतिशील विचारों की बहुत आवश्यकता है और तभी ऐसा वातावरण उत्पन्न होगा जिसमे लोग केवल अंग्रेजी भाषा नहीं बल्कि अपनी व्यक्तिगत क्षमता से उन्नति करेंगे|

  3. मित्रों, आदर सहित, निष्पक्ष विचार रखता हूं।
    मैं मानता हूं, कि, व्यक्तिगत टीका टिप्पणीसे बचना चाहिए। और मै मानता हूं, कि, जिन बातोंको आज कोई मानता है, संभव है, कि १५-२० वर्ष पहले ना भी मानता हो; तो क्या वह मत बदल सकता नहीं? क्या आप अपना मत बदलनेका अधिकार नहीं रखते?

  4. टिप्पणी तीन:
    तिवारी जी–कुछ प्रमाणातीत, आधिपत्य जमाने के अपराध बोध सहित, मैं लिखने को उद्यत हूं। तुलना अंग्रेज़ी —हिंदी की।
    (१) हिंदी स्वर व्यंजनोंका ज्ञान होने पर किसी भी शब्द को लिखना संभव होता है। पर -अंग्रेजी आप जीवन भर स्पेलिंग पाठ करते रहोगे।(कितना समय बचा?)
    (२) देवनागरी संक्षेप की लिपि है। (रोमन) अंग्रेजी नहीं उदा: मधुसूदन(५ अक्षर)– Madhusudan (१० अक्षर) {कितना परिश्रम बचा?)
    (३) हिंदी वाचन की गति अंग्रेजी वाचन से तीव्र है। ( अनुमानित देढ से दो गुना)(कितना…..?)
    (४)हिंदी में आप अक्षरों की इकाइयां पढते हैं, अंग्रेजीमें आप पूरा शब्द देख लिए बिना उसका उच्चारण निर्धारित नहीं कर सकते। उदा: Calibration और celebration पहला कॅलिब्रेशन (C का उच्चारण क ) और दूसरे में (C का उच्चारण स है) (कितना ?)
    (५) जो अभिव्यक्ति आप हिंदीमें २ पृष्ठो में कर सकते हैं, अंग्रेजीमें आप ३-१/२ पृष्ठ लेंगे।(समय बचेगा, कागज़ बचेगा, कार्य क्षमता (Efficiency) बढेगी।
    (५क)अतिरिक्त परिणाम:=> हिंदीमें विचार, चिंतन, मनन दुगूने गतिसे होगा। अर्थात्‌ : शोध खोज दुगुने गतिसे होगी। शोध कर्ता अपने जीवनमें दो गुना खोज कर पाएगा। क्या? ? ?
    (६) हाल ही में मैं ने “भाषा विज्ञान की भूमिका” –३८० पृष्ठों की पुस्तक पढी। ठीक हिसाब नहीं रखा –पर अधिक से अधिक १२ घंटे लगे। यदि अंग्रेजी में होती तो? Dictionary खोल खोल कर पढना पडती।
    (७) सांस्कृतिक लाभ भी तो अनाकलनीय लगते हैं।समाज, देश, कहां होता?
    और भी महत्व पूर्ण बिंदू हैं, यदि प्रश्न उठते हैं, तो निश्चिंत होकर प्रस्तुत करें।
    उत्तर देनेका प्रयास करूंगा।

    • प्रोफ़ैसर मधुसूदन जी,
      आपका धन्यवाद, आप मुद्दे पर बात करते है और तर्कसंगत बात करते हैं.
      आशा है कुछ पाठक इस पर उचित्त ध्यान दें।
      मुझे लगता है कि भाषा का मुद्दा भारत में रोटी से इतना अधिक जुड़ गया है कि तर्क सुनने के लिये कोई तैयार नहीं।
      दुख की बात है कि यह रोटी कि बात केवल गरीब कर रहे होते तो और बात थी किन्तु धनी लोग भी अपनी रोटी का भविष्य अंग्रेज़ी ही में देख रहे हैं।
      इसके लिये शासन ही सबसे बड़ा अपराधी है।
      इस के समाधान के लिये उचित जनमानस बनाना ही एक् रास्ता दिख रहा है, किन्तु यह है बड़ा कठिन!!
      हम लोग अपना कर्तव्य करते रहें।

  5. डा मधुसूदन उवाच, “जिस दिनसे भारत हिंदी को एक क्रांतिकारी, प्रतिबद्धतासे पढाएगा; भारतका सूर्य जो ६३ वर्षोंसे उगनेका प्रयास कर रहा है, वह दशकके अंदर चमकेगा,अभूतपूर्व घटनाएं घटेगी”
    उपरोक्त कथन जितना विवेकपूर्ण और सत्य है इसे समझना उतना ही कठिन क्यों‌है?? बिना मानसिक गुलामी की अवधारणा के कृपया कोई इसे समझाए ।
    उपरोक्त कथन में एक उपवाक्य जोड़ना चाहता हूं – “यदि आज से अंग्रेज़ी माध्यम की अनिवार्यता शिक्षा तथा नौकरी से नहीं हटाई जाती तब एक दशक के भीतर भारत का सूर्य डूब जाएगा। यहांके लोग पिजिन इंग्लिश बोलेंगे और पश्चिम को जी‌हुजूर।”
    मुझसे अक्सर लोग कहते हैं कि भारत में‌बहुत शक्ति है -“कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी” हम नहीं मिटेंगे .
    मेरा उनको उत्तर है कि “कुछ’ जो है वह अपनी संस्कृति ही तो है जो भारतीय भाषाओं के जाने से और स्वच्छन्द भोगवाद आने से वह संस्कृति शर्माकर चली‌जाएगी , तब यह कहना सही होगा कि ” ‘कुछ’ बात है कि हस्ती मिट रही‌है हमारी”। यह ‘कुछ’ अब है यह है ‘भ्रष्ट संस्कृति’।

    • खेद हैं कि अब यह जानते हुए कि आपके पुत्र, पुत्री, पौत्र, पौत्रियां, और नातियाँ संयुक्त राष्ट्र अमरीका में रह रहे हैं, मुझे आपके लेख, भारत की गुलामी, और यहाँ प्रस्तुत अन्य कथन मात्र हिपाक्रसी प्रतीत होते हैं| आपका कथन “तब यह कहना सही होगा कि कुछ बात है कि हस्ती मिट रही है हमारी” भयभीत व निराशाजनक है|

      • प्रेम सिल्ही जी,
        आप बहुत जल्दी और थोड़े से या गलत उदाह्रणॊंसे बिमा गहराइ से विचारे निष्कर्ष निकाल लेतेहैं।

        इस तरह पुत्र आदि के व्यवहार के केवल एक पक्ष के आधार पर मेरे चरित्र का निर्णय आपने निकाल लिया, तब यदि आप् गांधी जी के पुत्र हरिदास के देखकर् उनका पता नहीं क्या कर डालते ।
        मेरे पुत्र आदि के कार्यों को भी तो कुछ वजन देते ।

        वैसे कायदे से, आप मेरे बारे में निर्णय लेना चाहते हैं तो मेरे कार्यों को देखिये।
        और आप तर्क से अपनी बात सिद्ध कीजिये, मेरे कथनों और कार्यों को देखते हुए। ।
        धन्यवाद।

  6. टिप्पणी दो:
    १)जिस दिनसे भारत हिंदी को एक क्रांतिकारी, प्रतिबद्धतासे पढाएगा; भारतका सूर्य जो ६३ वर्षोंसे उगनेका प्रयास कर रहा है, वह दशकके अंदर चमकेगा,अभूतपूर्व घटनाएं घटेगी। कोटि कोटि छात्रोंको अंग्रेजीकी बैसाखीपर दौडना(?) सीखानेमें, खर्च होती, अब्जोंकी मुद्रा बचेगी। सारा समाज सुशिक्षितता की राह पर आगे बढेगा। कोटि कोटि युवा-वर्षों की बचत होगी, बालपन के खेलकूद बिनाहि तरूण बनते युवाओंके जीवन स्वस्थ होंगे।
    सारे देशको अंग्रेजी बैसाखीपर दौडानेवाले की बुद्धिका क्या कहे? और फिर हम इसी बैसाखीपर, क्या, विश्वमें ऑलिम्पीक जीतना चाहते हैं ? श्वेच्छासे कोई भी भाषा का विरोध नहीं, पर कुछ लोगोंकी सुविधाके लिए सारी रेल गाडी मानस सरोवरपर क्यों जाए?
    (२) अंतर राष्ट्रीय कूट नीति पाठय पुस्तकोंके अनुसार, साम्राज्यवादी देश, (१) सेना बलसे (२)या, धन बलसे (३) या, सांस्कृतिक(ब्रैन वाशिंग करकर) आधिपत्य जमाकर परदेशोंपर शासन करते हैं।यह तीसरा रास्ता मॅकाले ने अपनाया था।हम बुद्धुओंको समझ ना आया।
    टिप्पणीकार University of Massachusetts से जुडे हुए, और Structural Engineering के Ph. D. हैं, और हिंदी/संस्कृत तकनिकी पारिभाषिक शब्दावलि पर काम कर रहे गुजराती मातृ-भाषी हैं।

  7. टिप्पणी एक:
    तिवारीजी अनेकानेक धन्यवाद। अन्य बंधुओंको कुछ विचार-चिंतन-मनन का प्रेम भरा आग्रह।
    गुजराती कहावत का अर्थ है: “जब जगे तभी सबेरा”। हमारा सबेरा अभी हुआ ही नहीं।(१) जो मैं स्वतः १० वर्ष पहले नहीं मानता था, वह आज दीर्घ चिंतनके अंत मे, मानता हूं। हम हर छात्रके ८-१० वर्ष उसे एक परायी भाषा सीखानेमें लगा देते हैं।(२) पहले वह अंग्रेज़ीकी बैसाखी पर चढना सीखता है, फिर संतुलन,फिर अटक अटक चलना, अंतमें दौडना— और फिर विश्वकी ऑलिम्पिकमें जीतने की उसी, बैसाखीपर अपेक्षा? यह तर्क सम्मत नहीं है। १० से १५ वर्ष लगाकर फिर शोध-खोज करते करते जीवन बीतता है।(३)अपनी संस्कृति और भाषाके प्रति, लघुता ग्रंथी इनाममें मिलती है। हर छात्रके १० वर्ष केवल अभिव्यक्तिका माध्यम(ज्ञान नहीं) सीखने में व्यर्थ व्यय होते हैं।
    करोडों छात्र-वर्षोंका और अब्जों की मुद्राका अनावश्यक व्यय क्यों? कितने वर्ष और कितने अब्ज रुपए बच सकते हैं? हमारी पिछडी प्रजा भी क्यों पिछड गयी है? क्यों उनमें साहससे किसी अधिकारी को ललकार कर प्रश्न पूछने का साहस नहीं है? अन्याय क्यों सह रही है? इसराएल, जपान, चीन, फ्रांस, जर्मनी, रशिया, कोई पराए माध्यममें नहीं पढाता। कुछ लोग परदेश जाना चाहे, तो वे कोई भी भाषा पढ सकते हैं।कल रशिया आगे बढा तो क्या रशियन पढाना प्रारंभ किया जाए?

  8. यह तर्क कुछ पाठकों ने दिये हैं -” लेकिन गुलामी अंग्रेजी के कारण कम, समस्त भारत में भ्रष्टाचार, अनैतिकता, और भारतीय जीवन के प्रत्येक वर्ग में मध्यमता के कारण अधिक है| ”

    किन्तु ‘भ्रष्टाचार, अनैतिकता, और भारतीय जीवन के प्रत्येक वर्ग में’ क्यों अधिक है?? यह प्रश्न मह्त्वपूर्ण है।
    मुख्य रूप से कहें तो चारित्रिक पतन के कारण है। तब चारित्रिक पतन क्यों है?

    चरित्र शाला से कम तथा घर से. दादी नानी मा दादा नाना और् पता से पहले आता है। बाद में समाज से और फ़िर् पाठ्शालाओं से।

    भारतीय भाषाओं सए भारतीय चरित्र की अवधारणा पैदा होतीऒ‌है अंग्रेज़ी से वहां की। भारत में स्कूलों में तो अंग्रेज़ी पढ़ते हैं और जीवन भारतीय भाषाओं में जीना पड़ता है। इससे खिचड़ी संस्कृति पैदा होती है जो कहीं का नहीं छोड़ती। संस्कृति ही चरित्र का निर्मान करती है, विदेशी‌भाषा विदेशी संस्कृति लाती है।
    जो इस देश की मिट्टी के लिये उपयुक्त नहीं‌है।

    बचपन में जो संस्कार पड़ते हैं वे सुदृढ़ होते हैं और तभी उनमें लौटा जा सकता है। किन्तु आज का बच्चे की तो नींव ही गड्ड मड्ड है।

    शायद मैं पिछड़ा ही हूं, कि मै स्पा में गया और एक युवा नारी से पैरों की मालिश नहीं करवाई | जहां मनुष्य का माप उसका पैसा है वहां पैसे का ही सम्मान होता है। आत्मसम्मान में तथा कोरे अहंकार में अंतर तो है ही।
    पैसे का स्थान धर्म अर्थात नैतिकता के के नीचे होना चाहिये ।.

    मेरे बच्चों ककी पढ़ाई इंग्लैण्ड में ही शुरु हुई और वायु सेना मेंहोने के तबादलों केकारन वायुसेना स्कूलों में। किन्तु घर में मै ने हमेशा हमेशा उनसे हिन्दी‌में‌ही बात की। आज मेरे बेटे की यूएस में अपनी कम्पनी है किन्तु वह ‘ hindi.usa’ संस्था का संचालन कर रहा है जो लगभग ४०० -५०० बच्चों को हिन्दी सिखाती है। मेरीबेटी Lawrence Univrsity, Kansas’में हिन्दी तथा वन्य जीवन पढ़ा रही है जब कि उसने नृ शास्त्र में पी एच डी की है।
    मेरे पौत्र पौत्रियां भी घर में हिन्दी बोलने का प्रयत्न करते हैं।

    यह ठीक है कि .एतिहासिक भौतिकवादी परिवर्तनों के साथ साथ मानवीय चिंतन में समानुपातिक फर्क सदैव होता रहा है किन्तु कुछ जीवन मूल्य यदि शाश्वत नहीं तो दीर्घकालीन अवश्य होते है। मैं इन जीवन मूल्यों की बात कर रहा हूं।

    और विस्तृत जानकारी के लिये कृपया मेरे संस्कृति और भाषा तथा जीवन पर लेख पढें।

    • आप के लेख, भारत की गुलामी, को लेकर मेरी प्रतिक्रिया पर आपकी पोस्ट ने मुझे असमंजस में डाल दिया है| एक तरफ आप हिंदी भाषा के महत्त्व को बताते लोंगों को अंग्रेजी की गुलामी करते देखते हैं और दूसरी ओर विदेशी भाषा द्वारा जीवन मूल्यों पर विदेशी प्रभाव का भय दिखा रहे हैं| आपने यह भी बताया है कि आपके बच्चे संयुक्त राष्ट्र अमरीका में रह रहे हैं| अमरीका में रहते यदि वे विदेशी संस्कृति से अछूते रह सकते हैं तो भारत में विदेशी भाषा और विदेशी संस्कृति का भय क्योंकर है? जब आप आज के बच्चे की बात करते हैं तो मेरा विचार है कि भारतीय चल-चित्र व धारावाहिक रूपक के प्रसारण द्वारा घर में बैठे उसकी नींव उसके उम्र में बढ़ने से पहले ही स्थापित हो जाती है और समय बीतने पर जीवन में अच्छे-बुरे का विचार कर अंत में अपने संस्कार-वश वह “घर लौट आता है|” मैं निस्संकोच कह सकता हूँ कि भारतीय संस्कृति उसकी प्रतीक्षा में बनी रहेगी|

      पंजाबी मेरी माँ-बोली है और लगभग चालीस वर्षों बाद हिंदी में लिखने का अवसर मिला है| सेवा-निवृति के पश्चात आज के विस्तृत हिंदी वेब पर कुछ पढ़-लिख लेता हूँ| मुझे आभास हो चला है कि मैंने भारत छोड़ दिया है लेकिन भारतीय संस्कार मुझे कभी नहीं छोड़ेंगे| मैं घर लौट आया हूँ|

      • प्रेम सिल्ही जी, आपने कहा ,”जब आप आज के बच्चे की बात करते हैं तो मेरा विचार है कि भारतीय चल-चित्र व धारावाहिक रूपक के प्रसारण द्वारा घर में बैठे उसकी नींव उसके उम्र में बढ़ने से पहले ही स्थापित हो जाती है ” आपकी यह बात गौरतलब है।
        यह भारतीय चल-चित्र व धारावाहिक रूपक, रंगीन माध्यम आदि ही तो उसकी नींव भ्रष्ट कर रहे हैं, और वे सफ़लतापूर्वक यह कर रहे हैं क्योंकि आज मातापिता ने यह मह्त्वपूर्ण कार्य या तो टीवी पर डाल दिया है या नौकरों पर। उऩ्होंने दादा आदि को घर बाहर कर दिया है। या आज के दादा दादी भी टीवी के गुलाम हो गए हैं।

        अपने बच्चों को मैने इसी अपसंस्कृति से बचाया और रामायण, महाभारत, गीता तथा उपनिषद वाली संस्कृति के बीज उनमें‌डाले, उऩ्हें ‘ध्यान’ करना बहुत पहले सिखाया। और अब मैं वहां जाकर अपने पौत्रों और नातियों में‌भी वही‌बीज डाल रहा हूं।
        यद्यपि मुझे बचपन में मेरे माता पिता ने प्रत्यक्ष रूप से यह सब नहीं सिखाया था किन्तु अपने आचरण से एक प्रतिमान प्रस्तुत् किया। वे पूजा आदि के अतिरिक्त रोज गीता पाठ किया करते थे । मां रामायण प्रेमी थीं उऩ्होंने अपने हाथ से एक रामायन की नकल लिखी थी। मेरी दादी ने पुराण और महाभारत की कहानियों से सबसे पहले बीज डाले थे। वैसे ही मातृभाषा प्रेम भी आ गया था। मेरे जीवन का मुख्य ध्येय पैसे कमाना नहीं रहा। सारा जीवन मैंने अंग्रेज़ी की गुलामी की, किन्तु मेरे संस्कार ही मुझे वापिस लाए । मेरे साथियों में से ऐसे बहुत ही कम निकले, किन्तु कुछ तो निकले ।
        आज की संतति में‌यह नींव ही नहीं दिख रही है। आज उनका मुख्य ध्येय ‘पैसा’ हो गया है और उस पैसे से भोग करना।

        क्या आज के भयंकर और बढ़ते हुए अपराध इसी‌बात की पुष्टि नहीं कर रहे हैं।
        आज कितने मातापिता अपने बच्चों में भारतीय संस्कार डाल रहे हैं?

        • आप ने बहुत ठीक कहा है| उम्र में बढ़ने से पहले बच्चों पर भारतीय चल-चित्र और धारावाहिक रूपक के प्रभाव पर कटाक्ष करते मैंने यह माना है कि वे केवल चरित्र हनन के माध्यम हैं लेकिन जाने क्यों मुझे विश्वास हो गया है कि भारतीय संस्कृति एक विशाल जल समूह है और उसे कुच्छ मछलियाँ गन्दा कदापि नहीं कर सकती| हरिद्वार के बाबा राम देव जी द्वारा स्थापित भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के उद्देश्यों से प्रभावित हो मेरा विश्वास और प्रबल हो गया है| आपके ज्ञानवर्धक विचारों के लिए आपका धन्यवाद|

  9. स्कूल में दूसरी कक्षा के एक बच्चे ने अध्यापक से दुःख-निवेदन किया कि कक्षा में अधिकाँश बच्चे उसे मोटा कह कर चिढाते हैं| अध्यापक ने इस बात को लेकर विद्यार्थिओं को शिष्टता पर एक लम्बा उपदेश दे डाला और उनसे अपेक्षा की कि कोई भी ऐसा कह कर उसे नहीं चिढ़ायेगा| कक्षा में अंतिम पंक्ति में बैठे एक शरारती बच्चे ने खड़ा हो अध्यापक से कहा “मैंने इसे कभी नहीं कहा मोटा|” इस पर कक्षा में बैठे सभी बच्चे खिलखिला कर हंस दिए| स्वतंत्रता के तिरेसठ वर्षों बाद मैं भी कहूँगा कि भौतिक अवस्था में भारत गुलाम है| लेकिन गुलामी अंग्रेजी के कारण कम, समस्त भारत में भ्रष्टाचार, अनैतिकता, और भारतीय जीवन के प्रत्येक वर्ग में मध्यमता के कारण अधिक है|

    आपने सोलह देशों का भ्रमण किया है| विलायत में यदि स्पा में गए होंगे तो अवश्य वहां एक युवा नारी से पैरों की मालिश भी करवाई होगी| पैरों की मालिश करती उस युवा नारी को गुलामी का कतई आभास नहीं हुआ होगा क्योंकि वह एक वैभवशाली देश की नागरिक है| और, अब मेरा अनुमान है कि इस समय आप आर. सिंह जी द्वारा पूछे प्रश्न पर विचार कर रहे होंगे| उत्तर स्पष्ट है| देश में व्यापक भोगवाद प्रचलन के तीव्र वेग को थामना इतना सरल नहीं है| अंग्रेजी किश्ती में सवार भंवर में सुख दुःख को झेलते एक दिन सभी “घर लौट आयेंगे|”

    आपके परिचय को पढ़ ऐसा प्रतीत होता है की आप भी विश्व दर्शन कर “घर लौट आए है|” संयुक्त राष्ट्र अमरीका में तीन दशक से रहते मैंने औसत भारतीय को जीवन के अनेक महत्वपूर्ण पहलूओं से गुज़रते अंत में मंदिर में संकीर्तन करते देखा है| पाश्चात्य सभ्यता को केंचुल की भाँती उतार भारतीय अपने संस्कारों के कारण उस अलौकिक सनातन संस्कृति में “लौट आता है” जहां वह कभी गुलाम नहीं है|

    • मैं निम्न दोनों बातों का समर्थन करता हूँ :-

      “गुलामी अंग्रेजी के कारण कम, समस्त भारत में भ्रष्टाचार, अनैतिकता, और भारतीय जीवन के प्रत्येक वर्ग में मध्यमता के कारण अधिक है|”

      “पाश्चात्य सभ्यता को केंचुल की भाँती उतार भारतीय अपने संस्कारों के कारण उस अलौकिक सनातन संस्कृति में “लौट आता है” जहां वह कभी गुलाम नहीं है|”

  10. आदरणीय
    विश्व मोहन जी .एतिहासिक भौतिकवादी परिवर्तनों के साथ साथ मानवीय चिंतन में समानुपातिक फर्क सदैव होता रहा है .यह अकाट्य सत्य है की आज़ादी के ६४ साल बाद भी हम न तो हिदी को उचित सम्मान दिला पाए और न सामंती दासबोध से निवृत हो पाए .ये दोनों तत्व भारत नामक देश की दुर्दशा के उद्घोषक हैं .जबकि अंग्रेजी .पाश्चात्य बाजारीकरण एवं नवजात प्रभुवर्ग का इंडिया नामक देश में नंगा नाच हो रहा है .आपके ह्रदय की वेदना से सृजितप्रस्तुत आलेख प्रासंगिक एवं विचारणीय है .

  11. Ek baat poochoo,booraa to nahi maanenge?Aapne apne bachon aur unke bachon ki taalim ke liye kis bhaasaa kaa chunaaw kiyaa hai?

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