इंदिरा गांधी की सियासत…………नीति या अनीति

 प्रो. ब्रह्मदीप अलुने

images (4)1965 में भारत पाकिस्तान की भीषण लड़ार्इ चल रही थी, तोपों के गोले सरहद पर गूँज रहे थे, और इन सबके बीच तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी श्रीनगर सीमा क्षेत्र में बेखौफ अपने काम को अंजाम दे रही थी । सेना की उन्हें दिल्ली वापस लौटने की सलाह को उन्होनें दरकिनार कर दिया, युद्धग्रस्त इलाकों में सैनिकों के बीच रहकर उनके मनोबल को ऊँचा किया और संवाद माध्यम से देश में ऐसा जज़्बा भरा कि पाकिस्तान की करारी पराजय हुर्इ।

अपने असाधारण फैसलों के लिए पहचाने जानें वाली इंदिरा गांधी अपने नफा-नुकसान का बेहतर मुल्यांकन करने में माहिर थी, यहीं कारण था की राजनीतिक धरातल पर गुंगी गुडि़या के रूप में अवतरित इंदिरा ने राजनीति की बिसात पर कर्इ स्वयंभू सिपहसालारों को मात दी थी । लंबे समय तक भारत की प्रधानमंत्री रहने वाली इंदिरा गांधी ने कभी आत्महित के लिए भिंडरावाले को उभारा तो राष्ट्रहित के लिए उसकी जान ले ली । अपनी पार्टी के राजनेता जब सिर चढ़कर बोले तो उन्हेंं पार्टी से बाहर फेंक दिया और विपक्षी जब हावी होने लगें तो आपातकाल लगाने का दुस्साहस पुर्ण फैसला कर दिया । राजा-महाराजा जब नेताओं जैसे पेश आने लगें तो उन्हें लोकतांत्रिक राष्ट्र का आम नागरिक बना दिया , न्यायालय के न्यायिक निर्णयों से संतप्त होकर संविधान को बदलने की हिमाकत भी की, पाकिस्तान के बढ़ते हौसलाें के जवाब में उसके दो टुकडे़ कर दिये और अमेरिकी चौधराहट को उंगली दिखाते हुए सोवियत संघ को अपना हमराह बना लिया ।

इंदिरा गांधी भारत की एक ऐसी नेता थी जिनके कार्यकाल में अनेक अभूतपूर्व राजनीतिक घटनाएं हुर्इ । इंदिरा हटाओं के नारे ने उन्हें सत्ता से बेदखल किया तो गरीबी हटाओं से वे वापस लौट आयी । तमाम विरोधाभासों के बावजूद वे ऐसी नेता के रूप में पहचान बनाने में कामयाब रही जिनका सतत नेतृत्व देश के लिए अपरिहार्य माना गया । जब-जब उनकी अपनी पार्टी के नेता और विरोधी स्वयंभू होने का प्रयास करते थे, इंदिरा जनता के बीच जाकर तालियों की गड़गड़ाहट से इसका जवाब देती थी । वे साहसी नेतृत्व कर्ता और राजनीति की एक कुशल रणनीतिकार थी । 1957 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी का कांग्रेस के उम्मीदवार चयन में गहरा दखल था और उम्मीदवारों की विजय ने इस बात के संकेत दे दिये थे कि आने वाला समय इंदिरा गांधी का है, इसका एहसास पंडित नेहरू को तो था ही ।

लाल बहादुर शास्त्री की अकस्मात मृत्यु के बाद भारतीय सियासत के सर्वोच्च पद पर आसीन होने वाली इंदिरा गांधी को देश के दबंग राजनीतिज्ञों से दो चार होना पड़ा, इसमें उनकी अपनी ही पार्टी के नेता भी थे । इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाते वक्त अनेक कांग्रेसी नेताओं को लगता था कि ये कठपुतली है और डोर हमें थामना है लेकिन मोरारजी देसार्इ, निजलिंगप्पा और कामराज को वार करने से पहले ही धराशायी होना पड़ा ।

1966 में अमेरिकी यात्रा में इंदिरा गांधी ने अपनी आक्रामक कूटनीतिक छवि का उदाहरण पेश किया और अपने पिता पंडित नेहरू की उदारवादी विदेश नीति को दरकिनार कर दिया । भारत में भुखमरी से जूझती जनता को राहत पहुँचाने का मंसूबा लियें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जब अमेरिका पहुँची तो अमेरिका ने भारत को लाखों टन गेहूँ और एक हजार मिलियन डालर की आर्थिक सहायता की पेशकश रखी बदले में भारत को अमेरिका के वियतनाम नीति को यथोचित ठहराना था । लेकिन इंदिरा कहां रूकने और झूकने वाली थी उन्होनें अमेरिकी जमीन पर अमेरिका की ऐसी भत्र्सना की कि दूनिया के कर्इ राजनीतिज्ञ दंग रह गए । अमेरिकी मदद को ठोकर मारकर उन्होनें सोवियत संघ को हाथ थामा, गुट निरपेक्षता के नाम पर राष्ट्रीय हितों की बलि की परंपरा को दरकिनार कर एक नया रास्ता चुना । यह दुस्साहस इंदिरा गांधी ही कर सकती थी ।

1967 के आम चुनाव में उड़ीसा की एक आमसभा में इंदिरा गांधी पर पत्थर बरसायें गयें, उनकी नाक की हडडी टुट गयी लेकिन यह मजबूत महिला दुर्गा का रूप बनकर विजय श्री को धारण करती रहीं । इंदिरा गांधी के राजनीतिक कौशल की पराकाष्ठा 1971 के पाकिस्तान से युद्ध में देखने को मिली । 3 दिसम्बर 1971 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कलकत्ता के एक विशाल मैदान में भाषण दे रही थी और उसी समय उन्हें खबर मिली की अचानक पाकिस्तानी विमानों ने उत्तर में श्रीनगर से लेकर दक्षिण में उत्तरलार्इ के सीमा के आधे दर्जन हवार्इ अडडों पर एक साथ हमला किया है । हवार्इ हमलों की चेतावनी समस्त उत्तर भारत के नगरों-कस्बों में गूँज उठी । 3दिसम्बर की चांदनी रात पाकिस्तान के इतिहास की सबसे अंधरी रात बन गयी । दृढ़ निश्चयी इंदिरा गांधी की मजबूत कूटनीतिक, रणनीतिक और राजनीतिक जुगलबंदी ने पाकिस्तानी शासकों के सभी मंसूबों पर पानी फेर दिया और एक हजार वर्ष तक भारत से लड़ते रहने का दम भरने वाले पाकिस्तानी 14 दिनों में ही युद्धक्षेत्र से भाग खड़े हुए । अमेरिका और चीन को धता बताते हुए पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दुश्मन देश के तिरानवें हजार सैनिकों को बंदी बनाकर पूरी दुनिया में भारत की ताकत का एहसास कराने का श्रेय इस महान नेता को जाता है ।

एक प्रधानमंत्री के रूप में विभिन्न चुनौतियों से मुकाबला करने में इंदिरा गांधी ने महारथ हासिल कर ली थी । बैंको का राष्ट्रीयकरण हो या राजा-महाराजाओं को विशेष अधिकार , इंदिरा गांधी ने कभी भी अपने इरादों को कमजोर नहीं होने दिया ।

उनके कार्यकाल में 26 जून 1975 को लागू आपातकाल ने इस महान नेता को तानाशाह बना दिया । बांग्लादेश युद्ध के बाद देश में जो उनकी सर्वमान्य छवि बन गर्इ थी वह तार-तार हो गर्इ । जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसार्इ और अटलबिहारी वाजपेयी जैसे लोकप्रिय नेताओं को जेल में डालने के राजनीतिक फैसले ने लोकतंत्र पर कालिख पोत दी । आपातकाल आतंक के रूप में राजनीतिज्ञों पर हावी हो गया । मीडिया पर सेंसरशिप ने आग में घी का काम किया । यहां पर इंदिरा गांधी लोकतंत्र की नब्ज को नही पकड़ सकी और अंतत: आम चुनावों में देश की जनता के जवाब ने उन्हें यह एहसास करा दिया कि लोकतंत्र में जनता ही जनार्दन हो सकती है।

आम चुनाव में मात खाकर इंदिरा गांधी सदमें में थी तो उन्हें आत्मावलोकन का मौका भी मिला । 1980 में कर्इ राज्यों के चुनावों में इंदिरा गांधी ने आपातकाल के प्रति अपनी शर्मिंदगी का एहसास लोगों के सामने किया तो जनता ने पुन: गले लगा लिया और 22 राज्यों में से तकरीबन 15 राज्यों में कांग्रेस को अभूतपूर्व सफलता मिली । इसके बाद इंदिरा गांधी लोकसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत के साथ वापस लौटी और पुन: अपने दुस्साहसिक फैसलों में मशगूल हो गयी । पंजाब समस्या के समाधान के लिए उनके प्रयास और आपरेशन ब्लू स्टार ने उनकी आतंकवाद के प्रति मजबूत राजनीतिक इच्छा शकित को उभारा । स्वर्ण मंदिर में घुसकर आतंकवादियों को मारने का राजनीतिक निर्णय एक महान निर्णय था । तथाकथित राजनीतिक पार्टीयां भले ही अपने क्षुद्र स्वार्थो के लिए इंदिरा गांधी के इस फैसले की आलोचना करती हो लेकिन आतंकवाद के खात्में और राष्ट्रहित के लिए उनका ये निर्णय स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगा । सिक्खों की दिलेरी को सलाम करने वाली एवं उनपर सबसे ज्यादा भरोसा करने वाली इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक एवं निजी नफे-नुकसान से अलग आतंक को जवाब दिया था । सिक्खाें में स्वर्ण मंदिर में सैनिक कार्रवार्इ के बाद नाराजगी से उपजे हालातों के बीच इंदिरा गांधी ने अपने सलाहकारों की सिक्ख अंगरक्षकों को हटाने की सलाह उन्होंने नजरअंदाज कर यह बताया था कि राष्ट्रहित में किसी एक जाति या धर्म का योगदान नही हो सकता,उन्हें अपने देशवासियों पर पूरा भरोसा है । हालांकि धर्म के नाम पर अफीम का नशा देने वाले कामयाब हो गए और 31 अक्टुबर 1984 को इस महान नेता को अपने सिक्ख अंगरक्षकों की गोली का शिकार होना पड़ा । लेकिन आतंक के खिलाफ शहीद हुर्इ इस महान नेता के जज़्बे को राष्ट्र सदैव सलाम करता रहेगा । अपने राजनीतिक जीवन में तमाम विवादों एवं असामान्य निर्णयों के बावजूद आज भी वे भारत की सबसे लोकप्रिय नेता है ।

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  1. “स्वर्ण मंदिर में घुसकर आतंकवादियों को मारने का राजनीतिक निर्णय एक महान निर्णय था । तथाकथित राजनीतिक पार्टीयां भले ही अपने क्षुद्र स्वार्थो के लिए इंदिरा गांधी के इस फैसले की आलोचना करती हो लेकिन आतंकवाद के खात्में और राष्ट्रहित के लिए उनका ये निर्णय स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगा ।”…………..”अपने राजनीतिक जीवन में तमाम विवादों एवं असामान्य निर्णयों के बावजूद आज भी वे भारत की सबसे लोकप्रिय नेता है ।”

    शानदार आलेखन! साधुवाद!
    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

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