औद्योगिक समवाय और भू-अधिग्रहण

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(एक) जीवित पूंजी
बडे औद्योगिक समवाय जब (कॉर्पोरेशन) स्थापित होते हैं। तो, अनेक छोटे निवेशक भी शेर खरिदकर उस  संयुक्त पूंजी में, अपना आंशिक धन  (शेर) लगाकर पूंजी की उत्पादन क्षमता बढा देते हैं।
(दो) मृत पूंजी का प्रमाण
दूसरी ओर, आप (हम) सोना-चांदी-हीरे इत्यादि खरिद कर रख लेने से पूंजी उत्पादन से जुडती नहीं है। पूंजी **मृत पूंजी** बन जाती है; क्यों कि ऐसी पूंजी अनुत्पादक होती है।
जब बडे उद्योग विकसित होते हैं, तो अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए, धनिक और सामान्य प्रजा भी  अतिरिक्त पूंजी का निवेश करती है। ऐसा करने से मृत पूंजी का प्रमाण घट जाता है; और जीवित उत्पादक पूंजी का प्रमाण बढ जाता है।
(तीन) अधिक काम अधिक विकास
ऐसी जीवित पूंजी से बडे पैमाने पर  माल सामान का उत्पादन होता है।
एक ओर हजारों प्रजाजनों की  काम में  नियुक्ति होती है। और दूसरी ओर उत्पादों  की निर्यात होकर देश को मुद्रा लाभ होता है।
(चार) व्यापारी निर्यात से समृद्धि।
किसी राष्ट्र की समृद्धि मापने का एक निश्चित माप दण्ड, या सूचकांक (Index) है, व्यापारी निर्यात। अर्थात प्रतिवर्ष कितना माल सामान निर्यात किया जाता है, यह।
(पाँच) निर्यात के ३ क्षेत्र
यह निर्यात ३ क्षेत्रों में हो सकती है।
(१) प्राकृतिक कच्चे माल की।
(२) शासन उत्पादित माल की।
(३) प्रजा द्वारा उत्पादित माल की।
(१) प्राकृतिक सामग्री की निर्यात: खनिज, कच्चा लोहा, कोयला, चमडां इत्यादि। इस निर्यात से जो समृद्धि आती है, उसे आप प्राकृतिक समृद्धि कह सकते हैं। इस समृद्धि को मानव उपार्जित (निर्मित) समृद्धि कहा नहीं जा सकता।
ऐसी समृद्धि स्थायी भी नहीं हुआ करती। इससे प्रजा के साहस (Venture) को पोषक या प्रोत्साहक भी होती नहीं है।
(२) दूसरी निर्यात शासन-उत्पादित
दूसरी निर्यात शासन-उत्पादित वस्तुओं की हो सकती है। जहाँ शासन अपने उत्पाद पैदा करता हो।
(क) पहले अपनी प्रजा की आवश्यकताओं की आपूर्ति और अतिरिक्त उत्पादों की निर्यात।
(ख) प्रजा की आवश्यकताओं को दबाकर परदेशी मुद्रा प्राप्त करने के लिए निर्यात।
इसमे पहला (क) प्रकार अच्छा कहाया जाएगा।
(ख) के कारण प्रजा अपनी आवश्यकताओं पर अंकुश रख, अभाव के कारण पीडा अनुभव करती है।
उद्योग और व्यापार जब अधिकतर शासन ही स्वयं के हाथ में रख ले, तो, प्रायः यही अनुभव होता है।
(३)प्रजा उत्पादित वस्तुओं की निर्यात ही  समृद्धिका वास्तविक केंद्र यही है।
निर्यात का यह तीसरा रूप है, प्रजा उत्पादित वस्तुओं की निर्यात। समृद्धिका वास्तविक केंद्र यही है।
इसके भी दो अंग होते हैं।
(पहला) बडी बडी औद्योगिक संस्थाओं द्वारा उत्पादन।
(दूसरा) गृह उद्योगों द्वारा उत्पादन

इन दोनों का ही बडा महत्त्व है।
गृह उद्योगों को बडे उद्योगों के कारण मार न दिया जाए। पर बडे उद्योग और गृह उद्योग एक दूसरे के पूरक होने चाहिए। बडे उद्योग जैसे कि कार-यान के पुर्जे बनाने वाले छोटे उद्योग माने जा सकते हैं। छोटी छोटी वस्तुएँ जो बडे उद्योगों की आवश्यकता होगी, उसका जाल आप ही आप बडे उद्योगों को केंद्र बनाकर विकसित हो जाता है।
ऐसी निर्यात परदेशों की माँग पर ही अवलम्बित होती है, आधार रखती है। अर्थात परदेश से हमें मुद्रा प्राप्त होने की संभावना खडी करती है।
साथ ऐसा माल सामान उसकी गुणवत्ता पर ही माँग बढाता है।
दोष पूर्ण खराब  माल अपने आप देश को हानि पहुंचाता है।
(छः)जापान का उदाहरण
जापान ने पूरक उद्योगों के साथ साथ बडे उद्योग जोड कर विकसित किए हैं।
और जापान खाद्यान्न में हमेशा ५६% की आयात पर जीवित है। यह उसकी ऐतिहासिक विवशता है। क्यों कि, उसकी ७३% भूमि परबतों से व्याप्त है। उसे खेती भी पर्बतों के उतारों पर कडे परिश्रम से करनी पडती है।
पर जापान अपने माल को ऐसी उच्चतम  कक्षा का बनाता है, जिस से उसका नाम संसार में माना जाता है। उसकी उत्पादन क्षमता के विषय में पहले लिख चुका हूँ। एक कार जापान ९ मानव-दिनों में बनाता है। शेष देशों का औसत है ४५ मानव दिन। और उच्चतम कक्षा की कार भी होती है, जो सालों साल बिना बिगडे चलती भी है।
पर भूमि अधिग्रहण बिना ऐसी समृद्धि संभव  नहीं।
जिस प्रकार से भूमि की कीमत साणंद के आस पास बढ चुकी है, उसका कारण भूमि का अन्नोत्पादन नहीं है; पर उसका औद्योगिक समवायों का परदेशी मुद्रा की संभावना का कारण है। {इस आलेख के लिए जानकार की, सहायता ली गयी है।}

-डॉ. मधुसूदन

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