मंहगाई का वर्चुअल और वास्तव संसार

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

कल जिस समय पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा प्रेस को सम्बोधित करके डीजल-पेट्रोल और केरोसीन के नए दामों में वृद्धि की सूचना दे रहे थे तो एक साथ कई काम कर रहे थे। उन्होंने पहला काम यह किया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को झूठा साबित कर दिया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की विश्वसनीयता खत्म कर दी।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लगातार ऐसे काम कर रहे हैं जिसके कारण वे असत्य की साक्षात प्रतिमा बनकर रह गए हैं। मंहगाई के सवाल पर संसद के विगत अधिवेशन में प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री दोनों ने ही यह वायदा किया था कि जुलाई तक मंहगाई कम होने लगेगी। ‘यूपीए 2 ’ आने के बाद वे हमेशा यही कहते रहे हैं कि मंहगाई कुछ महीनों में कम हो जाएगी लेकिन मंहगाई बढ़ती जा रही है। पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में मौजूदा बढ़ोत्तरी के बाद और इन्हें बाजार के रहमोकरम पर छोड़ने के बाद तो मंहगाई अब कभी कम नहीं होगी। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को संसद और संसद के बाहर आम जनता में घेरा जाना चाहिए और इसके खिलाफ विपक्ष को सभी विचारधारात्मक मतभेदों को भुलाकर संघर्ष करना चाहिए।

पेट्रोलियम पदार्थों में की गई मौजूदा बढ़ोत्तरी और आम तौर पर मंहगाई के खिलाफ आम जनता अभी तक गोलबंद होकर प्रतिवाद करती नजर नहीं आ रही है। यूपीए सरकार को एक साल हो गया लेकिन मंहगाई के खिलाफ जितना प्रतिवाद होना चाहिए था वह नहीं हो रहा है। क्या वजह है कि मंहगाई के खिलाफ जनता के तमतमाए चेहरे मीडिया और आम जीवन से गायब हैं? मंहगाई को मनमोहन सरकार हाशिए पर डालने में सफल क्यों

रही है? अन्य महत्वपूर्ण राष्ट्रीय समस्याओ पर भी आम लोगों में जिस तरह की तेज प्रतिक्रिया होनी चाहिए वह दिखाई क्यों नहीं देती? आखिरकार मंहगाई को वर्चुअल बनाने में केन्द्र सरकार कैसे सफल रही है? इत्यादि सवालों के हमें समाधान खोजने चाहिए।

एक जमाना था हम समाज, राजनीति, संस्कृति आदि में कुछ भी होता था आपस में बातें करते थे, मिलते थे, राजनीतिक कार्यकर्ता मिलते थे, लोगों से बातें करते थे। आम लोगों में राजनीतिक विचारों के आदान-प्रदान का वातावरण था। विभिन्न राजनीतिक दलों खासकर विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं में राजनीतिक उत्तेजना का भाव हुआ करता था और उसके गर्मागर्म राजनीतिक तर्क हुआ करते थे।

माकपा, भाकपा, भाजपा, सोशलिस्ट पार्टी, संघ परिवार के लोगों में गली-मुहल्लों में बहसें हुआ करती थीं एक राजनीतिक संस्कृति थी जिसको हमने दिल्ली, यू.पी और पश्चिम बंगाल में अपनी आंखों से देखा है। सन् 1994-95 के बाद से राजनीतिक संवाद की संस्कृति हठात आम जीवन से चुपचाप नदारत हो गयी और उसकी जगह टेलीविजन केन्द्रित राजनीतिक विमर्श आ गया।

टेलीविजन केन्द्रित विमर्श ही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से हमने आपस में बातें करना बंद कर दिया और टीवी विमर्श को जनता का विमर्श मान लिया। मूल रूप से टीवी विमर्श ने जनता के राजनीतिक विमर्श को अपहृत किया है, जनता को गूंगा और बहरा बनाया है। गली-मुहल्ले के आपसी संपर्क-संबंधों को नष्ट किया है। हमें राजनीति का दर्शक बनाया है, उपभोक्ता बनाया है। राजनीति का नागरिक जब उपभोक्ता बन जाएगा तो वह हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं होगा। हमारे राजनीतिक दलों को इस स्थिति को बदलने की कोशिश करनी चाहिए।

दूसरा फिनोमिना यह देखने में आया है कि परवर्ती पूंजीवाद ने सामाजिक अलगाव को नई बुलंदियों तक पहुँचा दिया है। मनुष्य को पूरी तरह वस्तु बना दिया है। मनुष्य के वस्तुकरण को आप तब ही रोक सकते हैं जब आप मनुष्य के साथ वास्तव संपर्क-संबंध में हों। अब हमारे संपर्क -संबंध का आधार तकनीक है। संचार तकनीक के रूपों के सहारे हम जुड़ते हैं.यह वास्तव जुड़ना नहीं है। वर्चुअल जुड़ना है और वर्चुअल संबंध है। इसके कारण जीवन के यथार्थ के साथ हमारा संबंध वास्तविक आधारों पर नहीं वर्चुअल आधारों पर बन रहा है।

यथार्थ से हमारी दूरी बढ़ी है। आज हम यथार्थ से प्रभावित तो होते हैं लेकिन उसे स्पर्श नहीं कर सकते, बदल नहीं सकते। अपदस्थ नहीं कर सकते। क्योंकि वास्तव जीवन में हम अलगाव में रहते हैं। अलगाव में रहकर मंहगाई जैसी ठोस वास्तविक समस्या पर लोगों को गोलबंद करना बेहद मुश्किल काम है।

मंहगाई वास्तविकता है लेकिन जनता से राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं का अलगाव इससे भी बड़ी वास्तविकता है। यही वजह है कि मंहगाई के मसले पर प्रधानमंत्री-वित्तमंत्री के अहर्निश झूठ बोलने के कारण उनके खिलाफ जनता की तरफ से जबर्दस्त प्रतिवाद नजर नहीं आ रहा है। इससे राजनीति मात्र की सामूहिक विश्वसनीयता खतरे में पड़ गयी है।

अब मंहगाई महज सूचना बनकर आती है। उसका कोई विश्लेषण हमारे मीडिया में नजर नहीं आता। मंत्री ने बोला हमने सुना। नए मीडिया वातावरण में अब प्रत्येक वस्तु,विचार, राजनीति, धर्म, दर्शन, नेता आदि सब कुछ को सूचना या खबर में तब्दील कर दिया गया है।

अब हर चीज खबर है। जब हर चीज सूचना या खबर होगी तो वह सिर्फ व्यंजित होगी। वास्तव में रूपान्तरित नहीं होगी। सूचना या खबर जब तक अतिक्रमण नहीं करती तब तक वह निष्क्रिय रहती है। आप उसे सिर्फ सुनते हैं।

यही वजह है कि चीजें हम सुनते हैं और सक्रिय नहीं होते। जब हर चीज खबर या सूचना होगी तो वह जितनी जल्दी आएगी उतनी ही जल्दी गायब भी हो जाएगी। कल लाइव टेलीकास्ट में पेट्रोलियम पदार्थों में वृद्धि की खबर आयी और साथ ही साथ हवा हो गयी। सूचना का इस तरह आना और जाना इस बात का संकेत भी है कि सूचना का सामाजिक रिश्ता नहीं होता। सूचना का सामाजिक बंधनरहित यही वह रूप है जो मनमोहन सिंह सरकार को बल पहुँचा रहा है। मंहगाई के बढ़ने के बाबजूद कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों पर कोई राजनीतिक असर नहीं हो रहा।

हर चीज के खबर या सूचना में तब्दील हो जाने और सूचना के रूपान्तरित न हो पाने के कारण ही आम जनता में आलोचनात्मक जनता का भी क्षय हुआ है। एक खास किस्म की पस्ती, उदासी, अन्यमनस्कता, बेबफाई, अविश्वास,संशय आदि में इजाफा हुआ है।

सूचना या खबर अब हर चीज को हजम करती जा रही है । उसमें भूल, स्कैण्डल, विवाद, पंगे आदि प्रत्येक चीज समाती चली जा रही है। उसमें सभी किस्म की असहमतियां और कचरा भी समाता जा रहा है और फिर री-साइकिल होकर सामने आ रहा है। इससे अस्थिरता, हिंसा, कामुकता, सामाजिक तनाव, विखंडन, भूलें आदि बढ़ रही हैं।

इस प्रक्रिया में हम ऑब्जेक्टलेस हो गए हैं। हमारे अंदर नकारात्मक शौक बढ़ते जा रहे हैं। इनडिफरेंस बढ़ा है। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां पर हमें ठंडे दिमाग से इस समूचे चक्रव्यूह को तोड़ने के बारे में सोचना चाहिए।

4 COMMENTS

  1. sahi kaha apane,par mere shahr me to aj bhi bahas hoti he,par sirf congress v bhajpa valo ke bich.sangh ya communist nahi bhag lete bahas me,sangh valo ke pas bahs ki fursat hi nahi he unaka khud ka kam etana jyada he,or communist bechare he hi nahi kahi.

  2. In those time we also talked about decadent bourjuaji culture and faught against them, forces of social change were active .Now in the era of globalization these forces become existantialist,so they need all the apparatus including media to survive Infact forces of socialism lost confidence,hence THERE IS NO ALTERNATIVE fenomenon working.The cpitalists succeeded in deviding working class,with some geting social protection and they are leading the movement in all political parties including left.Everybody wants MNC’s investment with imperialist agenda of development to make slave to provide cheap ration but not right .How could we expact both corporate loot at par with social welfare.I think it is high time to demand social controle over production distribution& consumption then only,masses will be mobilised.Formal protest without alternative polcies & on question of good governance not work any more.

  3. महंगाई के मुद्दा न बनने का चतुर्वेदी जी ने सार्थक और गहरा विश्लेषण किया है. एक शरारत और भी चल रही है .
    लोगों का ध्यान बटाने, वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए गैरजरूरी,बेकार के मुद्दों को उछाला जाता है, . चरित्रहीन चरित्रों का महिमामंडन ,सेक्स, पोर्न, क्रिकेट जैसे अनेक विषय हैं जिनमे उलझाकर हमें उल्लू बनायाजाता है. हमारी मानसिक ऊर्जा को भटकाने का एक सुनियोजित और सफल प्रयास चल रहा है . अन्यथा भुखमरी की हद तक महंगाई बढ़ जाने पर कोई बड़ा आन्दोलन होता, सरकार खतरे में पड़ती. पर कुछ भी तो नहीं हुआ. यानी हमें निष्क्रिय , निस्तेज, संवेदना रहित बनाने के प्रयास सफल हो रहे हैं.
    होने देना है यह सब ?

  4. महंगाई बढ़ी नहीं है बढवायी गई है. पेट्रोल की कीमते ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स नहीं बल्कि अमेरिका तय कर रहा है. पेट्रोलियम पदार्थ जितने महंगे होंगे उतना ही हमारे देश अमेरिका का कचरा (लाखो करोड़ का परमाणु संयंत्र) खरीदने में जल्दी दिखायेगा. सर्कार बाहरी शक्तिओं की कठपुतली बन चुकी है.

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