पहल में ही ‘हल’ छिपा होता है

चैतन्य प्रकाश

क्या आपने कभी छलांग भरी है? गङ्ढे, खाई, नाले, दीवार से या यों ही मैदान में छलांग भरते हुए चलना वाकई एक रोमांचक अनुभव होता है। कुलांचे भरते हुए हिरणों के बच्चे कितने आकर्षक लगते हैं। छोटे बच्चे का पांव उठाकर चलना स्वावलंबन और संतुष्टि के एकात्म अनुभव की प्राथमिक मिसाल है। सचमुच जीवन में ‘पहल’ के साथ अनिवार्यत: जोखिम जुड़ा होने के बावजूद नस-नस को स्पंदित करने वाला आनंद भी अनुभव होता है। पहल एक रोमांचक, रोचक एवं मार्मिक अनुभूति का स्रोत है।

अभी एक मित्र ने बताया-”पहल में ही ‘हल’ छिपा होता है।” वास्तव में समस्या तब तक है जब तक समाधान की ओर पहल न की जाये। समाधान की ओर उठा हर कदम समाधान का ही हिस्सा होता है। कहना होगा कि दुनिया की सारी समस्याएं ‘पहल’ के अभाव की सूचना देती हैं। भगवान महावीर का प्रसिद्ध कथन है-’जो चल पड़ा, वह पहुंच गया।’ मनुष्य जाति की समूची विकास-यात्रा पहल और प्रयोगों का जीवंत दस्तावेज है। वे चाहें वैज्ञानिक अविष्कार हों या आध्यात्मिक उपलब्धियां, जीवन सदा पहल करने वाले की झोली भरता रहा है।

बरसों पहले न्यूटन ने गति के नियमों का प्रतिपादन करते हुए पहला नियम दिया था- ”जो वस्तु जिस अवस्था में है, उसी अवस्था में रहती है, यदि उस पर कोई बाह्यबल न लगाया जाये।” इस नियम को जड़त्व का नियम (Law of lnertia) कहा गया। यह नियम निर्जीव जड़ जगत पर लागू होता रहा, यद्यपि बाद के अनुसंधानों में यह जाहिर होता गया कि जड़ पदार्थों के भीतर भी दिन-रात हलचल होती रहती है। मनुष्य भी जड़त्त्व को जीता रहा, उसे जगाने के लिए सदैव बाह्यबल (प्रेरणा) की जरूरत पड़ती रही। यह दीगर बात है कि सामान्यत: समय-समय पर इस नियम को तोड़ने वाले युग-पुरुष आते रहे, वे अपने व्यक्तिगत, सार्वजनिक जीवन में पहल और प्रयोगों के द्वारा दुनिया को जड़ता की नींद से जगाने की भरपूर कोशिश करते रहे।

कबीर ने इस स्थिति को इस तरह कहा है-

”सुखिया सब संसार है

जो खावे और सोवे

दुखिया दास कबीर है

जो जागे और रोवे”

 

एक शायर ने उर्दू में लिखा-

”मत पूछ हालचाल मेरे कारोबार का आइने बेचता हूं अंधो के शहर में” जाहिर है पहल और प्रयोग का मार्ग कष्ट और दुख की अनिवार्यता से भरा है। मगर यह दुख सुख से सौ गुना अधिक मूल्यवान है।

कबीर ललकार कर कहते हैं-

”जा सुख घर आपने,

मैं जानूं और दुख।’

वस्तुत: मनुष्य की विशेषता यह है कि वह असीम सृजनात्मकता से भरा है। सृजनात्मकता और संतुष्टि दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। संतुष्टि में आनंद समाया है। इतिहास साक्षी है कि पहल और प्रयोगों में लगे लोग जान जोखिम में डालने से भी पीछे नहीं हटते। सृजन की संतुष्टि से उपजने वाला आनंद व्यक्ति को न केवल कष्ट सहने की शक्ति देता है, बल्कि असीम ऊर्जा से भी भर देता है। सारी मनुष्य जाति का इतिहास पहल और प्रयोग करने वालों के नामों और कामों की फेहरिस्त मात्र है। जड़ता को चुनौती देकर अपने भीतर की सृजनात्मकता का आह्वान पहल और प्रयोगों को जन्म देता है।

सृष्टि में अनंत नूतनता है और मनुष्य में पड़ताल की अनंत क्षमता है। अमेरिकी चिंतक आल्विन टाफ्लर ने ‘क्रिएटिंग ए न्यू सिविलाइजेशन’ में लिखा है-”हम न केवल परिवर्तन की ओर हैं बल्कि नई प्रवृत्तियों की संरचना की प्रक्रिया से भी गुजर रहे हैं” फ्रत्जाफ कापरा ने ‘दिताओं आफ फिजिक्सं’ में कहा है-”पावन युग शुरू हो चुका है। शीघ्र ही बिल्कुल ही एक नवयुग, एक लौकिक-वैश्विक रवैये के साथ प्रकट होने वाला है।”

आधी सदी से भी पहले पितरिम सोरोकिन नामक विचारक ने कहा था- ”जब तक मानव इतिहास रचनात्मक रहेगा, जैसा कि अभी तक विभिन्न युगों होता रहा है, मनुष्य की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति और उसके औद्योगिक, शहरी तथा तकनीकी तौर पर उन्नत समाजों के बारे में कोई वैज्ञानिक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। क्योंकि रचनात्मकता की प्रक्रिया का अर्थ ही यही है कि पहले से कुछ अनदेखा, कुछ अनजाना, कुछ अप्रत्याशित होने जा रहा है।”

संभावनाएं अनंतानंत हैं। सभी प्रकार की कोशिशों और कामयाबियों का वरदान मानो मनुष्य को मिला है। व्यक्ति अपने जीवन से लेकर समूह, समुदाय, समाज और राष्ट्र के जीवन में परिवर्तन का न केवल स्वप्न देखता है, बल्कि अपने ही प्रयत्नों से उसे साकार भी कर पाता है। अंग्रेजी में एक कहावत है Charity begins at home. अर्थात् दान की शुरुआत अपने घर से होती है। इसी तरह परिवर्तन के बारे में यह बात सत्य है कि परिवर्तन स्वयं से शुरू होता है। इसे ही पहल कहा जाता है। भारत में परिवर्तन की जरूरत को समझने के लिए निम्न दो विचारांशों पर गौर करना उपयोगी है। छह अगस्त 1925 को गांधीजी ने ‘यंग इंडिया’ में लिखा था-

”स्वराज्य का अर्थ है सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए लगातार प्रयत्न करना, फिर वह नियंत्रण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का। यदि स्वराज्य हो जाने पर लोग अपने जीवन की हर छोटी बात के नियमन के लिए सरकार का मुंह ताकना शुरू कर दें, तो वह स्वराज्य-सरकार किसी काम की नहीं होगी।”

फिर 26 मार्च 1931 को उन्होंने लिखा- ”मेरे सपने का स्वराज्य तो गरीबों का स्वराज्य होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं, वही तुम्हें भी सुलभ होनी चाहिए; इसमें फर्क के लिए स्थान नहीं हो सकता। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हमारे पास उनके जैसे महल होने चाहिये। सुखी जीवन के लिए महलों की कोई आवश्यकता नहीं। हमें महलों में रख दिया जाये तो हम घबड़ा जायें। लेकिन तुम्हें जीवन की वे सामान्य सुविधाएं अवश्य मिलनी चाहिए, जिनका उपयोग अमीर आदमी करता है। मुझे इस बात में बिलकुल भी सन्देह नहीं है कि हमारा स्वराज्य तब तक पूर्ण स्वराज्य नहीं होगा, जब तक वह तुम्हें ये सारी सुविधाएं देने की पूरी व्यवस्था नहीं कर देता।”

ये दोनों विचारांश आजादी से पहले के भारत की स्थिति से उपजे हैं, पर आज भी प्रासंगिक मालूम पड़ते हैं। सरकाराश्रित व्यक्ति एवं समाज-जीवन की त्रासदी को जीते हुए देश के रूप में हम कितने बेहाल हैं, शायद हर भारतीय इसे भली-भांति महसूस कर पाता है।

व्यक्ति और समाज जीवन की उन्नति के लिए जड़ता को तोड़ना होगा, निद्रा से जागना होगा, तब ही शायद असली स्वराज्य का सपना साकार होगा और संतुष्टि का आनंद भी सर्वत्र उत्पन्न हो सकेगा। इस आनंद की अनुभूति का उत्स छलांग में, कदम उठाकर बढ़ने में है, पहल में हैं, प्रयोग में है। आइये पहल और प्रयोगों के माध्यम से परिवर्तन की प्रक्रिया का हिस्सा बनें, एक सकारात्मक चेतना के रूप में विकसित होने के अहसास से लबालब होने का यह विनम्र निमंत्रण है। शुभास्ते पंथाना: संतु।

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