मासूम बचपन का शोषण एवं उत्पीडन

अभी चंद दिन पहले दिल्ली के लगभग सभी अखबारों में यह दुखद खबर छपी कि एक पंद्रह वर्षीय छात्र, शुभम जिंदल जो कृष्णा मॉडल स्कूल में नवीं कक्षा में पढ़ते थे, को उसी के दो सहपाठियों ने लकड़ी के एक मजबूत डंडे से सिर पर लगातार वार करते हुए पहले बुरी तरह घायल क्या और बाद में जब उसकी नाक और सिर से बुरी तरह खून बहने लगा तो उसे छोड़ रफा-दफा हो गए, यहां तक ​​कि उसका निधन हो गया। शुभम चूंकि पढ़ने में तेज़ था इसलिए उसके साथी इससे ईर्ष्या रखते थे और विभिन्न बहानों से उसके साथ छेड़ छाड़ और लड़ाई झगड़ा करते थे। खबर अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है इसके बावजूद इस तरह की खबरें आए दिन सामने आती रहती हैं। वहीं दूसरी ओर छोटे बच्चे खुद भी ज़ुल्म व ज्यादतियों का शिकार होते हैं। खास तौर पर समाज के उस प्रभावशाली वर्ग से जिसकी ज़िम्मेदारी है कि वह मासूम बचपन की न केवल रक्षा करे बल्कि बेहतर शिक्षा और प्रशिक्षण का प्रावधान भी करें। एक ऐसी शिक्षा और प्रशिक्षण की प्रणाली जिसमें में बच्चों की छुपी क्षमताओं के विकास के साथ नैतिक प्रशिक्षण की भी भरपूर व्यवस्था हो।

Year           Cases
2010           5,483
2014          13, 766
पिछले पांच सालों में भारत में बच्चियों के साथ दुर्व्यवहार के मामले 151 प्रतिशत बढ़े हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के डेटा की रोशनी में 2010 में सूचीबद्ध 5,484 मामले बढ़कर 2014 में 13,766 हो चुके हैं। वहीं बच्चों के शोषण के मामले देश भर में 8,904 सूचीबद्ध किए गए हैं। एन.सी.आर.बी. की रौशनी में इंडियन पीनल कोड की धारा 354 के तहत बच्चियों के साथ छेड़ छाड़ और बलात्कार के इरादे से किए गए हमले की घटनाएं 11,335 दर्ज की गई हैं। जिससे अंदाज़ा होता है कि कम उम्र के बच्चों के साथ विभिन्न प्रकार के शोषण मामलों में वृद्धि हो रही है। पिछले चार वर्षों में बच्चियों के साथ ज़ियादतियों में वृद्धि के आम तौर पर दो कारण बताए जाते हैं। i) खौफ, डर और बदनामी की वजह से पहले मामले दर्ज नही करवाए जाते थे और ii) नए कानून का कार्यान्वयन। इस पृष्ठभूमि में सवाल यह उठता है कि अपराध जो बच्चों के साथ या बच्चों द्वारा अंजाम दिए जा रहे हैं उसकी बुनयादी वजह किआ है? सवाल हालांकि बच्चों के अंतर्गत आता है फिर भी सवाल के दो अलग-अलग पहलू हैं, जिनका यदि ध्यानपूर्वक अध्ययन न किया गया तो परिणाम तक पहुंचना चुनौतीपूर्ण होगा। फ़िलहाल हम बच्चों द्वारा अंजाम दिए जाने वाले अपराधों का जिक्र करेंगे साथ ही उन कारणों को भी जानने की कोशिश करेंगे जिनकी वजह से यह अपराध अंजाम दिए जाते हैं।

भारत में शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के बावजूद लगभग एक करोड़ बच्चे मजदूर हैं जिन का जीवन शोषण पर आधारित है। साथ ही देश के सभी शहरों में बड़ी संख्या में सड़कों पर असहाय जीवनयापन करने वाले बच्चे बच्चियां मौजूद हैं  जिन्हें भीख मांगने के पेशे से आधिकारिक जोड़ा जाता है। वहीं देश में लापता बच्चों की भी एक बड़ी संख्या पाई जाती है, यह लापता बच्चे और बच्चियां सक्रिय समूहों द्वारा अपहरण किए जाते हैं, जिनकी संख्या लगभग हर साल एक लाख से अधिक होती है। अपहरण किए गए बच्चों के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने पुलिस को मोतव्वजाह किया है कि वे समस्या के समाधान में सुनियोजित और संगठित तरीके से सक्रिय हो, फिर भी मामला हल होता नजर नही आरहा हे। आप जानते हैं कि इन अपहरण किए गए, लापता बच्चों से कहीं जबरन मजदूरी कराई जाती है, तो कहीं भीक मंगवाई जाती है, साथ ही अत्यंत अनैतिक कार्यों में भी इन बच्चों को शामिल क्या जाता है और क्योंकी वह एक तरह से कैद हैं इसलिए वह यह सब करने पर मजबूर हैं। दूसरा कारण यह भी है कि प्रशासन उस तरह चाक-चौबंद नही है जिसकी आवशकता है। यही वजह है की हर दिन अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं।

छोटे और बड़े शहरों में बच्चों पर शोषण और उनके द्वारा अंजाम दिए जाने वाले अपराधों का कारण समाज की वह टूटती बिखरती परिवार प्रणाली भी है जहाँ माता-पिता और बच्चों के बीच प्यार और सहानुभूति का माहौल खत्म होने पर है, जिस के परिणाम हमदरदरी और प्रशिक्षण की वह संस्था परवान नही चढ़ पाती जिसकी जिम्मेदारी माता-पिता पर है। साथ ही इन दो व्यवहारों की बुनयादी वजह वह शहरी वातावरण भी है जहां आमतौर पर माता-पिता दोनों ही नौकरीपेशा होते हैं। फिर इस नौकरीपेशा होने का मुख्य कारण आम तौर पर उनके पास यही होता है कि धन की बढ़ोत्तरी, बच्चों की शिक्षा और प्रशिक्षण का बड़ा स्रोत है। इसके विपरीत देखने में यही आया है कि आर्थिक रूप से स्थिर बच्चे और युवा आमतौर पर अपराध में अधिक शामिल होते हैं, साथ ही वह ज़िन्दगी की उन वास्तविक समस्याओं से अनभिज्ञ होते हैं जो व्यक्तित्व विकास के लिए अनिवार्य है। यही कारण है कि अवचेतन जीवन बिताते हुए पहले वह आवारगयों में मुबतला होते हैं और बाद में ग़ैर महसूस अंदाज़ में अपराध की दुन्या में क़दम रख देते हैं। परिणामस्वरूप बच्चों के द्वारा अंजाम दिए जाने वाले अपराध कहीं व्यक्तिगत होते हैं तो कहीं सामूहिक, कहीं संगठित तो कहीं असंगठित तौर पर सामने आना शुरू हो जाते हैं।

यही वजह है की पिछले दिनों दिल्ली का निर्भया केस हो या शुभम और उसके साथियों द्वारा अंजाम दिए जाने वाला अपराध, यह दोनों ही मामले सामूहिक भी थे और संगठित भी। और अब जबकि बच्चों द्वारा सामूहिक और संगठित अपराध अंजाम दिए जाने लगे हैं, तो यह इस बात का खुला सबूत है कि परिवार और समाज दोनों ही अंदरूनी तौर पर अत्यंत कमजोर पड़ चुके हैं, साथ ही यह एक चिंताजनक स्थिति है। एक ऐसी चिंताजनक स्थिति जहां न परिवार आदर्श पाया जाता है, न समाज और न ही बच्चों के लिए माता-पिता की वह भूमिका मौजूद है जिसकी रौशनी में वह अपना सुधार आप कर सकें। क्योंकि तरबियत केवल ज़बान से ही नही होती बल्कि वास्तव में प्रक्रिया देखकर होती है, और बच्चे उसी प्रक्रिया पर अमल करते हैं जो उनके सामने की जाती है, यह एक एक स्थायी हक़ीक़त है जो अमूर्त शैली में हर समय जारी रहती है। इसलिए ऐसे माता-पिता जो अपनी ज़िम्मेदारियाँ नही निभाते, चरित्र के मामले में बहुत कमजोर होते हैं, वह खुद भी यही चाहते हैं कि वह बच्चों से दूर रहें, वहीं बच्चे भी माता-पिता से दूरी बनाए रखते हैं। दूसरी ओर दोहरे चरित्र वाले माता-पिता की बद-इख़लाक़ियाँ जब बच्चों पर प्रकट होना शुरू होती हैं तो वह बच्चे या तो खुद ही माता-पिता से पूरी तरह अलग हो जाते हैं नही तो ऐसे अत्याचारी माता-पिता बद-इख़्लाक़ियों के नशे में अपने ही बच्चों की हत्या करने से परहेज़ नही करते। और यह खबरें हम समय समय पर सुनते ही रहते हैं, कि फलां डॉक्टर या फलां मीडिया पर्सन ने अपनी ही बेटी की हत्या कर दी। कहीं हत्या का कारण बेटी की अनैतिकता होती है तो कहीं माता-पिता खुद अपनी अनैतिक गतिविधियों को छिपाने के लिए ऐसा करते हैं। साथ ही भारतीय समाज जिस गति से “विकसित राष्ट्रों” के नक्शे कदम पर आगे बढ़ रहा है, इस में लावारिस (निषिद्ध) बच्चे व बच्चियां और उनकी सामाजिक समस्याएं भी अपराधिक गतिविधयों के बढ़ने का एक बड़ा कारण है।

देश और समाज की इस पेचीदा स्थिति में मज़हबी तालीम से बेहतर कोई और स्पष्ट और निर्धारित मार्ग प्रदान नही कर सकता। इस्लामी शिक्षा की रोशनी में कुरान हकीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है: “ऐ लोगों जो ईमान लाए हो, बचाव अपने आप को और अपने परिवार को उस आग से जिसका ईंधन इंसान और पत्थर होंगे “(अल-तहरीम: 6)। यह वह लघु शिक्षा है जिस पर चलकर न केवल समाधान खोज सकते हैं बल्कि एक बेहतर परिवार व समाज भी स्थापित हो सकता हे। लेकिन इसके लिए जहां यह अनिवार्य है कि शिक्षा पर अमल क्या जाए वहीं यह भी अनिवार्य है कि भारतीय मुसलमान ऐसी ज़िंदा मिसालें पेश करें जिससे अवहेलना मुक्त वो समाज गठिक हो जिसका हर व्यक्ति इच्छुक नजर आता है। ज़िंदा मिसालें जहां चिंताजनक स्थिति से निकलने में आसानी पैदा करेंगीं वहीं देश के निर्माण और विकास में भी भागीदार होंगीं।  लेकिन अगर कोई व्यक्ति या समूह चाहे कि समसयाएं हल हों और स्थिति भी बेहतर हो मगर इस्लाम और इस्लामी शिक्षा का उल्लेख न किया जाए, तो यह प्रक्रिया सैद्धांतिक रूप से गलत और व्यावहारिक जीवन में दोषपूर्ण शैली ठहरेगी। फिर यह कैसे संभव है कि एक गैर-सैद्धांतिक और दोषपूर्ण व्यवहार से किसी भलाई की उम्मीद की जाए !

 

मोहम्मद आसिफ इकबाल

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