“वसुधैव कुटुम्बकम” के विपरीत जातिबाद में बंटा समाज

caste systemडा. राधेश्याम द्विवेदी
भारत में जाति सर्वव्यापी तत्व है । ईसाइयों, मुसलमानों, जैनों, बौद्धों और सिखों में भी जातियां हैं और उनमें भी उच्च, निम्न तथा शुद्ध-अशुद्ध जातियों का भेद विद्यमान है, लेकिन बात सिर्फ हिन्दू जातियों की इसलिए होती है, क्योंकि हिन्दू बहुसंख्यक हैं और जातियों में फूट डालकर या जातिवाद को बढ़ावा देकर ही सत्ता हासिल की जा सकती है या धर्मांतरण किया जा सकता है । राजनीतिक पार्टियों और कट्टरपंथियों को हिन्दुओं को आपस में बांटकर रखने में ही भलाई नजर आती है । समाज में दो तरह के अगड़े और पिछड़े लोग व विकसित और अविकसित क्षेत्र होते हैं । पिछड़े क्षेत्रों में ब्राह्मण भी उतना ही पिछड़ा था जितना कि दलित या अन्य वर्ग, धर्म या समाज का व्यक्ति। पिछड़ों को बराबरी पर लाने के लिए संविधान में प्रारंभ में 10 वर्ष के लिए आरक्षण देने का कानून बनाया गया, लेकिन 10 वर्ष में भारत की राजनीति बदल गई। सेवा पर आधारित राजनीति पूर्णत: वोट पर आधारित राजनीति बन गई। इस तरह हिन्दुओं को बांटा गया अन्य धर्म और जातियों में और ‘रंग’ को जाति का ‘जहर’ बनाया गया।
वंश आधारित समाज :- वैदिक काल में वंश पर आधारित समाज बने, जैसे पूर्व में 3 ही वंशों का प्रचलन हुआ। 1. सूर्य वंश, 2. चंद्र वंश और 3. ऋषि वंश। तीनों वंशों के ही अनेक उप वंश होते गए। यदु वंश, सोम वंश और नाग वंश तीनों चंद्र वंश के अंतर्गत माने जाते हैं। अग्नि वंश और इक्ष्वाकु वंश सूर्य वंश के अंतर्गत हैं। सूर्य वंशी प्रतापी राजा इक्ष्वाकु से इक्ष्वाकु वंश चला। इसी इक्ष्वाकु कुल में राजा रघु हुए जिसने रघु वंश चला। भगवान राम जहां सूर्य वंश से थे, वहीं भगवान श्रीकृष्ण चंद्र वंश से थे। ऋषि वशिष्ठ ने भी एक अग्नि वंश चलाया था। इसी प्रकार मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, कृतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, कर्दम, विश्वामित्र, पराशर, गौतम, कश्यप, भारद्वाज, जमदग्नि, अगस्त्य, गर्ग, विश्वकर्मा, शांडिल्य, रौक्षायण, कपि, वाल्मीकि, दधीचि, कवास इलूसू, वत्स, काकसिवत, वेद व्यास आदि ऋषियों के वंश चले, जो आगे चलकर भिन्न-भिन्न उपजातियों में विभक्त होते गए। आर्यों के काल में जिन वंश का सबसे ज्यादा विकास हुआ, वे हैं- यदु, तुर्वसु, द्रुहु, पुरु और अनु। उक्त पांचों से राजवंशों का निर्माण हुआ। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, द्रुहु से भोज, अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुई।
आज हिन्दुओं की जितनी भी जातियां या उपजातियां नजर आती हैं वे सभी उक्त तीनों वंशों से निकलकर ही विकृत हो चली हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ये कोई जातियां नहीं हैं और न ही ये किसी वंश का नाम हैं। ये श्रम विभाजन की श्रेणियां हैं। लेकिन आज ये एक समान सोच के समाज में बदलकर भारत को खंडित कर गए हैं।
उक्त तीनों ही वंशों से ही क्षत्रियों, दलितों, ब्राह्मणों और वैश्यों के अनेक उपवंशों का निर्माण होता गया। उक्त वंशों के आधार पर ही भारत के चारों वर्णों के लोगों के गोत्र माने जाते हैं। गोत्रों के आधार पर भी वंशों को समझा जाता है। भारत में रहने वाले हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध और सिख सभी किसी न किसी भारतीय वंश से ही संबंध रखते हैं इसीलिए उन्हें भारतवंशी कहा जाता है। यदि जातियों की बात करें तो लगभग सभी द्रविड़ जाति के हैं। शोध बताते हैं कि आर्य कोई जाति नहीं होती थी। आर्य तो वे सभी लोग थे, जो वेदों में विश्वास रखते हैं।
ऋग्वेद को संसार की सबसे प्राचीन और प्रथम पुस्तक माना है। इसी पुस्तक पर आधारित है हिंदू धर्म। इस पुस्तक में उल्लेखित ‘दर्शन’ संसार की प्रत्येक पुस्तक में मिल जाएगा। माना जाता है कि इसी पुस्तक को आधार बनाकर बाद में यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की रचना हुई। दरअसल यह ऋग्वेद के भिन्न-भिन्न विषयों का विभाजन और विस्तार था। वेद मानव सभ्यता के सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के ‘भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट’ में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है।
हिन्दू शब्द की उत्पत्ति :- हिन्दू धर्म को सनातन, वैदिक या आर्य धर्म भी कहते हैं। हिन्दू एक अप्रभंश शब्द है। हिंदुत्व या हिंदू धर्म को प्राचीनकाल में सनातन धर्म कहा जाता था। एक हजार वर्ष पूर्व हिंदू शब्द का प्रचलन नहीं था। ऋग्वेद में कई बार सप्त सिंधु का उल्लेख मिलता है। सिंधु शब्द का अर्थ नदी या जलराशि होता है इसी आधार पर एक नदी का नाम सिंधु नदी रखा गया, जो लद्दाख और पाक से बहती है। भाषाविदों का मानना है कि हिंद-आर्य भाषाओं की ‘स’ ध्वनि ईरानी भाषाओं की ‘ह’ ध्वनि में बदल जाती है। आज भी भारत के कई इलाकों में ‘स’ को ‘ह’ उच्चारित किया जाता है। इसलिए सप्त सिंधु अवेस्तन भाषा (पारसियों की भाषा) में जाकर हप्त हिंदू में परिवर्तित हो गया। इसी कारण ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिंदू नाम दिया। किंतु पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोगों को आज भी सिंधू या सिंधी कहा जाता है। ईरानी अर्थात पारस्य देश के पारसियों की धर्म पुस्तक ‘अवेस्ता’ में ‘हिन्दू’ और ‘आर्य’ शब्द का उल्लेख मिलता है। दूसरी ओर अन्य इतिहासकारों का मानना है कि चीनी यात्री हुएनसांग के समय में हिंदू शब्द की उत्पत्ति इंदु से हुई थी। इंदु शब्द चंद्रमा का पर्यायवाची है। भारतीय ज्योतिषीय गणना का आधार चंद्रमास ही है। अत: चीन के लोग भारतीयों को ‘इन्तु’ या ‘हिंदू’ कहने लगे।
आर्य शब्द का अर्थ :- आर्य समाज के लोग इसे आर्य धर्म कहते हैं, जबकि आर्य किसी जाति या धर्म का नाम न होकर इसका अर्थ सिर्फ श्रेष्ठ ही माना जाता है। अर्थात जो मन, वचन और कर्म से श्रेष्ठ है वही आर्य है। इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ श्रेष्ठ समाज का धर्म ही होता है। प्राचीन भारत को आर्यावर्त भी कहा जाता था जिसका तात्पर्य श्रेष्ठ जनों के निवास की भूमि था। वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल की शुरुआत 4500 ई.पू. से मानी है। अर्थात यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: कृष्ण के समय में वेद व्यास द्वारा पूरी तरह से वेद को चार भाग में विभाजित कर दिया। इस मान से लिखित रूप में आज से 6508 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। यह भी तथ्य नहीं नकारा जा सकता कि कृष्ण के आज से 5500 वर्ष पूर्व होने के तथ्य ढूँढ लिए गए। हिंदू और जैन धर्म की उत्पत्ति पूर्व आर्यों की अवधारणा में है जो 4500 ई.पू. (आज से 6500 वर्ष पूर्व) मध्य एशिया से हिमालय तक फैले थे। कहते हैं कि आर्यों की ही एक शाखा ने पारसी धर्म की स्थापना भी की। इसके बाद क्रमश: यहूदी धर्म 2 हजार ई.पू.। बौद्ध धर्म 500 ई.पू.। ईसाई धर्म सिर्फ 2000 वर्ष पूर्व। इस्लाम धर्म 14 सौ साल पहले हुए।
धार्मिक साहित्य अनुसार हिंदू धर्म की कुछ और धारणाएँ भी हैं। मान्यता यह भी है कि 90 हजार वर्ष पूर्व इसकी शुरुआत हुई थी। दरअसल हिंदुओं ने अपने इतिहास को गाकर, रटकर और सूत्रों के आधार पर मुखाग्र जिंदा बनाए रखा। यही कारण रहा कि वह इतिहास धीरे-धीरे काव्यमय और श्रंगारिक होता गया। वह दौर ऐसा था जबकि कागज और कलम नहीं होते थे। इतिहास लिखा जाता था शिलाओं पर, पत्थरों पर और मन पर। जब हम हिंदू धर्म के इतिहास ग्रंथ पढ़ते हैं तो ऋषि-मुनियों की परम्परा के पूर्व मनुओं की परम्परा का उल्लेख मिलता है जिन्हें जैन धर्म में कुलकर कहा गया है। ऐसे क्रमश: 14 मनु माने गए हैं जिन्होंने समाज को सभ्य और तकनीकी सम्पन्न बनाने के लिए अथक प्रयास किए। धरती के प्रथम मानव का नाम स्वायंभव मनु था और प्रथम स्त्री थी शतरूपा। पुराणों में हिंदू इतिहास की शुरुआत सृष्टि उत्पत्ति से ही मानी जाती है, ऐसा कहना की यहाँ से शुरुआत हुई यह शायद उचित न होगा फिर भी वेद-पुराणों में मनु (प्रथम मानव) से और भगवान कृष्ण की पीढ़ी तक का इसमें उल्लेख मिलता है।
ब्राह्मण कौन है:- जाति प्रथा के बारे में सबसे हँसी की बात ये है कि जन्म आधारित जातिप्रथा अस्पष्ट और निराधार कथाओं पर आधारित हैं. आज ऐसा कोई भी तरीका मौजूद नहीं जिससे इस बात का पता चल सके कि आज के तथाकथित ब्राह्मणों के पूर्वज भी वास्तविक ब्राह्मण ही थे. विभिन्न गोत्र और ऋषि नाम को जोड़ने के बाद भी आज कोई भी तरीका मौजूद नहीं है जिससे कि उनके दावे की परख की जा सके. जैसे हम पहले भी काफी उदाहरण दे चुके हैं की वैदिक समय / प्राचीन भारत में एक वर्ण का आदमी अपना वर्ण बदल सकता था.
क्षत्रिय कौन है :- ऐसा माना जाता है कि परशुराम ने जमीन से कई बार सभी क्षत्रियों का सफाया कर डाला था. स्वाभाविक तौर पर इसीलिए आज के क्षत्रिय और कुछ भी हों पर जन्म के क्षत्रिय नहीं हो सकते. अगर हम राजपूतों की वंशावली देखें ये सभी इन तीन वंशों से सम्बन्ध रखने का दावा करते हैं – 1. सूर्यवंशी जो कि सूर्य / सूरज से निकले, 2. चंद्रवंशी जो कि चंद्रमा / चाँद से निकले, और 3. अग्निकुल जो कि अग्नि से निकले.
किवदंतियों / कहानियों के हिसाब से अग्निकुल की उत्पत्ति / जन्म आग से उस समय हुआ जब परशुराम ने सभी क्षत्रियों / राजपूतों का जमीन से सफाया कर दिया था. बहुत से राजपूत वंशों में आज भी ऐसा शक / भ्रम है कि उनकी उत्पत्ति / जन्म; सूर्यवंशी, चंद्रवंशी, अग्निकुल इन वंशो में से किस वंश से हुई है. स्वाभाविक तौर से इन दंतकथाओं का जिक्र / वर्णन किसी भी प्राचीन वैदिक पुस्तक / ग्रन्थ में नही मिलता. जिसका सीधा सीधा मतलब ये हुआ कि जिन लोगों ने शौर्य / सेना का पेशा अपनाया वो लोग ही समय समय पर राजपूत के नाम से जाने गए.
हर आदमी की चारों जातियां:- हर एक आदमी में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों खूबियाँ होती हैं. और समझने की आसानी के लिए हम एक आदमी को उसके ख़ास पेशे से जोड़कर देख सकते हैं. हालाँकि जातिप्रथा आज के दौर और सामाजिक ढांचे में अपनी प्रासंगिकता पहले से ज्यादा खो चुकी है. यजुर्वेद [32.16 ] में भगवान् से आदमी ने प्रार्थना की है की “हे ईश्वर, आप मेरी ब्राहमण और क्षत्रिय योग्यताएं बहुत ही अच्छी कर दो”. इससे यह साबित होता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि शब्द असल में गुणों को प्रकट करते हैं न कि किसी आदमी को. तो इससे यह सिद्ध हुआ कि किसी व्यक्ति को शूद्र बता कर उससे घटिया व्यवहार करना वेद विरुद्ध है. आज की तारीख में किसी के पास ऐसा कोई तरीका नही है कि जिससे ये फैसला हो सके कि क्या पिछले कई हज़ारों सालों से तथाकथित ऊँची जाति के लोग ऊँचे ही रहे हैं और तथाकथित नीची जाति के लोग तथाकथित नीची जाति के ही रहे है .
ये सारी की सारी ऊँची और नीची जाति की कोरी धोखेबाजी वाली कहानियां / गपोडे कुछ लोगो की खुद की राय और पिछली कुछ पीढ़ियों के खोखले सबूतों पर आधारित हैं. आखिरकार जाति प्रथा कुछ और नही बल्कि लोगों को धोखा देने का सिर्फ एक लालच मात्र है. जन्म के समय के माहौल की वज़ह से कुछेक परिवारों में कुछ लक्षण प्रभावी रूप से दिखाई देते हैं. इसी तरह से लोग अपना-अपना पेशा भी पीढ़ियों से करते आये हैं. और इसमें कोई बुराई भी नही है. लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल भी नही है कि एक डॉक्टर का बेटा सिर्फ इसलिए डॉक्टर कहलायेगा क्योंकि वो एक डॉक्टर के घर में पैदा हुआ है. अगर उसे डॉक्टर की उपाधि अपने नाम से जोड़नी है तो उसे सबसे पहले तो बड़ा होना पड़ेगा, फिर इम्तिहान देकर एम बी बी एस बनना ही पड़ेगा. यही बात सभी पेशों/व्यवसायों और वर्णों पर भी लागू होती है.
म्लेच्छ :- : इतिहास से साफ़ साफ़ पता लगता है कि यूनानी, हूण, शक, मंगोल आदि इनके सत्ता पर काबिज़ होने के समय में भारतीय समाज में सम्मिलित होते रहे हैं. इनमे से कुछों ने तो लम्बे समय तक भारत के कुछ हिस्सों पर राज भी किया है और इसीलिए आज ये बता पाना बहुत मुश्किल है कि हममे से कौन यूनानी, हूण, शक, मंगोल आदि आदि हैं! ये सारी बातें वैदिक विचारधारा – एक मानवता – एक जाति से पूरी तरह से मेल खाती है लेकिन जन्म आधारित जातिप्रथा को पूरी तरह से उखाड़ देती हैं क्योंकि उन लोगो के लिए म्लेच्छ इन तथाकथित 4 जातियों से भी निम्न हैं.
जाति निर्धारण के तरीके :-आप ये बात तो भूल ही जाओ कि क्या वेदों ने जातिप्रथा को सहारा दिया है या फिर नकारा है ? ये सारी बातें दूसरे दर्जे की हैं. जैसा कि हम सब देख चुके हैं कि असल में “वेद” तो जन्म आधारित जातिप्रथा और लिंग भेद के ख्याल के ही खिलाफ हैं. इन सारी बातों से भी ज्यादा जरूरी बात ये है कि हमारे में से किसी के पास भी ऐसा कोई तरीका नहीं है कि हम सिर्फ वंशावली के आधार पर ये निश्चित कर सकें कि वेदों कि उत्पत्ति के समय से हममे से कौन ऊँची जाति का है और कौन नीची जाति का. अगर हम लोगों के स्वयं घोषित और खोखले दावों की बातों को छोड़ दें तो किसी भी व्यक्ति के जाति के दावों को विचारणीय रूप से देखने का कोई भी कारण हमारे पास नहीं है. इसलिए अगर वेद जन्म आधारित जातिप्रथा को उचित मानते तो वेदों में हमें किसी व्यक्ति की जाति निर्धारण करने का भरोसेमंद तरीका भी मिलना चाहिए था. ऐसे किसी भरोसेमंद तरीके की गैरहाजिरी में जन्म आधारित जातिप्रथा के दावे औंधे मुंह गिर पड़ते हैं. इसी वज़ह से ज्यादा से ज्यादा कोई भी आदमी सिर्फ ये बहस कर सकता है कि हो सकता है की वेदों की उत्पत्ति के समय पर जातिप्रथा प्रसांगिक रही हो, पर आज की तारीख में जातिप्रथा का कोई भी मतलब नहीं रह जाता.सिर्फ वैदिक विचारधारा और तर्क पर आधारित है, जातिप्रथा कभी भी प्रसांगिक रही ही नहीं और जातिप्रथा वैदिक विचारधारा को बिगाड़ कर दिखाया जाना वाला रूप है. ये विकृति हमारे समाज को सबसे महंगी विकृति साबित हुई जिसने कि हमसे हमारा सारा का सारा गर्व, शक्ति और भविष्य छीन लिया है.
नाम में क्या रखा है :- गोत्र प्रयोग करने की प्रथा सिर्फ कुछ ही शताब्दियों पुरानी है. आपको किसी भी प्राचीन साहित्य में ‘राम सूर्यवंशी’ और ‘कृष्ण यादव’ जैसे शब्द नहीं मिलेंगे. आज के समय में भी एक बहुत बड़ी गिनती के लोगों ने अपने गाँव, पेशा और शहर के ऊपर अपना गोत्र रख लिया है. दक्षिण भारत के लोग मूलत: अपने पिता के नाम के साथ अपने गाँव आदि का नाम प्रयोग करते हैं. आज की तारीख में शायद ही ऐसे कोई गोत्र हैं जो वेदों की उत्पत्ति के समय से चले आ रहे हों. प्राचीन समाज गोत्र के प्रयोग को हमेशा ही हतोत्साहित किया करता था. उस समय लोगों की इज्ज़त सिर्फ उनके गुण, कर्म और स्वाभाव को देखकर की जाती थी न कि उनकी जन्म लेने की मोहर पर. ना तो लोगों को किसी जाति प्रमाण पत्र की जरूरत थी और ना ही लोगों का दूर दराज़ की जगहों पर जाने में मनाही थी जैसा कि हिन्दुओं के दुर्भाग्य के दिनों में हुआ करता था. इसीलिए किसी की जाति की पुष्टि करने के लिए किसी के पास कोई भी तरीका ही नहीं था .
किसी आदमी की प्रतिभा / गुण ही उसकी एकमात्र जाति हुआ करती थी. हाँ ये भी सच है कि कुछ स्वार्थी लोगों की वज़ह से समय के साथ साथ विकृतियाँ आती चली गयीं. और आज हम देखते हैं कि राजनीति और बॉलीवुड भी जातिगत हो चुके हैं. और इसमें कोई भी शक की गुंजाईश नहीं है कि स्वार्थी लोगों की वज़ह से ही दुष्टता से भरी इस जातिप्रथा को मजबूती मिली. इन सबके बावजूद जातिप्रथा की नींव और पुष्टि हमेशा से ही पूर्णरूप से गलत रही है.
मध्य युग के बाहरी हमले:- हमारे ऋषियों को ये पता था कि विषम हालातों में स्त्रियाँ ही ज्यादा असुरक्षित होती हैं. इसीलिए उन्होंने “मनु स्मृति” में कहा कि ” एक स्त्री चाहे कितनी भी पतित हो, अगर उसका पति उत्कृष्ट है तो वो भी उत्कृष्ट बन सकती है. लेकिन पति को हमेशा ही ये सुनिश्चित करना चाहिए कि वो पतित ना हो.ये ही वो आदेश था जिसने पुरुषों को स्त्रियों की गरिमा की रक्षा करने के लिए प्रेरित किया और भगवन ना करे, अगर फिर से कुछ ऐसा होता है तो पुरुष फिर से ऐसी स्त्री को अपना लेंगे और अपने एक नए जीवन की शुरुआत करेंगे. विधवाएं दुबारा से शादी करेंगी और बलात्कार की शिकार पीड़ित स्त्रियों का घर बस पायेगा. अगर ऐसा ना हुआ होता तो हमलावरों के कुछ हमलों के बाद से हम “जाति से बहिष्कृत” लोगों का समाज बन चुके होते.
जातिवाद एक अभिशाप:- आज हिन्दू समाज में जातिवाद निस्संदेह रूप से एक अभिशाप की तरह है। 1400 सालों की सामाजिक संकरण और विकृति ने आज इसकी प्रासंगिकता को ही ख़त्म कर दिया है। हिन्दू संस्कृति की महानता सिर्फ किताबों मे पढ़ी और लोगो से सुनी है। परन्तु जो अपनी आखों से देखा वो बिलकुल विपरीत है। हिन्दू धर्म दया, साहिश्रुता और त्याग का प्रतीक है। लेकिन दुनिया का ऐसा कोई अन्य धर्म नहीं जिसमे जाति के नाम पर इतने आपसी भेदभाव है। शायद ही कोई ऐसा धर्म हो जिसमे लोग एक दूसरे के लिए इतनी घृणा और तिरस्कार का भाव रखते है। हिन्दू संस्कृति ने हमेशा आत्म-सम्मान से जीना सिखाया, शायद इसीलिए मुग़लों और अंग्रेजों के क्रूरतापूर्ण 1000 साल के शासन के बाद भी देश मे आज हिन्दू संस्कृति जीवित है। गुरु गोविंद सिंह, छत्रपती शिवाजी, झाँसी की रानी जैसे वीरों ने इस हिन्दू संस्कृति को जीवित रखने के लिए अपना बलिदान दिया और समाज के लिए प्रेरणा श्रोत बने।
किसी भी समाज मे संतुलन का आधार ज्ञान, धन और बल होता है। अगर ये तीनों किसी एक के हाथ मे केन्द्रित हो जाए तो समाज मे असंतुलन पैदा हो जाता है। इसी ज्ञान को आधार मानकर महान ऋषियों ने समाज को चार वर्णो (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) मे बांटा था। जो भाई खुद को कट्टर हिन्दू बोलकर सुबह शाम धर्म का डंका पीटते है .ऐसा क्या है विशेष बचा है जिसपर आपने इतना गर्व करते है? अधिकांश शहरों मे रहने वाले जिनहोने कभी गाँव देखा नहीं या कभी वहाँ रहे नहीं आपसे विनती है जरा गाव मे जाकर रहे और देखे कि जात -पात के नाम पर लोगों मे कितनी घृणा और अत्याचार व्याप्त है। भारत देश अनेकताओं मे एकता का देश है लेकिन हिन्दू धर्म मे ये बात ठीक नहीं बैठती क्योकि इसमे एकता नहीं है। हर कोई या तो पंडित है या ठाकुर, या तो बनिया है या दलित। जात-पात से ऊपर उठकर जो सोच सके, सिर्फ वही हिन्दू कहलाने का अधिकारी है, बाकी सभी ढोंगी ।
राजनैतिक पार्टी का योगदान:- जातिवाद फिर अपना सर उठा रहा है !इसको बढ़ने में जितना समाज का योगदान है उससे ज्यादा राजनैतिक पार्टीयों का है ! राजनैतिक पार्टी अपने फायदे के लिए इसे समय समय पर हवा देती रही है ! जातिवाद बढ़ाने में हर विचारधारा की पार्टीयाँ इसमे शामिल है,चाहे दक्षिणपंथी हो या बामपंथी विचारधारा,इस मामले में कोई छुआछूत नहीं है सब अपने एजेंडे में इसे शामिल करते हैं! जातिवाद बढ़ाने में सबसे कारगर हैं आरक्षण! आरक्षण एक ऐसी दवा हैं जिसके प्रयोग से जातिवाद फलता फूलता हैं! आरक्षण स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान में इस लिए जोड़ा गया था की समाज के दबे कुचले लोग समाज की मुख्यधारा में आ सके ,इसे मात्र १० साल के लिए जोड़ा गया था पर राजनैतिक दलों को मलाई खाने के लिए इसकी नितांत आवश्यकता थी ! इस टॉनिक के बगैर राजनैतिक दल कमजोर हो जाते इसलिए अपनी ऊर्जा बढ़ाने के लिए समय समय पर इसको बढ़ाया गया ! जो आरक्षण समाज के बराबरी के लिए लागु किया गया था जो आज अभिशाप बन गया हैं !आज समाज में लगभग सभी जातियों को (सवर्णो को छोड़ कर ) आरक्षण दिया गया हैं ,जिससे ये सब जातियाँ समाज में बराबरी से जी सके, पर जब सब जातियों को आरक्षण दिया गया तो बराबरी तो होनी चाहिए ! आरक्षण ने समय समय पर अपनी अपनी जातियों में जातिवादी नेता पैदा किये हैं , जो अपने समाज को बरगलाने कि फीस राजनैतिक पार्टियो से लेते हैं !कभी कभी तो समाज के पुरे वोटो का सौदा तक पार्टियो से कर लेते हैं और मँहगी गाड़ियों में घूमते हैं ! ये प्रणाली अंग्रेजो द्वारा लाई गई है, जिसे आजादी के बाद आंबेडकर ने नया रूप दिया | ये आरक्षण हटाना ही चाहिए |

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