एकात्म मानववाद के प्रणेता पं0 दीनदयाल उपाध्याय

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बृजनन्दन यादव

वे एक ऐसे राजनेता थे जिन्हें सत्ता में कोर्इ आकर्षण नहीं था। फिर भी अपने अनुयायियों के दिलों पर राज करते थे। वे राजनीति को राष्ट्रसेवा का अंग मानते थे। पंडित दीनदयाल जी का जन्म 25 सितम्बर 1916 को मथुरा के निकट नगला चन्द्रभान नामक गांव में एक साधारण परिवार में हुआ था। इन्हें बचपन में बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इन विपरीत परिसिथतियों का सामना करते हुए पंडित दीनदयाल ने पिलानी के बिरला कालेज से डिसिटंकशन से साथ इण्टरमीडियट बोर्ड परीक्षा, कानपुर से बी.ए. और आगरा से एम.ए. किया। 1937 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आये और बाद में प्रचारक बने। अक्टूबर 1951 में वे संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधव राव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य गुरुजी के आग्रह पर जनसंघ में गये। जनवरी 1953 में कानपुर में हुए पार्टी के पहले ही राष्ट्रीय सम्मेलन में उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय महामन्त्री बनाया गया। दीनदयाल जी की अदभुत प्रतिभा से प्रभावित होकर डा0 श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि यदि मुझे दो और दीनदयाल मिल जायें तो मैं भारत का पूरा राजनीतिक नक्शा ही बदल दूँ।

प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में सुख चाहता है। मनुष्य संसाधनों से सुखी नहीं हो सकता है। वैभव संपन्नता सुखी रहने का आधार नहीं है। मनुष्य के जीवन में सुख रहने के लिए उस समाज में एकता स्थापित होनी चाहिए। असंगठित समाज में मनुष्य के सुख की कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य के अंदर विश्व बंधुत्व एवं विश्व कल्याण की भावना भी होनी चाहिए। अन्यथा विश्व में अशांति रहेगी तो देश व समाज भी स्वस्थ नहीं रह सकता। इसलिए मनुष्य का संबंध सीधा पूरे विश्व से है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 1965 में चार व्याख्यान दिये, वही बाद में एकात्ममानववाद कहलाये, क्योंकि माक्र्सवाद, लेनिनवाद, साम्राज्यवाद इन सभी विचारधाराओं से लोगों का मोहभंग हो चुका था। जनता इन विचारों से तंग आ चुकी थी। उसे एक नर्इ रोशनी की तलाश थी, जो पंडित दीनदयाल जी ने एकात्ममानववाद के रूप में प्रज्वलित कर दिखार्इ। उन्होंने इन सभी विचारों से ऊपर उठकर सोच समझकर चिन्तन-मनन कर एक जीवन शैली लोगों के समक्ष प्रस्तुत की जिससे अपने राष्ट्र संस्कृति एवं धर्म का संरक्षण करते हुए पूरे विश्व का परिमार्जन कर उसकी सेवा सुश्रुषा एवं उनके कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहा जा सके।

दीनदयाल जी ने कहा था कि विचारों के विकास का कोर्इ अन्त नहीं होता और कोर्इ भी विचार पुराना का पुराना जैसा पहले था नहीं हो सकता उसमें परिवर्तन निश्चित है। उनका कहना था कि बाहर के विचारों को देशानुकूल और अपने यहां के विचारों को युगानुकूल रखना हमारी कार्यपद्धति होनी चाहिए। वे पशिचमी अन्धानुकरण के विरोधी थे। उनका कहना था कि भारत को अमेरिका और रूस नहीं बनाना है बलिक भारत को वैशिवक ज्ञान और अपनी धरोहर के मदद से हम एक ऐसे भारत का निर्माण करना चाहते हैं जो अपनी अतीत की सभी यशोगाथाओं से अधिक गौरवशाली होगी, पिछले 200 वर्षों में जिनके आधार पर समाज में बदलाव आया। साम्राज्य निर्माण के बाद मजहबी विचारों का प्रचलन शुरू हुआ। अरब से इस्लामी विचारधारा और इंग्लैण्ड से र्इसाइयत के विचारों का प्रचार प्रसार शुरू हुआ। इसके बाद विभिन्न प्रकार की आर्थिक और राजनैतिक विचारधारायें शुरू हुर्इ। जैसे पहले पोप राजा भी बना और धर्मसंरक्षक भी फिर बाद में डेमोक्रेशी आयी। इसके बाद समाज ने विज्ञान और तकनीकि में भी विकास किया।

पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी ने मानव जीवन को मानव, समाज और सृष्टि इन तीन श्रेिणयों में बांटा। पशिचमी देशों में मानव को पाप की संतान मानते हैं। उनके जीवन का उददेश्य ही अर्थ और काम है। उनकी उपभोगवादी मानसिकता है वे प्रकृति को जड़ समझते हैं। उनकी टेक्नोलाजी भी ऊर्जाभक्षी एवं पर्यावरण विरोधी है। अपने यहां मनुष्य के मन को सुख चाहिए। मन, बुद्धि एवं आत्मा इन तीनों का समन्वय जरूरी है। एकात्म मानववाद में मनुष्य को देवता माना गया है। सुख के कर्इ प्रकार गिनाये गये हैं। कर्तव्य पालन के साथ कष्ट में भी आतिमक सुख की अनुभूति। हमारे यहां ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास इन चार आश्रमों की व्यवस्था है।

भारत में प्रकृति को अध्यात्म के साथ जोड़कर देखा गया है एवं संयमित उपभोग को मान्यता दी गर्इ है। पशिचम में व्यकित अनितम इकार्इ है, भारत में अनितम इकार्इ परिवार है। वहां परिवार व्यवस्था टूट गयी है उपयोगिता के आधार पर संबंध चलता है, जिसके परिणाम स्वरूप तमाम समस्यायें घर कर गयी हैं। व्यकित कर्ममय जीवन द्वारा समाज में योगदान करता है। समाज में भी मन बुद्धि आत्मा है। समाज में भी पुरुषार्थ है। देश धर्म व्यकित समाज के शरीर हैं। लोगों की सही सोच समाज का मन हैं। मानव जीवन के सुख के लिए जो भिन्न प्रयत्न चले अनुभव आया कि एक नये विचार की आवश्यकता है। दीनदयाल जी ने कहा था कि अधूरी सोच के कारण ऐसा हुआ है। शांति विकास एवं पर्यावरण एक दूसरे के पूरक हैं। विज्ञान और मजहब ही भयानक संकट की जड़ है।

पशिचम के लोग प्रकृति को जड मानते हैं। उनकी टेक्नोलाजी अधिक ऊर्जाभक्षी एवं पर्यावरण विरोधी है। उनके अनुसार पूरी दुनिया उपभोग के लिए ही है। भारत ने सृष्टि को सजीव इकार्इ माना है। प्राणि सृष्टि, वनस्पति सृष्टि, मनुष्य सृष्टि ऐसा विभाजन भी किया हैं, और ये एक दूसरे के पूरक भी हैं। यह हमारे देश के प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जगदीश चन्द्र वसु ने यह सिद्ध कर दुनिया को दिखा भी दिया। उनके यहां इसके आधार को भौतिक माना है और इसका एक दूसरे का कोर्इ संबंध नहीं मानते हैं।

दीनदयाल जी ने कहा था कि हम नवनिर्माण के वाहक हैं विध्वंस के नहीं, और अपने यहां के मूल्यों को संकल्पना के माध्यम से समझना होगा। आज हमें देश में एक नर्इ सामाजिक संरचना खड़ी करनी है। सभी विविधताओं की रक्षा करते हुए नर्इ आर्थिक राजनैतिक सामाजिक संरचना करनी है। यही भारत की नीति है।

 

 

2 COMMENTS

  1. मुझे पं. दीनदयाल उपाध्याय के द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद के सिद्धान्तों की प्रभावी काट कर सकने वाला आज तक एक भी विद्वान नहीं मिला। विशेष कर उन्होंने धर्म को परिभाषित करते हुए व्यक्तिगत धर्म और सामाजिक धर्म का जो प्रारूप दिया – वह विलक्षण है और जीव विज्ञान के तथ्यों पर आधारित होने के कारण अकाट्य है।

    पर समस्या यही है कि पं. दीनदयाल उपाध्याय संघ एवं जनसंघ के नेता थे, अतः बाकी दलों के लिये और विशेषकर वामपंथी विचारकों के लिये वह अग्राह्य हैं। बड़े – बड़े बुद्धिजीवी माने जाने वाले लोग मार्क्स के घिसे – पिटे, कालातीत हो चुके सिद्धान्त के पीछे आज भी पड़े हुए हैं। व्यवहारिक ही नहीं, तात्विक धरातल पर भी मार्क्सवाद पूरी तरह से असफल सिद्ध हो चुका है। उसका वैज्ञानिक होने का भ्रम भी कभी का टूट चुका है पर अंध विश्वास के संस्कारों के वशीभूत हम उससे इसी प्रकार चिपके हुए हैं जैसे कोई बन्दरिया मरे हुए बच्चे को छाती से चिपकाये घूमती है ।

    दर असल हमारे देश में मार्क्सवाद केवल इस कारण से जिन्दा है कि कांग्रेस के कंधों पर सवारी करते हुए मार्क्सवादी देश में मीडिया, कानून और शिक्षा के क्षेत्र में प्रमुख स्थानों पर काबिज़ हो गये हैं और यही उनकी सबसे बड़ी जीत है। उन्होने सत्ता से अधिक महत्व इस बात को दिया कि जनमत को व्यापक रूप से प्रभावित कर सकें, अपने विचारों के आधार पर देश में नीति-निर्धारण करा सकें । इस अर्थ में देखें तो वह दूरदृष्टि लेकर चलते रहे हैं । पर उनकी विचारधारा में ही खोट है, भारत की धरती पर उनके विचारों की फसल उग ही नहीं सकती तो इसमें वे बेचारे क्या करें !

  2. भारत की चिरंतन परंपरा को स्वर्गीय पंडित दीं दयाल उपाध्याय जी ने एकात्म मानववाद का दर्शन दे कर आगे बढाया था. लेकिन इस विचार को और अधिक विस्तार देने से पूर्व ही उनकी षड्यंत्रपूर्वक हत्या कर दी गयी. माननीय दत्तोपंत ठेंगडी जी ने एकात्म मानववाद की कुछ व्याख्या की लेकिन इस विचारधारा को एक राजनीतिक-सामाजिक आर्थिक दर्शन के रूप में जितना विस्तार मिलना चाहिए था वह पिछले ४७ वर्षों में नहीं मिला. इसका एक बहुत बड़ा कारन मेरे विचार में पंडित दीन दयालजी के अनुयायियों में योग्य व्याख्याकारों का न होना है. जिस प्रकार से वाम पंथी विचारकों की पूरी फौज निर्माण करने वाली एक फेक्टरी के रूप में जे. एन. यु. का रोल रहा है उस प्रकार का एक भी संसथान संघ-भाजपा नीट राज्यों में या एन.डी.ऐ. के समय केंद्र में मौजूद सर्कार द्वारा स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया. अपने मूह मिया मिठू वाली कहावत चरितार्थ करते रहे. आज भाजपा शाशित किसी भी राज्य में किसी विश्वस्तरीय विद्वान की आवश्यकता हो तो जे.एन यु. की तरफ ही देखते हैं जहाँ से आने वाले ‘विद्वान’ वामपंथ को ही आगे बढ़ने का कार्य करते हैं. लेकिन किसी भी देशी या अंतर्राष्ट्रीय मसले पर राष्ट्रवादियों का सुविचारित मत प्रस्तुत करने वाला कोई नहीं होता. गुजरात या कर्नाटक की सरकारें इस प्रकार की युनिवेर्सिटी स्थापित करने का काम कर सकती हैं. इसके लिए अमेरिका के स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के कामकाज को देखने के लिए एक उच्चस्तरीय कार्यदल का गठन करा जा सकता है. ये विश्विद्यालय पंडित दीन्दल्यल जी के एकात्म मानववाद के दर्शन को आधार बनाकर आज के संघर्षरत विश्व को एक नए विश्व व्यवस्था के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है. लेकिन क्या राजनीतिक उठापटक से निकलकर इस और सोचने की किसी को फुर्सत है?

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