फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने पेरिस हमले पर जो प्रतिक्रिया की है, उसने सारे पश्चिमी राष्ट्रों को एकजुट कर दिया है। ओलांद तो समाजवादी हैं लेकिन उनके साथ फ्रांस के दक्षिणपंथी और मध्यमवर्गीय नेता भी एकजुट हो गए हैं। उन्होंने आतंकवादियों के विरुद्ध बाकायदा युद्ध ही छेड़ दिया है। लगभग सभी आतंकियों ने आत्महत्या कर ली है लेकिन फ्रांस की पुलिस और गुप्तचर व्यवस्था ने भी कमाल किया है। अभी एक हफ्ता भी नहीं गुजरा है कि उसने आतंकियों की जड़ों तक को खंगाल दिया है। यूरोप में जहां से भी उन्होंने षड़यंत्र रचा है, उन सारे ठिकानों पर छापे मार दिए हैं। इतना ही नहीं, सीरिया में फ्रांस ने जबर्दस्त बमबारी शुरु कर दी है। इस्लामी राज्य ‘दाएश’ की राजधानी रक्का को फ्रांस, रुस और अमेरिका ने मिलकर तबाह कर दिया है।
तीनों राष्ट्रों का ऐसा गठबंधन अब से 75 साल पहले हिटलर के खिलाफ बना था। जाहिर है कि फ्रांस्वा ओलांद, ब्लादिमीर पूतिन और बराक ओबामा- ये तीनों नेता मिलकर ‘दाएश’ के पीछे पड़ गए तो उसकी दुर्गति अल-क़ायदा से भी ज्यादा हो सकती है। कुछ ही दिनों में उसका नामो-निशान ही मिट सकता है।
इन तीनों महाशक्तियों को सीरिया के शासक बशर-अल-अस्साद के साथ मिलकर काम करना होगा ताकि उसके पैदली सैनिक असली लड़ाई लड़ सकें। सिर्फ बमबारी से आतंकियों को खत्म नहीं किया जा सकता।
इसके अलावा महाशक्तियों को ईरान और सउदी अरब की प्रतिस्पर्धा को घटाना होगा। इसी प्रतिस्पर्धा के कारण पश्चिम एशिया के शिया और सुन्नी लोगों में झगड़ा होता रहता है। महाशक्तियां इस विवाद की अनदेखी करती रहती हैं। उनकी नज़र इन राष्ट्रों के सिर्फ तेल पर लगी रहती है। महाशक्त्यिां की नींद अब इसलिए खुली है कि ‘दाएश’ ने एक गोरे राष्ट्र को अपना निशाना बनाया है। जब भारत पर हमला हुआ तो ये सब राष्ट्र कोरी बयानबाजी करते रहे।
आंतकियों ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान को अपना गढ़ बना रखा है। इन देशों की सरकारें आतंक का मुकाबला किसी तरह कर तो रही हैं लेकिन क्या पश्चिमी राष्ट्र इन देशों में भी सीधी फौजी कार्रवाई करेंगे या वे सिर्फ उन्हीं आतंकियों के खिलाफ लड़ेंगे, जो उन्हें अपना निशाना बनाते हैं?