जनता परिवार का एकीकरण

0
117

 

प्रमोद भार्गव

देश के राजनीतिक गठबंधन के परिदृष्य में इस समय दो बड़े बदलाव देखने में आ रहे हैं। एक तो वह जनता परिवार है जो नेतृत्व के संकट और अहं टकरावों के चलते बिखरता रहा है और अब नरेंद्र मोदी के लगातार बढ़ते व फैलते जनाधार के कारण एकजुट होने को छटपटा रहा है। दूसरे वह भारतीय जनता पार्टी है,जो गठबंधन की लाचारी से मुक्त होकर देशव्यापी विस्तार में सुनियोजित ढंग से लगी है। अब उसे इस विस्तार में केंद्रीय सत्ता भी मददगर साबित भी हो रही है। जिसका सकारात्मक परिणाम जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में मिल सकता है। भाजपा ऐसा कर पा रही है तो इसलिए,क्योंकि उसने खुले रूप में उन सब मुद्दों को किनारे कर दिया है,जो उसे सांप्रदायिक और जातीय सोच की संर्कीण पार्टी घोषित करते थे। मसलन वह युगानुरूप कायांतरण करने में सफल हो गई है। जबकि दूसरी तरफ जनता दल का वह कुनबा है,जो चुके हुए छद्म धर्मनिरपेक्ष और ओछे जातीय समीकरण के मुद्दों से उबरना ही नहीं चाहते। आशय यह है कि बदलते राजनीतिक हालात में एकीकरण तो एक स्वाभाविक सोच है,किंतु इस सोच के दलों को मकसद पूर्ति के लिए नए युग की सोच के मुताबिक खुद को ढालना भी होगा। खुद को यथा-स्थिति में बनाए रखने के कारण आज वामदल और मायावती की बसपा अप्रासंगिक होते दिखाइ दे रहें हैं। कांग्रेस ने भी नेतृत्व के स्तर का कायाकल्प नहीं किया तो इसी हालात का शिकार हो सकती है।

मुलायम सिंह यादव बार-बार जनता परिवार को एकजुट करने की कोशिष में लगे हैं। वामदल भी यह कोशिष करते रहे हैं। लेकिन एकजुटता की कोशिषें निर्विकार रूप से फलीभूत नहीं हो पाई। इस बार भी मुलायम सिंह ने ही बदलते राजनीतिक परिदृष्य के मद्देनजर बैठक आहूत की। बैठक में कुल ऐसे छह दल शामिल हुए,जो कभी न कभी जनता दल के कुनबे का हिस्सा रहे हैं। जाहिर है,जनता दल से अलग हुए दलों को एक करने के मकसद से यह कवायद की गई है। कभी तिरेसठ रहे तो कभी छत्तीस बनने की कोशिष में लगे ये दल हैं सपा,जद;एसद्ध,जदयू,राजद,आईएनएलडी और सजपा। बैठक में मुलायम के अलावा लालूप्रसाद यादव, नितीश कुमार,शरद यादव,एचडी देवगौड़ा,दुष्यंत चौटाला और कमल मोरारका प्रमुख रूप से शामिल थे। ये सभी नेता उस समाजवादी और साम्यवादी आंदोलन के अनुयायी रहे हैं,जिसकी बुनियाद 1930 में स्वामी सहजानंद ने रखी थी। और जिसे कालांतर में परिवर्तित रूपों में आचार्य नरेंद्र देव,डाॅ राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नरायण ने आगे बढा़या था। आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में इसी विचारधारा के अलंबदारों ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन करके जनता पार्टी की अगुआई में चुनाव लड़ा और जीत का परचम फहराकर केंद्रीय सत्ता हासिल की। लेकिन जल्दी ही अंह टकरावों के चलते सत्ता गंवा दी।

इसी विचारधारा के लोग 1989 में एक बार फिर वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल के रूप में एकजुट हुए। और बोर्फास तोप के गोले दागकर राजीव गांधी से केंद्र की सत्ता छीन ली। लेकिन आपसी फूट और प्रधानमंत्री की कुर्सी हथियाने की होड़ के चलते यह गठबंधन फिर टूट गया। किंतु लालू,मुलायम,नितीश,देवगौड़ा और ओमप्रकाश चौटाला समाजवादी विचारधारा के क्षेत्रीय क्षत्रपों के रूप में स्थापित हो गए। उत्तर प्रदेश,बिहार,हरियाणा और कर्नाटक की राज्य सत्ताओं के तो ये लंबे समय तक खिलाड़ी रहे ही,केंद्र में कांग्रेस और भाजपा के साथ गठबंधन करके केंद्रीय राजनीति की धुरी भी बने रहे। किंतु 2014 के आमचुनाव में नरेंद्र मोदी ने क्षेत्रीय,जातीय और सांप्रदायिक भूगोल को बदलकर इन्हें सत्ता में बने रहने की जबरदस्त चुनौती दे दी। जिन क्षेत्रों को ये नेता अपना गढ़ मानते थे,उनमें इनके दलों की गिनने लायक सींटे भी नहीं मिलीं। लालू की तो पत्नी और बेटी दोनों ही चुनाव हार गए। मुलायम ने जारूर अपने कुनबे के उम्मीदवारों को जिताकर किसी तरह साख बचा ली। मौजूदा लोकसभा में जनता परिवार के छह दलों के कुल जमा 13 सांसद हैं। इनमें सपा के 5,राजद के 4,जदयू के दो और जद;एसद्ध के दो सांसद हैं। तय है,मोदी लहर के बरक्ष संकट बड़ा है।

शायद इसीलिए क्षेत्रीय क्षत्रपों में यह घारणा बनी है कि अपनी वर्तमान राजनीतिक शक्ति के साथ,विस्तार पा रही मोदी की सुनामी से सामना करना नामुमकिन है। लिहाजा मोदी लहर से मुकाबला करने के लिए एकीकरण का पुराना फाॅर्मूला अमल में लाया जाए। एकीकरण की इस रणनीति को इसलिए भी बल मिला,क्योंकि बिहार में आमचुनावों के बाद संपन्न हुए उपचुनाव में लालू और नितीश गांठ जोड़कर कारगर नतीजे हासिल कर चुके हैं। दो दलों के इस एकीकरण से बिहार का ताकतवर उच्च पिछड़ा और कमजोर पिछड़ा वर्ग मिलकर एक नया समीकरण बन गए और दोनों को 11 में से 8 विधानसभा सीटों पर जीत आसान हो गई। लेकिन सामाजिक न्याय का यह झंडा तब फहराया,जब नितीश ने पल-भर में मुख्यमंत्री बने रहने की पद-लोलुपता से मुक्त होकर मुसहर जाति के महादलित जीतनराम मांझाी को अपनी कुर्सी सौंप दी। नतीजतन बिहार के जो महादलित हैं, वे इस महागठबंधन में भागीदार हो गए और नितीश लालू को जीत की बाजी हाथ लग गई। 2015 में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं,तब भी क्या लालू और नितीश किसी महादलित को मुख्यमंत्री बनाने का संकल्प लेने का आदर्श दोहरा पाएंगे ? निहित स्वार्थों के परिप्रेक्ष्य में यह जरा मुश्किल सवाल है नितीश से तो फिर भी त्याग बदूस्तर रखने की उम्मीद की जा सकती है,लेकिन लालू पर संशय है ?

हालांकि इस बैठक में ऐसी कोई प्रतिबद्धता नहीं जताई गई है। नितीश कुमार ने पत्रकारों से बातचीत में साफ कर दिया है कि फिलहाल इस मोर्चे का उपयोग संसद के गोल घेरे में जनता से जुड़े मुद्दों की पैरवी करने में होगा। कालाधान,बेरोजगारी,किसान हित और भूमि अधिग्रहण अधिनियम व बीमा विधेयक जैसे मुद्दों पर एकजुट होकर अवाज उठाई जाएगी। इस आवाज में कांग्रेस,वामदल,बसपा और तृणमुल कांग्रेस भी अपनी आवाज मिला सकते हैं। क्योंकि नया भूमि अधिगृहण विधेयक कांग्रेस ही अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में लाई है। स्वाभाविक है,वह इसमें किसी भी प्रकार के बदलाव के खिलाफ रहेगी। लेकिन लोकसभा में ये दल हाथ-पैर चाहे जितने मार लें,नतीजा कोई नहीं दे पाएंगे,क्योंकि भाजपा स्पष्ट बहुमत है। बावजूद राज्यसभा में इन दलों का संगठित मोर्चा संशोधित विधेयकों को अटका सकते हैं।,क्योंकि यहां राजग बहुमत में नहीं है।

परंतु इनकी असली लड़ाई संसद से बाहर होनी है। वह इसलिए क्योंकि एक तो भाजपा लोकसभा चुनाव के बाद लगातार अपना विस्तार का रही हैं। हाल ही में उसने महाराष्ट्र और हरियाणा की गद्दियां कांग्रेस से छीनकर संभाल ली हैं। झारखंड और जम्मू-कश्मीर में वह सत्ता प्राप्त करती दिख रही है। आम आदमी पार्टी के कमजोर होने के बाद अब भाजपा को दिल्ली में कांग्रेस कोई चुनौती दे पाएगी,मुश्किल है। जाहिर है,कांग्रेस समेत सभी क्षेत्रीय दलों की नींद हराम है। जिन वामदलों को नितीश और मुलायम अपने साथ लाने की बात कर रहे हैं,वे वामदल पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का साथ पाने को मजबूर हो रहें हैं। मयावती और ममता बनर्जी का अभी भी रूख साफ नहीं है। हालांकि कुछ समय पहले मोदी के बढ़ते वर्चस्व को थामने की दृष्टि दिग्विजय सिंह अलग राग अलाप चुके हैं। उन्होंने कहा था कि ममता बनर्जी और शरद पवार कांग्रेस छोड़ गए थे,वे अब कांगेस में लौट आएं। किंतु इस अपील को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया।

महामोर्चा या महागठबंधन के व्यापक रूप में सामने आने में नेतृत्व कौन करे,यह भी बड़ा संकट है। क्योंकि जितने भी क्षेत्रीय क्षत्रप हैं,वे अपने आप में एक संपूर्ण राजनीतिक शाख्यिसत का दर्जा प्राप्त कर चुके हैं। बावजूद उनके पास न तो कोई वैकल्पिक नीति है और न ही ये अपने को बदलती हुई राजनीतिक परिस्थिितयों में ढालना चाहते हैं। लिहाजा मतदताओं को इन कुंभकारों में कुछ नया गढ़ने की साम्थ्र्य दिखाई नहीं दे रही है। दूसरी तरफ भाजपा है,जो नए अवतार में आकर गठबंधन से मुक्ति की राह तलाश कर देशव्यापी आकार लेने में लगी है। हरियाणा में उसने हरियाणा जनहित कांग्रेस, आकाली दल और आईएनएलडी से अलग हाकर चुनाव लड़ा,वहीं महाराष्ट्र में शिवसेना से गठबंधन तोड़कर चुनाव लड़ा। झारखंड और जम्मू-कश्मीर में भी वह इसी पथ की अनुगामी है। जाहिर है,राजनीति में तेजी से बदल रहे परिदृष्य में पुराने फाॅमुर्लाबद्ध जातीय समीकरणों का नए गठबंधनों के रूप में चलाना मुश्किल है ?

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here