अब मोदी के खिलाफ बुद्धिजीवियों का प्रलाप

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मुद्दों पर भारतीय बुद्धिजीवियों का चयनित दृष्टिकोण सबसे बड़ा संकट

संजय द्विवेदी

modijiदेश के तमाम जाने- माने बुद्धिजीवियों ने एक दिल्ली में 7 अप्रैल को प्रेस क्लब आफ इंडिया की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में न सिर्फ भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को जी-भर कर कोसा वरन एक साझा बयान पर हस्ताक्षर भी किए (जनसत्ता, 8 अप्रैल,2014)। भारतीय बुद्धिजीवियों की यह लीला न पहली है न अंतिम बल्कि इससे पता चलता है कि समाज में चल रहे आलोड़न और अपनी जड़ों से वे कितने उखड़े हुए हैं। हमारे बुद्धिजीवियों का यही शुतुरमुर्गी चरित्र और मुद्दों पर चयनित दृष्टिकोण देश का सबसे बड़ा संकट है।

सवाल यह उठता है कि पिछले दस सालों में मनमोहन-चिदंबरम-मोंटेंक सिंह अहलूवालिया की आर्थिक कलाबाजियों, निरंतर भ्रष्टाचार के बीच सिसकते हिंदुस्तान के साथ कितनी बार ये हस्ताक्षर करने वाले बुद्धिजीवी नजर आए? यहां तक की अन्ना के आंदोलन में भी देश की पीड़ा के स्वर देने के लिए ये महापुरूष अपने ही बनाए स्वर्गों में अटके रहे। यूआर अनंतमूर्ति, अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह, के. सच्चिदानंद, प्रभात पटनायक से लेकर इस बयान पर हस्ताक्षर करने वाले लगभग दो दर्जन बुद्धिजीवियों की वीरता तब कहां थी जब मुलायम सिंह यादव के राज में हर महीने एक दंगा हो रहा था। ये महापुरूष कश्मीरी पंडितों के पलायन को लेकर कितनी बार हस्ताक्षर अभियान और गोष्ठियां करते नजर आए? क्या कश्मीर के पाप के लिए आज तक किसी नेता कश्मीरी उलेमा ने माफी मांगी ? सही मायने में यह वे कायर जमातें हैं जो समय के सवालों से मुंह चुराते हुए अपनी सड़ी हुयी वैचारिकी और न समझ में आने वाली भाषा में एकालाप की अभ्यासी हो चुकी है। तीन दशकों तक पश्चिम बंगाल को अपने ‘वैचारिक सुराज’ से आलोकित करने वाले ये लोग किस मुंह से गुजरात और उसके मुख्यमंत्री की आलोचना के अधिकारी हैं? यू आर अनंतमूर्ति कहते हैं कि “मोदी सत्ता में आए तो हम अपने लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार खो बैठेंगें।“ उन्हें याद करना चाहिए कि एक बार इस देश में श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू कर हमारे लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार छीने थे तो उस संघर्ष की अगुवाई वामपंथियों ने नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने की थी। संघ परिवार तो लोकतंत्र की मुक्ति के लिए लड़ने वाला परिवार रहा है जबकि हमारे बुद्धिजीवी संघर्ष की वेला में शुतुरमुर्गी शैली में रेत में सिर छिपा कर लुप्त हो जाते हैं। आज मोदी को कारपोरेट समर्थक बताकर कोसने वालों की नजर में सोनिया गांधी और उनके नामित प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कैसे कारपोरेट विरोधी नजर आने लगे हैं? मनमोहन सिंह ही इस देश में मनुष्य विरोधी आर्थिक नीतियों के प्रेरणाश्रोत और प्रारंभकर्ता हैं। आखिर क्या कारण है जिन मनमोहन सिंह ने खुदरा क्षेत्र में एफडीआई लागू की, उनके खिलाफ ये बुद्धिजीवी कोई बयान देते नजर नहीं आए और जिस नरेंद्र मोदी ने खुदरा में एफडीआई न लाने का वायदा किया है, वो कारपोरेट समर्थक हो गया।

अफसोस तो यह है कि हमारे बुद्धिजीवियों की अपनी कोई राय है नहीं। वे स्वतंत्र चिंतन के बजाए ‘मोदी फोबिया’ से ग्रस्त हैं। वे दंगों से भी पीड़ित नहीं हैं। वे मुलायम के दंगों, 84 में सिखों के नरसंहार, भागलपुर, मलियाना से लेकर 1947 से लेकर कितनी बार हुए दंगों से पीड़ित नहीं हैं। उनके लेखन में भी यह पीड़ा कभी उभरकर नहीं आती वे तो बस मोदी के दंगों से पीड़ित हैं। यह जाने बिना कि आखिर गुजरात का दंगा हुआ क्यों? गुजरात के दंगे गोधरा के भीषण नरमेघ की प्रतिक्रिया में हुए थे। उस घटना के बाद गुजरात जल उठा। आखिर सेकुलर राजनीति चैंपियन मुलायम सिंह के राज में दंगें क्यों हो रहे हैं? क्या कारण है कि मुलायम सिंह दंगों की सीरीज के बावजूद सेकुलर राजनीति के मसीहा बने हुए हैं और मोदी जिनके राज में 2002 के बाद कोई दंगा नहीं हुआ वे सेकुलर बुद्धिजीवियों के निशाने पर हैं?

सही मायने में हमारे बुद्धिजीवी मोदी के खिलाफ ‘सुपारी किलर्स’ की तरह व्यवहार कर रहे हैं। आखिर यह सुपारी किसने दी है? वे कौन होते हैं भारत के एक राज्य के तीसरी बार निर्वाचित मुख्यमंत्री के खिलाफ इस प्रकार विष वमन करने वाले और लोगों को गुमराह करने वाले? भारत की जनता की समझ क्या इतनी भोथरी है कि वह सही और गलत का फैसला न कर सके। आखिर क्या कारण है देश के तमाम चुनावों में ये बुद्धिजीवी इतनी रुचि नहीं दिखाते किंतु नरेंद्र मोदी के खिलाफ ये तुरंत एकजुट हो गए। इसमें कहीं न कहीं संदेह उपजता है कि ये बुद्धिजीवी भारतीय लोकतंत्र और उसके नागरिकों के शुभचिंतक नहीं हैं। देश में पिछले दस सालों में क्या कुछ नहीं हुआ। महंगाई, भ्रष्टाचार और कदाचार के प्रतिदिन होते प्रसंगों पर, नक्सलियों के आतंक और आतंकियों की वहशत पर हमारे बुद्धिजीवियों की क्या भूमिका रही है? कहने की आवश्यक्ता नहीं है। आखिर नरेंद्र मोदी अगर देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो इस देश के संविधान की शपथ लेकर और जनसमर्थन के बाद ही बनेंगें। क्या हमें अपने संविधान,संसद, न्याय व्यवस्था पर भरोसा नहीं है? क्या नरेंद्र मोदी ने गुजरात में ऐसा कुछ किया है, जिसके प्रमाण इन बुद्धिजीवियों के पास हैं? सिर्फ अपने राजनीतिक विरोधों और राजनीतिक दुराग्रहों के आधार पर मोदी को लांछित करना ठीक नहीं हैं। बहुत दिन नहीं हुए जब 90 के दशक की राजनीति में लालकृष्ण आडवानी को ऐसे ही सांप्रदायिक फ्रेम में कसा जाता था। आज वे भी सेकुलर नेताओं के दुलारे हैं। अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार बनने के पहले ऐसी ही आशंकाएं उनकी सरकार को लेकर भी जतायी जाती थीं। आज भी भाजपा देश के कई राज्यों गुजरात, मप्र, छत्तीसगढ़, गोवा में सत्ता में है, पंजाब में वह सहयोगी दल है। बिहार में जेडीयू की सहयोगी रही है। उप्र, कर्नाटक,महाराष्ट्र में उसकी सरकारें रही हैं। क्या वे सरकारें अल्पसंख्यकों से भेद करती नजर आयीं। क्या वे संविधान को तोड़ती नजर आयीं। जाहिर तौर पर नहीं। भाजपा और उसकी सरकारों का कामकाज कमोबेश अन्य दलों की सरकारों जैसा ही रहा है। कई मायने में बेहतर भी। दिल्ली से लेकर राज्यों तक में भाजपा के साथ सत्ता का अनुभव देश और सहयोगी दलों सबको है। आज देश की राजनीति में भाजपा अश्पृश्य नहीं है। वह देश की एक ऐसी पार्टी है जिसने अपने भौगोलिक और राजनीतिक विस्तार किया है। विविध समाजों और पंथों और क्षेत्रों तक उसकी पहुंच बनी है। वही है जो राष्ट्रपति पद के लिए डा. एपीजे कलाम को चुन सकती है और एक ईसाई आदिवासी पीए संगमा का समर्थन कर सकती है। वही है जो कश्मीर पंडितों की पीड़ा और उनके आर्तनाद में साथ खड़ी हो सकती है। वही है जिसके जिसके लिए अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की परिभाषाएं बेमानी है। भारतीयता उसके केंद्र में है। इसे वे नहीं समझ सकते जो विदेश विचारों,विदेशी सोच और विदेशी पैसों के बल पर सोचते और बोलते हैं। कोई भी विचारधारा देश से बड़ी नहीं होती। किंतु फिर भी कुछ लोगों के लिए चीन युद्ध के समय चीन के चेयरमैन माओ उनके भी चेयरमैन लगते रहे हैं। रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण उनके लिए राजनीतिक नारा हो सकता है। किंतु जिन्हें देश की, उसके इतिहास की समझ नहीं है, उन्हें तो सरदार पटेल द्वारा सोमनाथ का उद्धार भी एक राजनीति ही लगेगा। देश के बुद्धिजीवियों से देश इसीलिए निराश है। क्योंकि वे राजनीति के आगे चलने वाली मशाल बनने के बजाए खुद राजनीति का हिस्सा बन गए हैं। ऐसी राजनीति का हिस्सा जिसे इस देश के मन की थाह नहीं है। ऐसी राजनीति जो बंटवारे और टुकड़े करने में भरोसा रखती है। उसे नरेंद्र मोदी रास कहां आएंगें? उन्हें तो मनमोहन सिंह, गुजराल, देवगौड़ा या कुछ भी दे दीजिए वे सह लेंगे पर वे एक नरेंद्र मोदी को नहीं सह सकते क्योंकि उन्हें पता है कि मोदी का मतलब एक ऐसी विचारधारा है जिसके लिए राष्ट्र सर्वोपरि है जबकि इनकी परिभाषा में भारत एक राष्ट्र है ही नहीं। इनका बस चले तो ये कश्मीर पाकिस्तान को, छ्त्तीसगढ़ माओवादियों को और अरूणाचल चीन को सौंप दें। ऐसे बुद्धिजीवी इस देश को नहीं चाहिए, हम बुद्धिहीन ही सही पर देश नहीं बंटने नहीं देंगें। इसीलिए प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की आवाज जब प्रचार माध्यमों पर गूंजती है- ‘मैं देश नहीं झुकने दूंगा’ तो इन बुद्धिवादियों को दर्द सबसे ज्यादा होता है, किंतु हर आम हिंदुस्तानी इस पर मंत्र झूम उठता है, झूमता रहेगा।

10 COMMENTS

  1. संजय जी,
    बुद्धिमान और बुद्धिजीवी में वही फर्क है जो विद्वान और पंडित में है। चार किताबो के आधार पर अपनी बात रखने वाला पंडित और अपनी मेधा के आधार पर अपनी बात कहने वाला विद्वान। उसी प्रकार बुद्धि के सहारे जीवन यापन करने वाला बुद्धिजीवी। जो सच कहने की हिम्मत न रखता हो वह कैसा राष्ट्रवादी और कैसा बुद्धिजीवी?

    हम गोधरा की बात नही करेगे सिर्फ गुजरात की बात करेगे और अपने को बुद्धिजीवी का तबका देगे? यदि गोधरा गलत है तो गुजरात दंगा भी गलत है। हम एक को याद करेगे दूसरे को विस्मृत यह बुद्धिजीवी का काम हो सकता है पर किसी बुद्धिमान का यकिन्न नही। देश से गद्दारी करने वाला चाहे हिन्दू हो चाहे मुसलमान वो सिर्फ गद्दार है न उसकी कोई जाति है ना उसकी कोई बिरादरी। और जो भी इसमें फर्क करता है वह यकिनन बुद्धिजीवी नही। याद रख्खे राष्ट्र पर मरने वाला हर व्यक्ति देश का सच्चा सपूत है। बन्द कीजिए इस तरह की बहसो को। जुबान चलाने के बजाय देश के लिये कुछ कीजिए। बुद्धिजीवी से आगे बढकर कर्मयोगी बने यही देश की सच्ची सेवा होगी। किसी बुद्धिजीवी का बेटा देश की सरहदो पर नही मरता। देश की सरहदो पर मर मिटने के लिये बुद्धि की नही, दिल में जज्बात की जरूरत होती है। अपने तीखे शब्दो के लिये क्षमा चाहूॅगा।

    जिन बेटो ने पर्वत काटे है अपने नाखूनो से ।
    उनकी कोई माॅग नही है दिल्ली के कानूनो से ।।
    जब बेटे की अर्थी आयी होगी सूने आॅगन में ।
    शायद दूध उतर आया होगा, बूढी माॅ के दामन में ।।

    आपका
    अरविन्द

    • आपकी टिप्पणी पढ़ मुझे एक लघु कथा याद हो आई। संक्षिप्त में कथा लक्कड़हारे की है जो बाहर की ओर दौड़ते न्योले के मुहं पर खून देख उसे यह सोच कर मार देता है कि अवश्य ही न्योले ने कुटिया के अंदर उसके नवजात बच्चे को हानि पहुंचाई है। कुटिआ के अंदर जा लक्कड़हारा मीठी नींद सो रहे बालक के समीप कटे मरे सांप को देख अपनी गलती का प्रायश्चित करता है। संजय द्विवेदी जी द्वारा तथाकथित बुद्धिजीविओं को अपने निबंध में बुद्धिजीवी कह संबोधन करने पर आप उनसे लक्कड़हारे सा व्यवहार कर बैठे हैं। आपने तो अपने नाम के आगे डाक्टर शब्द भी जोड़ रखा है तो आप क्योंकर बुद्धिजीवी न होंगे?

  2. संजय जी ने अपने लेख में तर्क कम और अपनी निष्‍ठा का प्रदर्शन ज्‍यादा किया है. अगर कुछ लोग, जो आज तक तो बहुमत में रहे हैं….मोदी और भाजपा का सत्‍ता में आना देश के लिये अहितकर मानते हैं तो इसमें बुराई क्‍या है. यह अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंञता है. जो मोदी को सपोर्ट नहीं करेगा वह देशभक्‍त और राष्‍टृभक्‍त नहीं है यह ठेका आपको कौन सी एजंसी से ि‍मला है…आज तक भाजपा को इस देश का बहुमत ठुकराता रहा है क्‍या यह सच नहीं है…आज अगर एनडीए को बहुमत या सबसे बड़े गठबंधन का दर्जा मिलेगा तो इसकी वजह उसका हिंदुत्‍व नहीं विकास का वादा और यूपीए का भ्रष्‍टाचार और जनविरोधी नीतियां होंगी याद रखना…संिवधान और कानून की बात उन लोगों के मुहं से शोभ्‍ाा नहीं देती ि‍जन्‍होंने सुप्रीम कोर्ट में झूठा हलफनामा देकर बाबरी मस्जिद तोड़ दी थी…जिनको उनके ही पीएम वाजपेयी ने दंगा कराते देख कहा था कि राजधर्म का पालन करो…इसका मतलब वे ऐसा नहीं कर रहे थे…पूरी दुनिया के मीडिया ने देखा कि माेदी सरकार दंगों को शह दे रही थी…यहां तक कि सेना भेजे जाने के बाद भी तैनात नहीं की गयी गुजरात में…यही भाजपा थी जिसने सोनिया को पीएम बनने के दावे का विदेशी मूल का बताकर विरोध किया था क्‍यों जब एक महिला ने भारतीय नागरिकता ले ली चुनाव जीत कर एमपी बन गयी तो आप कौन होते हैं पीएम बनने से रोकने वाले….आप कुछ भी करो तो ठीक दूसरे अपना विरोध या अलग राय रखें तो राष्‍टृृृृविरोधी….अभी तो भाजपा को बहुमत भी नहीं मिला. अगर एनडीए की सरकार बनती भी है तो मोदी का विवादित इतिहास देखकर उनका विरोध करने वाले अपने संवैधानिक अधिकार का इस्‍तेमाल करेंगे और करते रहेंगे…यहां तानाशाही या हिटलरशाही नहीं चल सकती यह इंदिरा ने एमरजेंसी लगाकर देख लिया था.

  3. r.r.sinh or p,mina ,nirankush, do saheb hai matlab angrejo ki soch se ab bhi bahar nahi aaye ya fir aisa sochne or likhne ke liye inko kuchh milta hoga varna aaj desh me jo hava chal rahi hai ya ban rahi hai vo ise na samaj sake itne nadan nahi hai .

    maine kai bar in dono ko padha hai muje lagta hai ye dono khokhle budhdhijivi hai or kyon na ho aaj aise budhdhijivio ko hi bhrast shasan ne pal rakha hai jo unke karname ko sahi or jan manas ko galat batate rehte hai ………

    hame budshdhinistho ki jarurat hai naki budhdhijivi ya budhdhivadiyo ki …

  4. मूल लेख को पढ़ने के लिए “अब मोदी के खिलाफ बुद्धिजीवियों का प्रलाप” पर क्लिक करें।

    1-लेखक का आलेख आद्योपांत पढ़ा और मैं पढ़कर यह सोचने को विवश हूँ कि आखिर इस आलेख को प्रवक्ता पर प्रकाशित क्यों कर किया गया है, जबकि इस लेख में कुछ बुद्धिजीवियों को कोसने के आलावा नया कुछ भी नहीं है? क्योंकि इस लेख में लिखी गयी बातें, तर्क या विचार संघ, भाजपा, हिदुत्व से जुड़े लेखकों के प्रवक्ता पर प्रकाशित हर उस तीसरे चौथे लेख में मिल जाएंगे जो आपने आप को स्वंभू राष्ट्रवादी कहते हैं! प्रायोजित और मनगढ़ंत विचारों के बार-बार दोहराव के आलावा इस लेख में कुछ भी तो नया नहीं है! जिन्हें फैलाना संघ की और भाजपा की नीति है, संभवत: लेखक उसी धर्म का निर्वाह कर रहे हैं!

    2-लेखक अपने उक्त लेख में लिखते हैं कि-

    “अफसोस तो यह है कि हमारे बुद्धिजीवियों की अपनी कोई राय है नहीं। वे स्वतंत्र चिंतन के बजाए ‘मोदी फोबिया’ से ग्रस्त हैं।”

    क्या मैं इसके उत्तर में ये लिखूं कि-

    “अफसोस तो यह है कि उक्त लेख के हमारे लेखक की अपनी कोई राय है नहीं। वे स्वतंत्र चिंतन के बजाए ‘संघ-भाजपा-मोदी फोबिया’ से ग्रस्त हैं।” तो क्या कुछ गलत होगा?

    3-लेखक लिखते हैं कि-

    “मोदी जिनके राज में 2002 के बाद कोई दंगा नहीं हुआ (फिर भी) वे सेकुलर बुद्धिजीवियों के निशाने पर हैं?”

    ये बही तर्क है जो फिल्म अभिनेता और आतंकवादियों के दोस्त रहे संजय दत्त के बारे में दिया गया था कि उसने जमानत पर छूटने के बाद कोई अपराध नहीं किया, बल्कि कथित रूप से राष्ट्र भक्ति के कार्य किये हैं, क्या संजय को जेल जाने से इस आधार पर मुक्ति मिल सकी जो मोदी को गुजरान नरसंहार के लिए दोषमुक्त कर दिया जाये? बेशक मोदी को कानून की अदालत ने संजय दत्त की भांति संदेह से पर मुसलमानों के नरसंहार के लिए दोषी नहीं माना गया हो, लेकिन देश का जनमानस (जिनमें परोक्ष रूप से उक्त लेख के लेखक भी शामिल नज़र आ रहे हैं, अन्यथा लेखक 2000 के बाद की बात क्यों करते? यही लिखते कि मोदी के राज में शुरू से कोई कोई दंगा नहीं हुआ) मोदी को गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के लिए उसी तरह से दोषी मानता है, जिस प्रकार से इंदिरा की हत्या के बाद हिन्दुओं को सिक्खों के कत्लेआम का दोषी माना जाता है, जिसके लिये भी दोष सिद्धि होना अभी शेष है! यहाँ ये ध्यान दिलाना भी जरूरी है कि सिक्खों के कत्लेआम में हर एक वो हिन्दू जो इंदिरा को राष्ट्रीय नेता मानता था, शामिल था। जिसमें कांग्रेस और संघ सहित अनेक विचारों से जुड़े हिन्दू शामिल थे! सिक्खो के खिलाफ जनता की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी, जिसे कुछ लोगों ने उसी भाँती भड़काया, जिस प्रकार से कथित रूप से गोधरा कांड की प्रतिक्रिया को मोदी, भाजपा और संघ ने भड़काया!

    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  5. यह कौन सा तर्क है कि मुलायम सिंह दंगे करवा रहे हैं,इसलिए नमो के विरुद्ध कोई जबान न खोले. यह कौन सा तर्क है कि जब नमो तीसरी बार गुजरात के मुख्य मंत्री बन गए हैं,तो उनके विरुद्ध कोई आवाज न उठाये. शीला दीक्षित तो चौथी बार मुख्य मंत्री बनने जा रही थी,अतः उनके विरुद्ध तो किसी को खड़ा ही नहीं होना चाहिए था.अरविन्द केजरीवाल ने कितनी बड़ी गलती की कि न केवल उन्हें ललकारा ,बल्कि चुनाव में उन्हें बुरी तरह हराया भी और अब उसकी जुर्रत देखिये कि वह ईश्वर तुल्य नेता के विरुद्ध भी लडने के लिए कमर कस कर तैयार हो गया.खैर यहां ईश्वर तुल्य नेता से वह चुनाव जीत भी गया,तो इस नेता के रावण जैसे दस सीस भले ही न हो, पर विकल्प है..
    अब तो लोग दुस्साहस पर उत्तर आएं हैं.अगर ईश्वर ने अपने को बड़ा बनाने के लिए एक नारी की बलि ही चढ़ा दी ,तो ऐसा क्या हुआ कि लोग इसको इतना उछालने लगे.ई ईश्वर पर लांछन लगाने से पाप लगता है.ऐसे भी नेताओं के सत्तर खून माफ़ हैं,उसपर भी ईश्वर के बराबर वाले नेता की..प्रभु नालायक भक्तों की नादानी माफ़ करें.

    • श्री आर सिंह जी के तर्क वास्तव में तार्किक हैं और उत्तर मांगते हैं।

      डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  6. सूरज की तरफ मुहं कर के थूकने पर वह थूक खुद पर गिरता है. तथाकथित बुद्धिजीवियों ने साबित कर दिया की वे जडो से कटे हुए खोखले लोग है.

  7. इस लेख मेन लेखक ने राश्त्रवादी भार्तीयोन की भाव्नओन का यथार्थ चित्रन किया है.अत्यन्त खेद क विशय है कि हमारे देश के सूचना तन्त्र शसन शिकशा व्यपार तथा उद्योग क्शेत्रोन् मेन मैकाले के मानस्पुत्रोन का एक् च्हत्र आधिपत्य चल ता आरहा है जो अप्ने आधिपत्य पर सन्कत की आशन्का मात्र से उद्वेलित हो जाते है .पर परिवर्तन को कौन रोक सक्ता है?

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