‘अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीयता’ का दूषित परिवेश

-राकेश कुमार आर्य-   india

स्वतंत्रता आंदोलन के काल में जो लोग अंग्रेजों की चाटुकारिता करते हुए राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी सक्रियता प्रदर्शित कर रहे थे, उनकी इस दोहरी मानसिकता पर पहला और प्रबल प्रहार करने वाले लोकमान्य तिलक थे। उन्होंने ऐसे लोगों के विषय में कहा था- यह लोग उत्कट देशभक्त हैं, लेकिन इनकी राष्ट्रीयता ही अंतरराष्ट्रीय है। क्यों? इसलिए कि हिंदुस्तान यदि नकली इंग्लिस्तान बन जाता है, तो वह किसी के काम का नहीं है।
यह सच है कि लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की वास्तविक राष्ट्रीयता को सरदार पटेल तक किन्हीं न किन्ही लोगों ने जीवित रखा और हमारे देश की जनता ने भी उन्हें ‘लोकमान्य’ और ‘लौहपुरूष सरदार’ जैसे सर्वोच्च सम्मान सूचक शब्दों से पुकारा, पर यह भी सच है कि देश की जनता अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीयता और वास्तविक राष्ट्रीयता की गुत्थी में ऐसी उलझाई गयी कि वह आज तक ‘सच’ को समझ नहीं पायी है।
हमारे लिए अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीयता कहीं अधिक प्रमुखता से परोस दी गयी और दुर्भाग्यवश हम इस अराष्ट्रीय राष्ट्रीयता को ही वास्तविक राष्ट्रीयता मानकर चल रहे हैं। भारत के विषय में लोगों की धारणा रही है कि ‘दुर्लभं भारते जन्मं, मानुष्यं तत्र दुर्लभम्’ । अर्थात भारत में जन्म पाना ही दुर्लभ है और फिर यहां मनुष्य बनकर आना तो और भी दुर्लभ है। ऐसी धारणा क्यों बनी? क्योंकि भारत के पास एक सुसंस्कृत जीवन व्यवहार को चलाकर उसे सार्वत्रिक उन्नति के शिखर तक पहुंचाने वाली जीवन प्रणाली थी। जिसे लोगों ने कभी वैदिक संस्कृति के नाम से तो कभी हिंदुत्व के नाम से पुकारा है। इस देश के राष्ट्रभक्तों ने स्वदेशी, स्वभाषा, स्वधर्म, स्वसंस्कृति और स्वराष्ट्र का जो राष्ट्रीय स्वाभिमान को जगाने वाला संगीत राष्ट्रीय आंदोलन में भरा उसका अर्थ यही था कि देश में वास्तविक राष्ट्रीयता को स्थापित किया जाएगा। परंतु ऐसा हुआ नहीं? क्योंकि देश में जिस समय यह ‘स्व-वाद’ की लहर चल रही थी उसी समय एक लहर वह भी थी जो ये कह रही थी कि- ”अंग्रेजों की तरह खाओ, अंग्रेजों की तरह पियो, अंग्रेजों की तरह रहो और अंग्रेजों की तरह (नंगे) नाचो”। यह कहते हुए दादा धर्माधिकारी अपनी पुस्तक : सर्वोदय दर्शन में मानते हैं कि ऐसी सोच रखने वाली लहर अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीयता थी। हमने इस सोच के तार को लंबा खींचा और देखा कि इस सोच के तार को लंबा खींचते-2 ‘स्व-वाद’ की वीणा के कई तार टूट कर कहीं गिर गये।
-स्वदेशी पर हमने ‘मेड इन इंग्लैण्ड’ के प्रति लगाव की अपनी मानसिकता को प्राथमिकता दी।
-स्वधर्म पर विदेशी अधर्म को प्राथमिकता दी।
-स्वभाषा पर विदेशी भाषा को प्राथमिकता दी।
-और ‘स्वराष्ट्र’ की भावना पर तो आज तक भी संशय में हैं कि हमारे भीतर एक राष्ट्र विद्यमान भी है, या नहीं। परिणाम निकला कि सब कुछ संशयग्रस्त हो गया। सारी व्यवस्था उलट-पलट हो गयी। सारी चीजें अस्त-व्यस्त हो गयीं। यही हिंदुस्तान को नकली इंग्लिस्तान बनाने की परिणति है।
किस किसको सजा दी जाए
आज के दौर में हर शख्स है मुजरिम यारो।
क्या खूब कहा है किसी शायर ने-
फिके्रदिल, फिक्रे जमाना, फिक्रेरोजी, फिक्रे हाल।
जल गया फिक्रात की दोजख में ईसां का शबाब।।
तो क्या इस दुखद स्थिति का एक मात्र कारण ये है कि हमारे देश की जनता कायर है या आलसी है? नहीं, ऐसा मानना फिर एक गलती पर गलती करना होगा। क्योंकि जनता नेतृत्व चाहती है। उसकी इच्छा होती है कि उसे ऐसा नेतृत्व मिले जो उसको अपने वास्तविक लक्ष्य तक पहुंचाए। जनता ने कभी अराष्ट्रीय राष्ट्रीयता के मुद्दे पर किसी दल को देश में वोट नहीं दिया। ना ही देश के नेताओं ने अराष्ट्रीय राष्ट्रीयता को कभी चुनावी मुद्दा बनाया। देश के नेताओं ने जनता को भ्रमित किया और अराष्ट्रीय राष्ट्रीयता को कभी तुष्टिकरण के नाम पर तो कभी आरक्षण के नाम पर, कभी साम्प्रदायिकता के नाम पर और कभी प्रांतवाद के नाम पर वास्तविक राष्ट्रीयता के रूप में प्रस्तुत किया। जनता इन ‘छदमी-छली-जयचंदों’ की इन छदमी नीतियों के जाल में कई बार उलझ कर रह गयी, अन्यथा यह सत्य है कि प्रजा न तो कायर होती है और न आलसी। उचित नेतृत्व का निरंतर अभाव उसे कायर और आलसी ही नहीं अत्याचार और अन्याय के प्रति सहिष्णु भी बनाता है। हमारे देश के सत्ताधीशों तथा कुछ मठाधीशों ने ऐसी व्यवस्था स्थापित की कि प्रजा मूर्ख रहे और वह मौज लूटते रहें। अत: समान शिक्षा और अनिवार्य शिक्षा को कभी इस देश में देश के नेताओं ने ईमानदारी से लागू नहीं किया। देश के संविधान की अस्थायी धारा 370 को कभी हटाने का ईमानदारी से प्रयास नहीं किया। खेती को कभी उद्योग का दर्जा देना नहीं चाहा। देश के संविधान में ही उपलब्ध समान नागरिक संहिता की अवधारणा को कभी स्थापित नहीं होने दिया, और गाय को कभी राष्ट्रीय पशु घोषित नहीं होने दिया। मिलावट, दिखावट और बनावट की ओट में राष्ट्रीयता की अस्मिता नीलाम होती रही और हमारे मान्यवर नये-नये शूट पहन पहनकर प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते रहे। इस मिलावट, दिखावट और बनावट को लेकर क्या कभी किसी ने धरना देना चाहा या अनशन करना उचित समझा? हमारे नेताओं की, सत्ताधीशों की या मठाधीशों की सोच रही कि-हमें मूर्खों के प्रति धन्यवाद अदा करना चाहिए क्योंकि उनके कारणा ही हमारा महत्व बढ़ता है। यदि सब बुद्धिमान हो जाएं तब भी काम नहीं चल सकता। वैसे मूर्ख और अक्लमंद दोनों ही बेकार हैं। आधा पागल और आधा अक्लमंद तो सबसे खतरनाक होता है। यह रहस्यात्मक पहेली है और अपनी अराष्ट्रीय राष्ट्रीयता के द्वारा हमने अपनी राष्ट्रीयता को भी कुछ ऐसी ही रहस्यमयी पहेली बनाकर रख दिया है।
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं।
आदमी या तो जमानत पर रिहा है या फरार।।
देश की संसद में देश की सत्ताधारी पार्टी के सांसदों ने तेलंगाना प्रकरण पर इतिहास रच दिया। असभ्यता और मूर्खता का ऐसा नंगा खेल खेला गया कि विदेशों ने हमारे विषय में जान लिया कि ये वही लोग हैं जिनके विषय में इनके अंग्रेज आकाओं की मान्यता थी कि ये आजाद होकर शासन नहीं कर पाएंगे। उधर ‘लोकलुभावन अराजकता’ को वास्तविक राष्ट्रीयता बताकर देश की राजधानी दिल्ली में एक व्यक्ति 49 दिन तक सुल्तान बना रहा और अपना ‘सिक्का’ चलाने की जिद कर बैठा। कहता था कि भले ही देश का बादशाह जिंदा हो, पर उसे तो अपना ‘सिक्का’ चलाना ही है। इस जिद को वह संविधान सम्मत कह रहा था और इसे ही वास्तविक राष्ट्रीयता बता रहा था। अपनी जिद को सिरे से चढ़ाने की जिद में वह व्यक्ति ‘जिंदा शहीद’ बनने की मुद्रा में आज हमारे बीच केजरीवाल के रूप में खड़ा है। किसी ने सच ही तो कहा है कि बेवकूफ लोग, बेबकूफ बनाने के लिए बेवकूफों की मदद से बेवकूफों के खिलाफ बेवकूफी करते हैं। निश्चित रूप से इन बेवकूफों की बेवकूफियों से राष्ट्र का अहित होता है।
ऐसे वैसे कैसे हो गये। कैसे कैसे ऐसे वैसे हो गये।।
जो लोग राष्ट्रीयता की बयार बहाने का कार्य कर रहे हैं, देश के कुछ ‘ऐसे वैसे’ लोग उनकी टांगें खींच रहे हैं। कैसे-कैसे कार्य देश में हो रहे हैं, देश की जनता सब कुछ देख रही है।
हम ऐसी कुल किताबें दाखिले जब्ती समझते हैं।
जिन्हें पढ़ पढ़ के लड़के बाप को खप्ती समझते हैं।
देश के नेताओं को समझना होगा कि-बच्चा यदि विरोध में जीता है तो वह लडऩा सीखता है, उपहास के बीच जीता है तो शरमाना सीखता है, लज्जा के बीच जीता है, तो अपराध भावना सीखता है, सहिष्णुता के बीच जीता है तो सब्र करना सीखता है, प्रोत्साहन के बीच जीता है तो विश्वास करना सीखता है, प्रशंसा के बीच जीता है तो सराहना करना सीखता है, त्याग भावना के बीच जीता है, तो इंसान बनना सीखता है, सुरक्षा भावना के बीच जीता है तो श्रद्धा करना सीखता है, सहमति के बीच जीता है, तो अपने आपको पसंद करना सीखता है, और यदि स्वीकृति और मित्रता के बीच जीता है तो संसार में प्यार पाना सीखता है। संसद में असंसदीय होकर बर्बर व्यवहार करने वाले हमारे माननीय और सत्ता में आकर असंवैधानिक होने वाले केजरीवाल क्या बता पाएंगे कि वह देश के बच्चों के लिए कौन सा परिवेश तैयार कर रहे हैं? उन्हें विरोध को भी मर्यादित बनाकर पेश करने की कला सीखनी चाहिए थी। परंतु 2014 का लोकसभा चुनाव उन्हें इस आशा में अमर्यादित बना गया कि जितनी उच्छृंखलता अब दिखा ली जाएगी, संभवत: उतना ही अगले चुनाव में सफल होने की संभावनाएं बलवती हो जाएंगी। अराष्ट्रीय राष्ट्रीयता को झलकाने वाली हमारे नेताओं की प्रवृत्ति का यह सबसे ज्वलंत उदाहरण था। हिंदू महासभा के अखण्ड भारत के निर्माण से तो इन्हें घृणा है पर देश के भीतर ही भीतर देश के संविधान की सीमाओं में रहते हुए एक प्रदेश अलग बन रहा है तो उस पर ये हंगामा काट देंगे और वो भी ऐसा कि जिससे देश का लोकतंत्र तार-तार होकर रह जाए। सर विलियम हण्टर का कहना था कि अंग्रेजों के आने से पहले विश्व में ‘हिन्दुस्तान का नागरिक’ नाम का कोई प्राणी नहीं रहता था। हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने भारतीय समाज की भाषाई, प्रांतीय, साम्प्रदायिक और वर्गीय सारी विसंगतियों को नजरअंदाज करते हुए भारत में एकल नागरिकता की अवधारणा का आरोपण किया। परंतु देश की संसद में तेलंगाना प्रदेश के निर्माण पर अपने विरोध प्रदर्शन की सारी सीमायें लांघते हुए कुछ सांसदों ने स्पष्ट कर दिया है कि देश अभी भी एकल नागरिकता की स्थापना के संकट से जूझ रहा है। यहां प्रांतीय ही नहीं क्षेत्रीय नागरिकता भी हैं, और वह आज भी देश की एकल नागरिकता पर भारी हैं। जबकि केजरीवाल ने बता दिया है कि मेरी असंवैधानिक जिद देश के संविधान से ऊपर है। आखिर इस ‘अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीयता’ के दूषित परिवेश में हम कब तक जीयेंगे?

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