हास्य-व्यंग्य/इंतजार चमत्कारी घोड़े के अवतार का..

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पंडित सुरेश नीरव

मनुष्य आस्तिक भी हो सकता है और नास्तिक भी। पर दोनों ही नस्ल के आदमियों का घोड़ास्तिक होना उसकी अंतिम नियति है। वह ईश्वर को लेकर तो बहस कर सकता है मगर अकल के सारे घोड़े दौड़ाने के बावजूद चाहे वह कितने भी उच्च गोत्र का गधा क्यों न हो घोड़ों की अवमानना करने के बाद तीनों लोकों में कहीं पनाह नहीं पा सकता। हर जगह-हर वक्त फास्टट्रैक दुलत्ताधिकारी घोड़े उसकी हॉर्सपावर पंचर करने को तैनात मिल जाएंगे। जल में दरियाई घोड़ा,थल में मैदानी घोड़ा और आसमान में सूरज के एक नहीं पूरे सात घोड़े उसकी वाट लगाने को तैयार खड़े मिल जाएंगे। चतुर आदमी ने हर युग में घोड़ों के बल पर ही अपनी दादागीरी की है। त्रेता युग में घोड़ों के बल पर ही रामचंद्रजी ने अश्वमेघ यज्ञ करके एक धोबी द्वारा छीनी अपनी सुप्रीमेसी वापस बरामद की थी। द्वापर में अर्जुन ने कृष्ण का विराट रूप देखने के बाद ही उन्हें अपने रथ का सारथी बनाने के काबिल समझा था। घोड़ों को विराटरूप दिखाने की फरमाइशी-जुर्रत अर्जुन ने कभी नहीं की। घोड़ों का क्या विराटरूप देखना। वो तो होते ही पैदाइशी विराट हैं। विराटता तो देवताओं और आदमियों की ही संदिग्ध होती है। तारीख गवाह है कि तमाम शूरवीर फन्ने खां घोड़ों की मेहरबानी से ही इतिहास में नागरिकता हासिल कर पाए हैं। हीरे की कदर जौहरी ही जानता है। सिकंदर इसीलिए महान था क्योंकि वह घोड़ों की कदर करना जानता था। उसे कुछ लोगों ने हाथी पर बैठने की सलाह दी। उसने कहा कि मैं इतना बड़ा गधा नहीं हूं कि उस वाहन की सवारी करूं जिसकी लगाम किसी दूसरे के हाथों में रहती हो। मैं अपने घोड़े को कभी नहीं छोड़ सकता। चेतक भी घोड़ा ही था जिसने कि अपनी मेहनत से हल्दीघाटीवाले महाराणा प्रताप की बहादुरीवाली इमेज बनवा दी। पृश्वीराज चौहान ने संयोगिता का हरण एक घोड़े के सक्रिय और नैतिक सहयोग के बूते पर ही किया था। इतिहास का सारा दारोमदार घोड़ों के मूड पर ही निर्भर रहा है। घोड़े का मूड सही था तो घोड़ा महारानी लक्ष्मीबाई को झांसी से कालपी सुपर स्पीड से पूरे 100 मील बिना रुके दौड़ा के ले आया और मूड खराब हो गया तो ग्वालियर में ऐसा अड़ा कि उसने एक अदना-सा नाला तक पार नहीं किया। और इतिहास की बाजी उलट दी।

ऐसी भी मान्यता है कि रावण यदि पुष्पक विमान के बजाय घोड़े पर सवार होकर सीता का हरण करने आता तो घोड़े की इज्जत के कारण ही सही इतिहास में रावण की इतनी इंसल्ट नहीं होती। मगर उसका दसवां सिर गधे का था इसलिए वह घोड़े की वेल्यू नहीं समझ पाया। एक ज़माना हुआ करता था जब रेसकोर्स में घोड़े दौड़-दौड़कर अपने मालिकों को करोड़पति बना दिया करते थे। फिर घोड़े मालिकों को करोड़पति बनाते-बनाते बोर हो गए। तो अब ये काम घोड़ों की जगह कौन बनेगा करोड़पति के जरिए अपने अमिताभ बच्चन को करना पड़ रहा है। ये है घोड़ों का जलवा। पशुजगत में घोड़ों का वही रुतबा है जो मानव समाज में ईमानदार आईएएस या आईपीएस अफसर का होता है। इसीलिए तो कहा जाता है कि अफसर की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी से बचना चाहिए। क्योंकि घोड़ा और अफसर अनुशासनात्मक कार्रवाई फुर्ती-फटाक से करने में दोनों ही बड़े माहिर होते हैं। लेकिन ज़रा सोचिए। उस अफसर के बारे में जो खुद घोड़े पर बैठा हो।

यानी कि करेला और नीम चढ़ा। कैसा पारदर्शी रहस्यवाद। समझ में ही नहीं आता कि अफसर कहां खत्म होता है और घोड़ा कहां से शुरू होता है। आदमी जब-जब इज्जतदार होना चाहता है घोड़े की शरण में जाता है। अच्छा खासा आदमी इज्जतदार बनने के लिए अपना नाम रख लेगा-अश्व घोष। अश्विनि कुमार। पांडु घोड़पकर। बेचारा आदमी। कभी सुना है आपने कि किसी घोड़े ने अपना नाम आदमियोंवाला रखा हो। उसे क्या जरूरत है। वो तो पैदाइशी खानदानी और इज्जतदार होता है। तभी तो फिल्म नया दौर में दिलीप कुमार तक ने घोड़े के सम्मान में घोड़ा पेशौरी मेरा जैसा भावुक गाना गाया था। घोड़े-तो-घोड़े घोड़ी के जलवे भी किसी विश्वसुंदरी से कम नहीं होतो। इसीलिए तो ब्यूटीपार्लर से सजी-धजी,बनी-ठनी अधेड़ हसीना को देखकर लोग-बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम के सर्वोच्च संबोधन से अलंकृत करते हैं। किसी घोड़ी की दुनिया में कहीं भी किसी औरत से तुलना करके उसकी बेइज्जती नहीं की जाती। कितना भी मेकअप करले औरत,घोड़ी का क्या मुकाबला करेगी। इसीलिए तो जब हम घोड़ी पर चढ़कर दुल्हन के दरवाजे पर पहुंचे थे तो हमने जयमाला दुल्हन की जगह घोड़ी को ही डाल दी थी। और हमारे इस विलक्षण सौंदर्यबोध पर सभी ने खुश होकर तालियां बजाई थीं। ठीक वैसे ही जैसे शोले फिल्म में दर्शक हेमामालिनी के होते हुए भी धन्नो घोड़ी के सम्मान में तालियां बजाते थे।

और फिल्म भी वे हेमामालिनी को नहीं धन्नो घोड़ी की धलक देखने ही जाते थे।

तो घोड़ा-घोड़ी की क्या महिमा गाएं। घोड़ों की तो नाल तक आदमी के लिए लाइफबेल्ट की तरह काम करती है। और उसे शनि की दादागीरी से महफूज रखती है।

हिंदू, सिख, मुगल, अंग्रेज, फ्रेंच, पुर्तगाली सभी को घोड़ों ने सेक्युलर भाव से तख्तो-ताज तक पहुंचाया है। घोड़ा साथ हो तो आदमी घोड़े बेचकर चैन से सो सकता है। ऐसी भविष्यवाणी है कि भगवान विष्णु का अगला अवतार घोड़े पर सवार कल्कि के रूप में होगा। ताज्जुब नहीं कि पेट्रोल की बढ़ती कीमतों से गुस्सायकर कोई सिरफिरा अपनी फिटफिटिया को किक की जगह लात मारकर घोड़े पर सवार होकर अपने को कल्कि घोषित कर दे। हो सकता है कि कल्कि ने अवतार ले भी लिया हो और उसे आज के गधों से निबटने के लिए बस एक अदद पराक्रमी घोड़े का इंतजार हो। घोड़े का इंतजार करना अवतारों की भी मजबूरी है।

देखें वह चमत्कारी घोड़ा कब अवतार लेता है।

2 COMMENTS

  1. आप के विचारों की घुड़सवारी लाजवाब है जनाब…..एक ई.पी.एस. आफिसर के लिए घुड़सवारी का अंग्रेजों का बनाया कानून आज भी कायम है. बाकायदा घुड़सवारी से छूट का आवेदन दे कर औपचारिकता निभाई जाती है….बेशक जीप चलाओ मगर ..हार्स पवार की दरकार तो है ही.

  2. मनुष्य आस्तिक भी हो सकता है और नास्तिक भी। पर दोनों ही नस्ल के आदमियों का घोड़ास्तिक होना उसकी अंतिम नियति है।

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