इराक़ में उपजे इस्लाम के नये आन्दोलन से भारत को ख़तरा

-डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री-
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इराक़ में गृह युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा, ऐसी चिन्ता बहुत से शान्तिप्रेमियों को सता रही है। बहुत से विद्वान इसे इस्लाम के ही भीतर के विभिन्न सम्प्रदायों के बीच की लड़ाई बता कर दुख प्रकट कर रहे हैं। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार सारा दोष अमेरिका का है। यदि वह सद्दाम हुसैन को न मारता तो इराक़ में यह गृह युद्ध न छिड़ता और न ही यह नरसंहार हो रहा होता। यह ठीक है कि इस्लाम का यह नया आन्दोलन कुछ सीमा तक उन कारणों से भी शुरू हुआ, जिसके पीछे अमेरिका के कुछ निर्णय भी ज़िम्मेदार हो सकते हैं, लेकिन वर्तमान में इराक़ में जो इस्लामी आन्दोलन चल रहा है, उसके पीछे इस्लाम की प्रकृति और स्वभाव को समझ लेना भी जरूरी है। इस्लाम के संस्थापक हज़रत मोहम्मद का देहान्त हो जाने के बाद अरब कबीलों ने, जो इस्लाम के अनुयायी हो गये थे। जल्दी ही दुनिया को इस नये मत में दीक्षित करने के लिये सैनिक अभियान शुरू कर दिया था। वैसे तो विभिन्न कबीलों में भी हज़रत मोहम्मद का उत्तराधिकारी कौन हो इसको लेकर जंग शुरू हो गई थी। यह जंग केवल आध्यात्मिक विरासत की जंग नहीं थी। यदि मामला केवल आध्यात्मिक मामलों का ही होता तो शायद जंग का स्वरुप कुछ और होता। यह मामला राजनैतिक सत्ता का भी था क्योंकि हज़रत मोहम्मद अपने जीवन काल में पैग़म्बर व आध्यात्मिक मार्गदर्शन होने के साथ साथ सम्राट भी थे। यह राजनैतिक पद ख़लीफ़ा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस विवाद में 632 में अबू वकर पहले ख़लीफ़ा बने और 634 में उमर दूसरे। लेकिन जब मामला हज़रत मोहम्मद के दामाद अली तक पहुंचा तो उनका नम्बर चौथा था। 661 में अली के बाद उनके पुत्र हसन की बारी थी। हसन ने गद्दीनशीन होने के बाद ख़लीफ़ा का पद मुवैया के पक्ष में त्याग दिया। लेकिन नये मुसलमान बने अरब कबीलों ने इस मसले का एक बारगी निबटारा कर देना उचित समझा।

उधर जब अरब कबीले सत्ता के उत्तराधिकार को लेकर लड़ रहे थे, उस समय इस्लाम के नये जोश से प्रभावित होकर अरब कबीले पड़ोसी देशों पर हमले ही नहीं कर रहे थे, बल्कि उन्हें जीत कर बलपूर्वक मतान्तरण के लिये विवश भी कर रहे थे। पड़ोस का इरान उनका पहला और आसान शिकार बना। वह पराजित भी हुआ और मतान्तरित भी, जिन्होंने इस्लाम स्वीकार करने से इन्कार कर दिया वे भाग कर हिन्दुस्तान में आ गये। भारत भी इस आक्रामक रवैये की आंच सिन्ध की ओर से अनुभव कर रहा था जिस पर मोहम्मद बिन क़ासिम ने हमला किया था।

उधर हज़रत मोहम्मद के उत्तराधिकार की लड़ाई अपनी चरम सीमा तक पहुंच चुकी थी। अरब के मुसलमानों ने हज़रत मोहम्मद के दोहित्र हुसैन को कर्बला के मैदान में समस्त परिवार सहित १० अक्तूबर ६८० को मार दिया। सत्ता के लालच में किये जा रहे इस अमानवीय कार्य का विरोध भारत ने भी किया। मोहियाल ब्राह्मणों ने हिम्मत के साथ हुसैन को अन्यायपूर्ण तरीक़े से मार रही मुसलमान सेनाओं से लोहा लिया और उसमें अनेक भारतीय शहीद भी हुये। इरान ने भी अरब के मुसलमानों के हाथों हुई करारी हार और उसके बाद मतान्तरण के कारण हुये अपमान का बदला लेने का सुनहरी अवसर समझा। इरानी सैन्य बल में तो अरब के मुसलमानों से पराजित हो गये थे लेकिन अरबों के सांस्कृतिक आक्रमण को पराजित करने का उन्हें सुनहरी अवसर मिल गया था। इरानी लोग मुसलमानों के विरोध में हुसैन की परम्परा के पक्ष में खड़े हो गये और शिया कहलाने लगे। यह मतान्तरण से अपमान भोग रहे इरान का इस्लाम के प्रति विद्रोह था और अरब के मुसलमानों के हाथों हुई अपमानजनक पराजय का एक प्रकार से परोक्ष बदला था। शिया समाज मुसलमानों के हाथों हुसैन की अमानुषिक हत्या की स्मृति में हर साल ताजिया निकालता था। पर मुसलमानों की दृष्टि में यह मूर्ति पूजा थी, जिसे तुरन्त बंद किया जाना चाहिये। लेकिन शिया समाज भला यह मूर्ति पूजा बन्द क्यों करता? बाद के इतिहास में अनेक परिवर्तन हुये। मुसलमानों ने अपने आस पास के देशों को ही नहीं, बल्कि यूरोप तक में धावे मार कर उनको जीता और मतान्तरित किया। तुर्क, अफ़ग़ान और मध्य एशिया के लगभग सभी कबीले इसके शिकार हुये लेकिन इस बीच ख़लीफ़ा का पद भी अनेक स्थानों से गुज़रता हुआ अन्त में तुर्की के पास आ गया। अरबों के पास बचा केवल मक्का। इसाइयों और मुसलमानों के बीच हुये भयंकर युद्धों में ही मुसलमानों ने विशाल आटोमन साम्राज्य खड़ा कर लिया। इरान और वर्तमान में इराक़ के नाम से जाना जाने वाला शिया समाज मुसलमानों का मुक़ाबला नहीं कर सका और एक प्रकार से अप्रासंगिक हो गया। परन्तु प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों ने पूरी स्थिति ही बदल दी। विशाल आटोमन साम्राज्य छिन्न भिन्न ही नहीं हुआ बल्कि ख़लीफ़ा का मुकुट धारण करने वाले तुर्की में ही लोगों ने बगावत कर दी और वहां के महान स्वतंत्रता सेनानी कमाल पाशा अता तुर्क के नेतृत्व में सत्ता पलट दी। कमाल पाशा ने ख़लीफ़ा के पद को तो समाप्त किया ही, लेकिन तुर्की लोग अरबों के अधिनायकत्व से इतने दुखी थे कि उन्होंने तुर्की भाषा को रोमन लिपि में लिखना स्वीकार कर लिया, अरबी लिपि को तुरन्त अलविदा कहा। आटोमन साम्राज्य के समाप्त हो जाने के बाद मुसलमानों की ताक़त क्षीण हो गई। यूरोपीय ताक़तों का दबदबा बढ़ा। लेकिन भारत पर हुये तुर्कों, मुग़लों, अफगानों के हमलों के कारण हुये मतान्तरण का कुछ दंश तो भारत को भी झेलना ही पड़ा। इस्लाम के नाम पर देश का एक भूभाग पाकिस्तान के नाम से अलग हो गया और दूसरा बांग्लादेश के नाम से अलग हुआ।
लेकिन अफ़ग़ानिस्तान पर हुये रुस के हमले के बाद इस्लामी इतिहास का एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। रुस का मुक़ाबला करने के लिये अमेरिका को जिहादी और ग़ाज़ी इस्लाम चाहिये था जो इस्लाम के नाम पर मारने के लिये भी तैयार रहे और मरने के लिये भी। इसलिए अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान पर रुस के हमले को इस्लाम पर हमले का नाम दे दिया और इस का मुक़ाबला करने के लिये मुसलमानों को जिहाद के लिये तैयार करना शुरू कर दिया। इस नये प्रयोग की प्रयोगस्थली अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी पाकिस्तान को बनाया गया। पाकिस्तान इसके लिये ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो गया क्योंकि उसे लगता था कि इस्लाम की यही जिहादी सेना बाद में जम्मू कश्मीर में भी प्रयोग की जा सकती थी। अपने इस प्रयोग में अमेरिका को इतनी सफलता तो मिली कि उसकी जिहादी सेना ने अफ़ग़ानिस्तान में रुसी सेना को नाकों चने चबा दिये। लेकिन रुस के पतन के बाद जब रूसी सेना ने अफ़ग़ानिस्तान से चले जाने का निर्णय कर लिया तो वहां लोकतांत्रिक या राजशाही की प्रतिष्ठा के स्थान पर जिहादी सेना के तालिबान का क़ब्ज़ा हो गया और इस नई इस्लामी आक्रामकता ने अमेरिका को भी अपना शिकार बना लिया। जैसा कि ख़तरा था भारत में जम्मू कश्मीर भी किसी सीमा तक इस आक्रामकता की चपेट में आ गया।

इस हालत में अमेरिका ने कुछ यूरोपीय देशों को साथ लेकर इस्लाम के इस जिहाद को रोकने का निर्णय किया। लेकिन सदा की भाँति इस निर्णय को क्रियान्वित करते समय उसने लगे हाथों अपने व्यवसायिक हितों का संवर्धन करने का निश्चय किया हुआ था। अमेरिका अपनी ऐतिहासिक परम्परा के अनुकूल ही एक तीर से दो शिकार करना चाहता था। उसने अफ़ग़ानिस्तान पर तो अपनी सेना भेजी ही लेकिन कुछ अरसे बाद सद्दाम हुसैन को मारने के बहाने उसने इराक़ में भी अपनी सेनाएँ भेज दीं। इतना ही नहीं पश्चिमी एशिया के कुछ देशों में स्थापित सरकारों को उखाड़ कर नई सरकार बनाने के जन आन्दोलनों को भी हवा देना शुरु कर दिया। जबकि स्पष्ट ही दिखाई दे रहा था कि इन देशों में स्थापित सरकारों को उखाड़ने का आन्दोलन चलाने वाली ताक़तें दरअसल कट्टर इस्लामी ताक़तें हैं।

इस पूरी पृष्ठभूमि में मुसलमानों के मन में एक बार फिर विश्व में इस्लामी राज्य स्थापित करने का सपना पैदा हुआ, ताकि दूसरे विश्व युद्ध के बाद समाप्त हो चुके ख़लीफ़ा और ख़लाफत को फिर ज़िन्दा किया जा सके। वैसे तो इसका अंकुर आोसामा बिन लादेन के वक़्त ही पैदा हो चुका था। इसकी मार में यूरोपीय देश तो आयेंगे ही, ख़ासकर वे देश जो कभी आटोमन साम्राज्य का हिस्सा रह चुके हैं ,लेकिन सबसे ज़्यादा ख़तरा उन देशों को हो सकता है, जिन पर कभी विदेशी इस्लामी सेनाओं ने क़ब्ज़ा भी कर लिया था, उन देशों को इस्लाम में मतान्तरित करने के प्रयास भी किये लेकिन इसमें उन्हें आधी अधूरी सफलता ही हासिल हुई। इस लिहाज़ा से इन नई जिहादी इस्लामी ताक़तों से ख़तरा भारत को ही है सबसे ज़्यादा है। वैसे केवल रिकार्ड के लिये अबू बकर अल बगदादी ने जो नई घोषणा की है, जिसे इराक़ की आधिकारिक सरकार ने नकारा है, उसमें अगला निशाना भारत को ही बताया गया है।

जिस प्रकार ओसामा बिन लादेन ने अफ़ग़ानिस्तान को केन्द्र मान कर, जिहाद के माध्यम से विश्व इस्लामी राज्य की कल्पना की थी उसी प्रकार अब पश्चिम एशिया में एक ऐसे देश की कल्पना की जा रही है जिसे आधार बना कर विश्व भर में इस्लाम का जिहादी आन्दोलन छेड़ा जा सके और नये क़ब्ज़ाये क्षेत्र को इस्लाम का वेटिकन बनाया जा सके। इराक़ में आईएसआईएस यानि इस्लामी स्टेट आफ इराक़ एंड सीरिया की स्थापना के प्रयास इस्लाम की जिहादी सेनाओं की इसी व्यापक योजना का हिस्सा है। इन जिहादी मुसलमानों ने इराक़ के काफ़ी हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया है। ऐसे समाचार भी मिल रहे हैं कि इन्होंने इराक़ सरकार के रासायनिक हथियारों के भंडारों पर भी क़ब्ज़ा कर लिया है। सद्दाम हुसैन की हत्या कर अमेरिका ने उस क्षेत्र में जो अस्थिरता पैदा की थी उस के दुष्परिणाम अब आने शुरु हुये हैं।

३ जनवरी को इस जिहादी सेना ने इस्लामी राज्य के नाम से नये राज्य की घोषणा कर दी, जिसकी राजधानी मोसुल को बनाया गया और २९ जून २०१४ को अबू बकर अल बगदादी ने अपने आप को इस्लामी राज्य का ख़लीफ़ा घोषित कर दिया। नये ख़लीफ़ा इराक़ के अतिरिक्त सीरिया को भी इस नये राज्य में शामिल करना चाहते हैं। इस नये इस्लामी राज्य के मुसलमान शायद इतिहास को उसी मरहले से दोबारा उठाना चाहते हैं, जहां हुसैन को १० अक्तूबर ६८० को परिवार समेत मार कर कर्बला के मैदान में छोड़ा था। यही कारण है कि इस नये इस्लामी राज्य के नये तथाकथित ख़लीफ़ा द्वारा अमानुषिक तरीक़े से शिया समाज का क़त्ल किया जा रहा है। इतना ही नहीं, नये ख़लीफ़ा के बन जाने के जोश में मुसलमानों ने जम्मू कश्मीर में भी शिया समाज पर हमले तेज़ कर दिये हैं। पाकिस्तान में तो मुसलमानों द्वारा एक प्रकार से शियासमाज का सफ़ाया ही किया जा रहा है । बगदादी का नया इस्लामी राज्य क़ब्ज़ाये गये क्षेत्र से शिया समाज का तो सफ़ाया कर ही रहा है उसके साथ ही उनके सभी तीर्थ स्थानों को भी मटियामेट कर रहा है। इतना ही नहीं, वह इस्लाम के आने से पूर्व के इतिहास को उसी प्रकार मटियामेट कर रहा है जिस प्रकार कभी अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान ने बामियान में भगवान बुद्ध की मूर्तियों को नष्ट करके किया था।

अनेक मुसलमान देशों में बगदादी की तर्ज़ पर ही इस्लामी आतंकवादी समूह अलग अलग नामों से संगठित हो रहे हैं, जो बहाबी बहाव में बह कर विश्व को दारुल इस्लाम बनाने के सपने को सार्थक करने के लिये क्रियाशील भी हो गये हैं। भारत में भी इसके प्रमाण मिल रहे हैं। अब बगदादी इन सभी में समन्वय स्थापित करने का प्रयास करेगा ही। उधर पश्चिमी एशिया में शिया समाज के बाद कुर्द कबीले के लोग मुसलमानों के क्रोध का शिकार हो सकते हैं क्योंकि इस कबीले के लोगों ने इस्लाम को स्वीकार कर लेने के बाद भी कुछ सीमा तक अपनी इस्लाम पूर्व कबीला संस्कृति को छोड़ा नहीं है। भारत को अभी से मुसलमानों के देशों में हो रहे इन नये परिवर्तनों को देखते हुये सचेत होना चाहिये और इस नये आक्रमण का मुक़ाबला करने की रणनीति बनानी चाहिये। सबसे बड़ी चिन्ता की बात तो यह है कि पड़ोसी देश पाकिस्तान इन नये इस्लामी आक्रामक सपनों को पंख लगाने की कोशिश कर रहा है और इस का लाभ उठा कर कश्मीर घाटी में जिहादियों को भेज रहा है। अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना के चले जाने के बाद भारत पर यह ख़तरा और बढ़ेगा। पाकिस्तान यह भूल रहा है कि यदि खलाफत को पुनर्स्थापित करने के लिये मुसलमानों की ताक़तें इक्कठा होती हैं तो वे उसे इस आन्दोलन का कभी भी हरावल दस्ता नहीं बनने देंगी क्योंकि उनकी नज़र में पाकिस्तान के लोग हिन्दुओं की विरासत का ही हिस्सा हैं जो अभी तक अपने पूर्वजों की विरासत और इतिहास को छोड़ने की छटपटाहट में घिरा हुआ है। अरबों, तुर्कों इत्यादि का हिस्सा बनने की उतावली में वह चाहे जितने मर्ज़ी रसूल निन्दा के विरोध में क़ानून बना ले और उसका उल्लंघन करने वालों को गोलियों से उड़ा दे, शिया समाज को चुन चुन कर मार मिटा दे, लेकिन उनकी नज़र में वह दोयम दर्जे का पिछलग्गू ही रहेगा, नेता नहीं।

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