उबाऊ होता ‘दाऊद – पुराण’…!

-तारकेश कुमार ओझा-

dawood_ibrahim_20051128अपना बचपन  फिल्मी पर्दो पर डाकुओं की जीवन लीला देखते हुए बीता। तब कुछ डाकू अच्छे भी होते थे, तो कुछ  बुरे भी। किसी के बारे में बताया जाता कि फलां डाकू है तो काफी नेक, लेकिन परिस्थितियों ने उसे हाथों में बंदूक थामने को मजबूर कर दिया। कुछ डाकू जन्मजात दुष्ट प्रकृति के भी बताए जाते। लेकिन डाकुओं की जिंदगी पर बनी किसी फिल्म में देशद्रोही डाकू कभी देखने को नहीं मिला फिर फिल्मी पर्दों से डाकू एकाएक गायब होते गए। उनका स्थान पहले तथाकथित दादा औऱ फिर  गुंडे – मवाली लेने लगे। लेकिन 90 के दशक में संगठित  माफियाओं का चित्रण फिल्मी पर्दों पर होने लगा। 1993 में मुंबई में हुए सीरियल बम धमाकों में लिप्तता के लिए एेसे ही एक माफिया दाऊद इब्राहिम और उसके शार्गिदों का नाम पहली बार सुन कर मैं अवाक रह गया। आदमी की प्रकृित चाहे जैसी हो  लेकिन कोई उसी मिट्टी को खून से रंगने पर आमादा हो जाए जिस पर उसने जन्म लिया। अपने उन्हीं निरपराध भाई – बहनों की जानें लेकर वह खुश हो, जिसके साथ वह पला – बढ़ा यह बात कल्पना से भी परे है। लेकिन मुंबई बम धमाके के समय से हम जिस दाऊद इब्राहिम का नाम एक कुख्यात अपराधी के रूप में सुनते आ रहे हैं,  हमारे राजनेताओं की अक्षमता ने उसे दाऊद पुराण में तब्दील कर दिया है। जिसकी कारस्तानियां खत्म होने के बजाय लगातार नया रूप लेती जा रही है।बिल्कुल किसी मेगा सीरियल की तरह कि जब लगे कि अब कुछ होगा तभी कहानी में नया टवी्स्ट। मुंबई बम धमाकों के ताजा जख्मों के दिनों में कभी – कभार अखबारों में उसके और उसके अनगिनत भाईयों के पाकिस्तान में बैठ कर राजा – महाराजाओं जैसी जिंदगी की कहानियां पढ़ – सुन कर खून खौलने लगता। फिर चैनलों का दौर आया तो इस पर भी उसके कारनामों की जब – तब चर्चा होती ही रहती। कभी दाऊद की अकूत धन संपत्ति की तो कभी उसके बाल – बच्चों की शाही शादियों की चर्चा देख – सुन कर सिर लज्जा से झूक जाता कि एक अपराधी के आगे हमारे देश के कर्णधार किस कदर बेबश हैं। चैनलों पर दाऊद के कराची स्थित शाही कोठे के नजारे भी अनगिनत बार देखने को मिले। कई बार चैनलों पर दाऊद की कथित आवाज भी सुनने को मिली।जिसका प्रचार कुछ इस अंदाज में किया जाता रहा मानो कुछ देर बाद फलां चैनल पर देववाणी सुनाई जाएगी। चुनावी मौसम व राजनैतिक क्राइसेस के दौर में अक्सर दाऊद की गिरफ्तारी की अटकलें भी लगती। लेकिन नतीजा फिर सिफर वाली बात। एक दौर में कई फिल्मों के बारे में सुनने को मिला कि यह दाऊद इब्राहिम की जिंदगी पर आधारित है। यह सोच कर फिल्म देखने गया कि इसमें उसके कारनामों के बारे में देखने को मिलेगा। लेकिन कहां … फिल्म में तो घूमा – फिरा कर दाऊद इब्राहिम का महिमामंडन ही नजर आया। अब हाल में एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी के मार्फत यह जानने का मौका मिला कि दाऊद इब्राहिम सरेंडर होना चाहता था, लेकिन किसी वजह से यह नहीं हो सका। इससे संदेश तो यही मिलता है कि जैसे दाऊद तो देश पर एहसान करने को तैयार था, लेकिन यह हमारी नाकामी है कि हम उससे एेसा नहीं करवा पाए। बहरहाल दूसरे अहम मुद्दों की तरह इस मामले में भी उक्त अधिकारी ने  मीडिया पर बयान को तोड़ – मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगाते हुए अपना पिंड किसी तरह छुड़ा लिया। लेकिन संसद से लेकर सत्ता के गलियारों तक में दाऊद को लेकर बयानबाजी का दौर लगातार जारी है। जिसे पढ़ – सुन कर माथा पीट लेने का मन करता है। क्योंकि  हमारे राजनेताओं का यह दाऊद पुराण अब देशवासियों के लिए असह्य हो चला है। करोड़ों देशवासियों की ओर से राजनेताओं से विनम्र  प्रार्थना है कि वह दाऊद इब्राहिम को उसके अंजाम तक पहुंचाने में सक्षम न हों तो और बात है। लेकिन मेहरबानी करके यह दाऊद पुराण बांचना अब पूरी तरह से बंद किया जाए। क्योंकि यह हर भारतीय को गहरी टीस देता है।

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