नैतिक बल का पर्याय है, बाबा का हठयोग

प्रमोद भार्गव

कानून व व्यवस्था में अमूलचूल बदलाव के लिए बाबा का हठयोग इसलिए दृढ़ संकल्प का पर्याय बन रहा है, क्योंकि उनके साथ नैतिकता और ईमानदारी का बल भी है। वैसे भी हठी और जिद्दी लोग ही कुछ नया करने और अपने लक्ष्य को हासिल करने की ताकत रखते हैं। बाबा को व्यापारी कहकर उनकी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम पर हमला बोला जा रहा है। लेकिन यहां गौरतलब है कि बाबा ने योग और आयुर्वेद दवाओं से पहले पैसा कमाया और वे यह धन देश की राजनीति और नौकरशाही का शुध्दीकरण कर उसे पुनर्जन्म देने की कोशिशों में लगा रहे हैं तो इसमें खोट कहां है ? हमारे विधायक, सांसद और मंत्री तो सत्ताा हासिल करने के बाद भ्रष्ट आचरण से पैसा कमाते हैं और फिर लोक छवि बनी रहे यह प्रदर्शित करने के लिए व्यापार की ओट लेते हैं। ये काम भी ऐसे करते हैं जो गोरखधंधों और प्राकृतिक संपदा की अंधाधुंध लूट से जुड़े होते हैं। बाबा ईमानदारी से आय और विक्रयकर भी जमा करते हैं। यदि वे ऐसा नहीं कर रहे होते तो उन्हें अब तक आयकर के घेरे में ले लिया गया होता अथवा सीबीआई ने उनके गले में आर्थिक अपराध का फंदा डाल दिया होता। बाबा ने व्यापार करते हुए जनता से रिश्ता मजबूत किया, जबकि हमारे जनप्रतिनिधि निर्वाचित होने के बाद आम आदमी से दूरी बढ़ाने लगते हैं। इन्हीं कारणों के चलते बदलाव की आंधी जोर पकड़ रही है और देश की जनता अण्णा हजारे व बाबा रामदेव जैसे निश्चल व ईमानदार गैर राजनीतिक शख्सियतों में नायकत्व खोज उनकी ओर आकर्षित हो रही है।

अण्णा हजारे के बाद बाबा के अनशन से परेशान केंद्र सरकार के प्रकट हालातों ने तय कर दिया है कि देश मे ंनागरिक समाज की ताकत मजबूत हो रही है। इससे यह भी साबित होता है कि जनता का राजनीतिक नेतृत्वों से भरोसा उठता जा रहा है। विपक्षी नेतृत्व पर भी जनता को भरोसा नहीं है। अलबत्ताा अण्णा और बाबा के भ्रष्टाचार से छुटकारे से जुड़े एसे आंदोलन ऐसे अवसर हैं, जिन्हें बिहार, ओडीसा, बंगाल और तमिलनाडू की सरकारें सामने ये कर अपना समर्थन दे सकती थीं। भ्रष्टाचार के मुद्देपर वामपंथ को भी इन ईमानदार पहलों का समर्थन करना चाहिए। लेकिन बंगाल की हार के बाद वे अपने जख्म ही सहलाने में लगे हैं। अन्य मठाधीश बाबाओं के भी करोड़ों चेले व भक्त हैं। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर इन्हें अपनी कुण्डली तोड़कर रामदेव और अण्णा के साथ आकर नागरिक समाज की ताकत मजबूत करने में अपना महत्ताी योगदान देना चाहिए। 1964 में हजारों नगा साधुओं ने गोहत्या के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन छेड़ा था। दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद और महार्षि अरबिन्द जैसे दिग्गज संतों ने भी आजादी की लड़ाई में अपनी पुनीत आहुतियां दी थीं। क्योंकि अण्णा और बाबा जिन मुद्दों के क्रियान्वयन के लिए लड़ रहें हैं, उनमें गैरबाजिव मुद्दा कोई नहीं है। इसलिए सामंतवादी और पूंजीादी राजनीति की शक्ल बदलनी है तो यह एक ऐसा सुनहरा अवसर है जिसमें प्रत्येक राष्ट्रीय दायित्व के प्रति चिंतित व्यक्ति को अपना सक्रिय समर्थन देने की जरूरत है।

जनता यदि गरम लोहे पर चोट करने से चूक गई तो तय है, जिस तरह से लोकपाल के मुद्दे पर वादाखिलाफी करते हुए केंद्र सरकार इसे एक कमजोर लोकपाल विधेयक बनाने में जुट गई है, उसी तरह बाबा की मांगों पर भी वादा करने के बाद कुठाराघात कर सकती है। यदि ऐसा होता है तो भ्रष्टाचार के खिलाफ वजनदार संस्थाएं खड़ी करने का स्वप्न दरक जाएगा। मजबूत इच्छाशक्ति सामने न आने की वजह से ही लोकपाल विधेयक बयालीस साल से लटका है। और अब पूरे विधेयक को ही खटाई में डालने की कवायद शुरू हो गई है। लोकपाल का जो पहला मसौदा सामने आया था, उसमें प्रधानमंत्री पद को भी प्रस्तावित कानून में शामिल किया जाना था। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस पद को लोकपाल के अंतर्गत लाने की वकालात सार्वजनिक मंचों से कई मर्तबा कर चुके हैं। लेकिन समिति में शामिल मंत्रियों की दलील है कि प्रधानमंत्री को भी जांच के दायरे में ले लिया गया तो सरकार का कामकाज प्रभावित होगा। उसकी क्रियाशीलता बाधित होगी।

इसी तर्ज पर सांसद और विधायकों को भी इस विधेयक से बाहर रखने की पैरवी करते हुए कहा जा रहा है कि विधायिका को केंद्र में रखते हुए निर्वाचित प्रतिनिधियों के आचरण पर कोई कानूनी कार्रवाई करना अनुचित है। लेकिन यहां सवाल राजनीति या कानून बनाने संबंधी फैसले न होकर, पैसा लेकर सवाल पूछने जैसे मुद्दों अथवा रिश्वत लेकर विधायक व सांसद निधि को मंजूर करने जैसे मसलों, और विश्वास मत के दौरान खुद बोली लगवाकर बिक जाने जैसे संविधान विरोधी कृत्यों से है। कदाचरण के ऐसे वाक्यात सामने आने के बावजूद प्रतिनिधियों को दोष मुक्त रहने दिया जाता है तो राजनीतिक भ्रष्टाचार पर अंकुश कैसे लगेगा ? इसी तरह सरकार संयुक्त सचिव से ऊपर के नौकरशाहों, रक्षा अधिकारियों और उच्च न्यायपालिका के न्यायाधाीशों को भी लोकपाल से बाहर रखना चाहती है। अण्णा की तरह बाबा रामदेव भी एक सक्षम लोकपाल चाहते हैं।

अण्णा हजारे की तो एकमात्र मांग थी सक्षम व समर्थ लोकपाल, जिसे सरकार अक्षम व असमर्थ बनाने की कोशिश में लगी है। बाबा रामदेव विदेशी बैंकों में भारतीयों के जमा कालेधन को भी भारत लाकर राष्ट्रीय संपत्तिा घोषित करवाना चाहते हैं। यदि यह धन एक बार देश में आ जाता है तो देश की समृध्दि और विकास का पर्याय तो बनेगा ही, आगे से लोग देश के धन को विदेशी बैंकों में जमा करना बंद कर देंगे। हालांकि कालाधन वापिसी का मामला दोहरे कराधान से जुड़ा होने के कारण पेचीदा जरूर है, लेकिन ऐसा नहीं है कि सरकार मजबूत इच्छा शक्ति जताए और धन वापिसी का सिलसिला शुरू हो ही न ? बाबा की दूसरी बड़ी मांग हजार और पांच सौ के नोटों को बंद करने की है। ये नोट बंद हो जाते हैं तो निश्चित ही ‘ब्लेक मनी’ को सुरक्षित व गोपनीय बनाए रखने और काले कारोबार को अंजाम देने के नजरिये से जो आदन-प्रदान की सुविधा बनी हुई, उस पर असर पड़ेगा। नतीजतन काले कारोबार में कमी आएगी। सरकार यदि काले धंधों पर अंकुश लगाने की थोड़ी बहुत भी इच्छाशक्ति रख रही होती तो वह एक हजार के नोट तो तत्काल बंद करके यह संदेश दे सकती थी कि उसमें भ्रष्टाचार पर रोकथाम लगाने का जज्बा पैदा हो रहा है।

बाबा रामदेव ‘लोक सेवा प्रदाय गारंटी विधेयक’ बनाने की मांग भी कर रहे हैं। जिससे सरकारी अमला तय समय सीमा में मामले निपटाने के लिए बाध्यकारी हो। समझ नहीं आता कि इस कानून को लागू करने में क्या दिक्कत है। बिहार और मध्यप्रदेश की सरकारें इस कानून को लागू भी कर चुकी हैं। मध्यप्रदेश में तो नहीं, बिहार में इसके अच्छे नतीजे देखने में आने लगे हैं। इस कानून को यदि कारगर हथियार के रूप में पेश किया जाता है तो जनता को राहत देने वाला यह एक श्रेष्ठ कानून साबित होगा। ऐसे कानून को विधेयक के रूप में सामने लाने में सरकार को विरोधाभासी हालातें का भी सामना कमोबेश नहीं करना पड़ेगा। प्रशासन को जवाबदेह बनाना किसी भी सरकार का नैतिक दायित्व है।

बाबा की महत्वपूर्ण मांग अंग्रेजी की अनिवार्यता भी खत्म करना है। इसमें कोई दो राय नहीं अंग्रेजी ने असमानता बढ़ाने का काम तो पिछले 63 सालों में किया ही है, अब वह अपारदर्शिता का पर्याय बनकर मंत्री और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने का भी सबब बन रही है। बीते एक-डेढ़ साल में भ्रष्टाचार के जितने बड़े मुद्दे सामने आए हैं, उन्हें अंग्रेजीदां लोगों ने ही अंजाम दिया है। पर्यावरण संबंधी मामलों में अंग्रेजी एक बड़ी बाधा के रूप में सामने आ रही है। जैतापुर परमाणु बिजली परिर्याजना के बाबत 1200 पृष्ठ की जो रिपोर्ट है, वह अंग्रेजी में है और सरकार कहती है कि हमने इस परियोजना से प्रभावित होने वाले लोगों को शर्तों और विधानों से अवगत करा दिया है। अब कम पढ़े-लिखे ग्रामीण इस रिपोर्ट को तब न बांच पाते जब यह मराठी, कोंकणी अथवा हिन्दी में होती ? लेकिन फिर स्थानीय लोग इस परियोजना की हकीकत से वाकिफ न हो जाते ? बहरहाल रामदेव के सत्याग्रही अनुष्ठान की मांगे उचित होने के साथ जन सरकारों से जुड़ी हैं। इस अनुष्ठान की निष्ठा खटाई में न पड़े इसलिए इन मांगों की पूर्ति के लिए सरकार समझौते के लिए सामने आती है तो उन्हें समय व चरणबध्द शर्तों के आधार पर माना जाए।

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