लोकतांत्रिक पत्रकारिता का आईना है ‘कही अनकही’

उत्तर-पूर्व के राज्यों और पश्चिम बंगाल में हिन्दी पत्रकारिता में लोकप्रिय अखबार ‘सन्मार्ग’ की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह इस क्षेत्र का सबसे बड़ा अखबार है। इसका व्यापक पाठक समुदाय इसकी सबसे बड़ी ताकत है। अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी को जन-जन तक संचार की भाषा बनाए रखने में इस अखबार की बहुत बड़ी भूमिका है। यह भूमिका उस समय और भी बढ़ जाती है जब इन राज्यों में हिन्दी विरोधी आंधी चलती है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो ‘सन्मार्ग’ हिन्दीभाषियों की भाषायी और जातीय पहचान का आईना है। सामान्य नागरिक से लेकर सत्ता के गलियारों तक इस अखबार को बड़े चाव के साथ पढ़ा जाता है।

हाल ही में मुझे सन्मार्ग में सन् 2010 में प्रकाशित सम्पादकीय टिप्पणियों का एक संकलन ‘कही अनकही’ के नाम से देखने को मिला। देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि जब समाचारपत्रों में संपादक गायब हो गया हो,संपादक की पहचान प्रबंधक की रह गयी हो, ऐसी अवस्था में हिन्दी के एक दैनिक के सम्पादकीयों का पुस्तकाकार रूप में आना संपादक के गरिमामय पद की मौजूदगी का संकेत देता है। इन दिनों ‘सन्मार्ग’ के संपादक हरिराम पाण्डेय हैं। पाण्डेयजी विगत दो दशक से भी ज्यादा समय से इस अखबार के साथ जुड़े हुए हैं और इस अखबार को जनप्रिय बनाने में उनकी मेधा और कौशल की बड़ी भूमिका है।

कोलकाता से निकलने वाले समाचारपत्रों में ‘सन्मार्ग’ अकेला ऐसा अखबार है जिसने अपने पाठकों की संख्या में क्रमशः बढोतरी के साथ अपने सर्कुलेशन और विज्ञापनों से होने वाली आय में भी निरंतर इजाफा किया है। इस दौरान अन्य अनेक नए हिन्दी अखबारों ने अपने कोलकाता संस्करण प्रकाशित किए हैं। लेकिन ‘सन्मार्ग’ की लोकप्रियता के ग्राफ में इससे कोई कमी नहीं आयी है। इस समय कोलकाता से प्रभातखबर, दैनिक जागरण, नई दुनिया,राजस्थान पत्रिका,विश्वमित्र,जनसत्ता,छपते-छपते आदि अनेक दैनिक प्रकाशित हो रहे हैं। इससे कोलकाता के हिन्दी प्रेस में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का विकास हुआ है।

‘कही अनकही’ संकलन में ‘सन्मार्ग’ में सन् 2010 में प्रकाशित सम्पादकीयों को संकलित किया गया है। इस संकलन की एक ही कमी है ,इसमें संपादकीय टिप्पणी के साथ प्रकाशन की तिथि नहीं दी गयी है। प्रकाशन तिथि दे दी जाती तो और भी सुंदर होता। इससे मीडिया पर रिसर्च करने वालों को काफी मदद मिलती। यह एक तरह की शोध स्रोत सामग्री है। सामान्यतौर पर संपादकीय टिप्पणियों के प्रति ‘लिखो और भूलो’ का भाव रहता है। लेकिन इस संकलन के प्रकाशन ने ‘लिखो और याद रखो’ की परंपरा में इन टिप्पणियों को पहुँचा दिया है। संपादकीय टिप्पणियों में जिस नजरिए का प्रतिपादन किया गया है उससे एक बात झलकती है कि सम्पादक अपने नजरिए को किसी एक खास विचारधारा में बांधकर नहीं रखता। इसके विपरीत विभिन्न किस्म के विचारधारात्मक नजरिए के साथ उसकी लीलाएं सामने आती हैं। इनमें बुनियादी बात है सम्पादकीय की लोकतंत्र के प्रति वचनवद्धता । लोकतांत्रिक नजरिए के आधार पर विभिन्न विषयों पर कलम चलाते हुए संपादक ने सतेत रूप से ‘सन्मार्ग’ को सबका अखबार बना दिया है।

समाचारपत्र के संपादकीय आमतौर पर अखबार की दृष्टि का आईना होते हैं। इनसे अखबार के नीतिगत रूझानों का उद्घाटन होता है । ‘कही अनकही’ में विभिन्न विचारधाराओं के सवालों पर संपादकीय अंतर्क्रियाओं ने संपादकीय को विचारधारात्मक बंधनों से खुला रखा है। इन टिप्पणियों में मुद्दाकेन्द्रित नजरिया व्यक्त हुआ है। इसके कारण संपादकीय की सीमाओं को भी प्रच्छन्नतः रेखांकित करने में मदद मिलती है। पत्रकारिता के पेशे के अनुसार संपादक किसी एक विचारधारा या दल विशेष के प्रति निष्ठावान नहीं हो सकता।लेकिन समाचारपत्र के संपादकों की अपनी विचारधारात्मक निष्ठाएं होती हैं,जिन्हें वे समय-समय पर व्यक्त करते रहते हैं।

संपादकीय टिप्पणियां संपादकमंडल की सामूहिक पहचान से जुडी होती हैं। वे किसी एक की नहीं होतीं। जिन टिप्पणियों के साथ नाम रहता है वे उस लेखक की मानी जाती हैं । लेकिन जिन संपादकीय टिप्पणियों को संपादकीय के रूप में अनाम छापा जाता है उन्हें अखबार की आवाज कहना समीचीन होगा। इसके बाबजूद इस अखबार के संपादक होने के नाते हरिराम पाण्डेय ही इन संपादकीय टिप्पणियों के प्रति जबाबदेह हैं और ये टिप्पणियां उनकी निजी पत्रकारीय समझ को भी सामने लाती हैं।

‘कही अनकही’ का महत्व यह है कि इसके बहाने पहलीबार भारत के किसी हिन्दी अखबार की सम्पादकीय टिप्पणियों को देखने का मुझे अवसर मिला है। हिन्दी संपादकों में संपादकीय टिप्पणियों को पुस्तकाकार रूप में छापने की परंपरा नहीं है। बेहतर होगा अन्य दैनिक अखबारों के संपादक इससे प्रेरणा लें।

 

2 COMMENTS

  1. यह किताब २०११ के कोलकाता पुस्तक मेले के मौके पर जनवरी में प्रकाशित हुई है।

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