‘ईश्वर विद्वानों के निकट और अविद्वानों से दूर है : ईशावास्योपनिषद’

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-मनमोहन कुमार आर्य

ईशावास्योपनिषद् के नाम से विख्यात यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के मन्त्र क्रमांक 4 से 7 का ऋषि दयानन्दकृत
व्याख्यान महत्वपूर्ण होने के कारण इस लेख के माध्यम से यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।

ऋषि दीर्घतमाः। देवता ब्रह्म=स्पष्टम्। छन्द निचृत्त्रिष्टुप्। स्वर धैवतः।।
कैसा मनुष्य ईश्वर का साक्षात् करता है, यह उपदेश किया है।।
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवाऽआप्नुवन् पूर्वमर्षत्।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।।4।।
भाषार्थ- हे विद्वान् मनुष्यो ! जो (एकम्) अद्वितीय ब्रह्म है, वह (अनेजत्) कम्पन रहित अर्थात् अपनी अवस्था-स्वरूप से
कभी विचलित नहीं होता, वह (मनसः) मन के वेग से भी (जवीयः) अति वेगवान् (पूर्वम्) सब का अग्रणी, पूर्ण (अर्षत्) सर्वत्र मन
से पहले पहुंचा हुआ ब्रह्म है। (एनत्) इस ब्रह्म को (देवाः) अविद्वान् अथवा चक्षु आदि इन्द्रियां (न) नहीं (आप्नुवन्) प्राप्त कर
सकती हैं। (तत्) वह स्वयं (तिष्ठत्) अपने स्वरूप में स्थिर हुआ अपनी अनन्त व्यापकता से (धावतः) विषयों की ओर भागने
वाले (अन्यान्) उसके अपने स्वरूप से भिन्न मन, वाणी, इन्द्रिय आदिकों को (अत्येति) प्राप्त नहीं होता।
(तस्मिन्) उस सर्वत्र व्यापक स्थिर ब्रह्म में (मातरिश्वा) जैसे अन्तरिक्ष में वायु क्रियाशील रहता है वैसे ही जीव (उस ब्रह्म में)
(अपः) कर्म वा क्रिया को धारण करता है, ऐसा जानो।।4।।
भावार्थ-ब्रह्म अनन्त है, अतः जहां-जहां मन जाता है, वहां वहां पहले से ही व्यापक एवं आगे आगे स्थित है, उस ब्रह्म का ज्ञान
शुद्ध मन से ही होता है। उसे चक्षु आदि इन्द्रियां और अविद्वान् लोग नहीं देख सकते। वह स्वयं स्थिर रहता हुआ सब जीवों
को नियम में चलाता है और उनको धारण करता है। उस ब्रह्म के अति सूक्ष्म एवं अतीन्द्रिय होने से धार्मिक, विद्वान्, योगी को
ही उसका साक्षात्कार होता है, अन्य को नहीं।।40।4।।
भाष्यसार-कैसा मनुष्य ईश्वर का साक्षात्कार करता है-अद्वितीय ब्रह्म कम्पन रहित है अर्थात् अपने स्वरूप से कभी विचलित
नहीं होता। वह मनोवेग से अधिक वेगवान् है अर्थात् ब्रह्म अनन्त है, जहां-जहां मन जाता है वहां-वहां ब्रह्म पहले से ही व्यापक
है। उसका विशिष्ट ज्ञान शुद्ध मन से ही होता है। चक्षु आदि इन्द्रियां और अविद्वान् लोग उसका साक्षात्कार नहीं कर सकते,
उसे प्राप्त नहीं कर सकते। वह अपने स्वरूप में स्थिर है। विषयों की ओर दौड़ने वाली, ब्रह्म के स्वरूप से भिन्न मन और वाणी
आदि इन्द्रियों को वह अपनी अनन्त व्याप्ति से लांघ जाता है। वह स्वयं निश्चल है तथा सब जीवों को नियम से चलाता है और
उन्हें धारण करता है। उस सर्वत्र व्याप्त तथा स्थिर ब्रह्म में जीव अपने कर्मों को स्थापित करता है। वह अति सूक्ष्म और
अतीन्द्रिय है। धार्मिक विद्वान् योगी ही उसका साक्षात्कार करता है।।40।4।।
अन्यत्र व्याख्यात–‘‘नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्” (यजुर्वेद 40/4)-इस वचन में देव शब्द से इन्द्रियों का ग्रहण होता है, जो कि
श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जीभ, नाक और मन ये छः देव कहाते है। क्योंकि शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सत्य और असत्य इत्यादि

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अर्थों का इनसे प्रकाश होता है। और ‘देव’ शब्द से स्वार्थ में ‘तल्’ प्रत्यय करने से देवता शब्द सिद्ध होता है
(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका-वेदविषयविचार)।।40/4।।

ऋषि दीर्घतमाः। देवता आत्मा=परमात्मा। छन्द निचृदनुष्टुप्। स्वर गान्धारः।।
विद्वानों के निकट और अविद्वानों से ब्रह्म दूर है, (मंत्र में) यह उपदेश किया है।।
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।।5।।

भाषार्थ-हे मनुष्यों ! (तद्) वह ब्रह्म (एजति) चलता है ऐसा मूढ समझते हैं, (तत्) वह (न) नहीं (एजति) चलता है और न कोई
उसको चला सकता है। (तत्) वह (दूरे) अधर्मात्मा अविद्वान् अयोगियों से दूर है, (तत्) वह (उ) निश्चय से (अन्तिके) धर्मात्मा
विद्वान् योगियों के समीप है। (तत्) वह ब्रह्म (अस्य) इस (सर्वस्य) सब जगत् एवं जीवों के (अन्तः) अन्दर विराजमान है।
(तत्) वह (उ) निश्चय से (अस्य) इस प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जगत् के (बहि 🙂 बाहर भी विराजमान है, ऐसा निश्चित जानों।
भावार्थ-हे मनुष्यों ! वह ब्रह्म चलता सा है, ऐसा मूढ़ मानते हैं, वह व्यापक होने से अपने स्वरूप से कभी भी चलायमान नहीं
होता है।
जो लोग उसकी आज्ञा के विरुद्ध आचरण करते हैं, वे उसकी प्राप्ति के लिए इधर- ऊधर भागते हुए भी उसको नहीं जान सकते,
और जो ईश्वर की आज्ञा के अनुसार आचरण करते हैं, वे अपने आत्मा में अति निकट स्थित ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं।
जो ब्रह्म सब प्रकृति आदि के बाहर और भीतर के अवयवों में व्यापक होकर सब जीवों के अन्तर्यामी रूप से सब पाप और पुण्य
कर्मों को जानता हुआ ठीक-ठीक फल प्रदान करता है, अतः इसी ब्रह्म का ही सब को ध्यान (उपासना) करनी चायि, और इसी से
सबको डरना चाहिए।
भाष्यसार-ब्रह्म विद्वानों के निकट और अविद्वानों से दूर है-वह ब्रह्म मूढ़ों की दृष्टि में चलता है। वास्तव में वह न चलता है
और न उसको कोई चला सकता है। यह स्वतः व्यापक होने से कभी नहीं चलता। अधर्मात्मा, अविद्वान् और अयोगी जनों से
वह दूर है। जो उसकी आज्ञा के विरुद्ध आचरण करते हैं, वे इधर-उधर दौड़ते हुए भी उसे नहीं जान सकते। वह धर्मात्मा,
विद्वान योगी जनों के समीप है। अर्थात् जो ईश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं, वे अपने आत्मा में स्थित, अति निकट ब्रह्म
को प्राप्त कर लेते हैं। वह इस सब जगत् के तथा जीवों के अन्दर विद्यमान है तथा वह इस प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष जगत् के
बाहर भी है। तात्पर्य यह है कि ब्रह्म सब प्रकृति आदि पदार्थों के बाह्य और आन्तरिक अवयवों को व्याप्त करके सब जीवों के
अन्तर्यामी रूप से सब पाप-पुण्य रूप कर्मों को जानता है, और ठीक-ठीक फल देता है। सब मनुष्य इसी ब्रह्म का ध्यान करें।
इसी की उपासना करें और इसी से डरते रहें।
अन्यत्र व्याख्यात-(क)-यह मन्त्र ‘तदेजति.’ महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदविषय-विचार प्रकरण में उपासना के
प्रमाण में उद्धृत किया है।

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(ख)-‘तद् एजति’ वह परमात्मा सब जगत् को अपनी-अपनी चाल पर चला रहा है, सो अविद्वान् लोग ईश्वर में भी आरोप करते
हैं कि वह भी चलता होगा, परन्तु वह सब में पूर्ण है, कभी चलायमान नहीं होता। अतएव ‘तन्नैजति’ (यह प्रमाण है)। स्वतः
परमात्मा कभी नहीं चलता, एकरस निश्चल होके भरा है। विद्वान् लोग इसी रीति से ब्रह्म को जानते हैं।
‘तद् दूरे’-अधर्मात्मा, अविद्वान्, विचारशून्य अजितेन्द्रिय, ईश्वर-भक्ति रहित इत्यादि दोषयुक्त मनुष्यों से वह ईश्वर बहुत
दूर है, अर्थात् वे कोटि-कोटि वर्ष तक उसको प्राप्त नहीं होते। इससे वे तब तक जन्म मरणादि दुःखसागर में इधर-उधर घूमते
फिरते हैं कि जब तक उसको नहीं जानते। ‘तद्वत्निके’, सत्यवादी, सत्यकारी, सत्यमानी, जितेन्द्रिय, सर्वजनोपकारक
विद्वान् विचारशील पुरुषों के ‘अन्तिक’ अत्यन्त निकट है।
किं च-वह (ईश्वर) सबके आत्माओं के बीच में अन्तर्यामी, व्यापक होके सर्वत्र पूर्ण भर रहा है। वह आत्मा का भी आत्मा है,
क्योंकि परमेश्वर सब जगत् के भीतर और बाहर तथा मध्य अर्थात् एक तिलमात्र भी उसके बिना खाली नहीं है। वह
अखण्डैकरस, सब में व्यापक हो रहा है। इसी को जानने से सुख और मुक्ति होती है? अन्यथा नहीं। (आर्याभिविनय 2/12)।।
(ग) ‘‘तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः” वह सबके भीतर और बाहर परिपूर्ण है (वेदविरुद्धमतखंडन)।।

ऋषि दीर्घतमाः। देवता आत्मा=परमात्मा। छन्द निचृदनुष्टुप्। स्वर गान्धारः।

अब ईश्वर-विषयक उपदेश किया जाता है।

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न वि चिकित्सति।।6।।

भाषार्थ-हे मनुष्यो ! (यः) जो विद्वान् जन (आत्मन्) परमात्मा में ही (सर्वाणि) सब (भूतानि) जड़ चेतनों को (अनु पश्यति)
विद्या, धर्माचरण और योगाभ्यास के पश्चात् देखता है।
(यःतु) और जो विद्वान् (सर्वभूतेषु) सब प्रकृत्यादि पदार्थों में (आत्मानम्) सर्वत्र व्यापक परमात्मा को देखता है, वह (ततः) ऐसे
सम्यग्दर्शन के पीछे (न, वि चिकित्सति) सर्वथा सन्देह को प्राप्त नहीं होता, ऐसा तुम जानों।।
भावार्थ-हे मनुष्यो! जो लोग सर्वव्यापक, न्यायकारी, सर्वज्ञ, सनातन, सर्वात्मा, सब के द्रष्टा परमात्मा को जानकर, सुख-दुःख
और हानि-लाभ में अपने आत्मा के समान सब प्राणियों को समझकर, धार्मिक बनते हैं वे ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं।
भाष्यसार-ईश्वर-विषयक उपदेश-जो विद्वान् मनुष्य परमात्मा में सब प्राणी=चेतन और अप्राणी=जड़ रूप भूतों को विद्या,
धर्म और योगाभ्यास के उपरान्त भली-भांति देखता है, तथा सब प्रकृति आदि पदार्थों में परमात्मा को व्यापक रूप में देखता है।
तात्पर्य यह है कि परमात्मा को सर्वव्यापक, न्यायकारी, सर्वज्ञ, सनातन, सर्वात्मा और सब का द्रष्टा समझता है, सुख-दुःख
और हानि-लाभ में अपने आत्मा के तुल्य सब प्राणियों को जानता है, वह संशय को प्राप्त नहीं होता। वह सन्देह-रहित हो जाता
है। वह धार्मिक बन जाता है और मोक्ष को प्राप्त करता है।।

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अन्यत्र व्याख्यात-(यः) जो संन्यासी (तु) पुनः (आत्मन्नेव) आत्मा में अर्थात् परमेश्वर ही में तथा अपने आत्मा के तुल्य
(सर्वाणि भूतानि) संपूर्ण जीव और जगतस्थ पदार्थों को (अनुपश्यति) अनुकूलता से देखता, (च) और (सर्वभूतेषु) संपूर्ण प्राणी,
अप्राणियों में (आत्मानम्) परमात्मा को देखता है, (ततः) इस कारण वह किसी व्यवहार में (न विचिकित्सति) संशय को प्राप्त
नहीं होता अर्थात् परमेश्वर को सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वसाक्षी जान के अपने आत्मा के तुल्य सब प्राणिमात्र को हानि-
लाभ, सुख-दुःखादि व्यवस्था में देखे, वही उत्तम संन्यास धर्म को प्राप्त होता है। (संस्कारविधि, संन्यास प्रकरण)।।
मंत्र संख्या 7

ऋषि दीर्घतमाः। देवता आत्मा=परमात्मा। छन्द निचृदनुष्टुप्। स्वर गान्धारः।।
अब कौन अविद्यादि दोषों को छोड़ते हैं, यह उपदेश किया जाता है।
यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकऽएकत्वमनुपश्यतः।

भाषार्थ-हे मनुष्यो! (यस्मिन्) जिस परमात्मा, ज्ञान, विज्ञान अथवा धर्म के विषय में (विज्ञानतः) सम्यग्ज्ञाता जन के लिए
(सर्वाणि) सब (भूतानि) प्राणी (आत्मा) अपने आत्मा के समान (एव) ही (अभूत्) होते हैं, (तत्र) उस परमात्मा में विराजमान,
(एकत्वम्) परमात्मा के एकत्व को (अनुपश्यतः) ठीक-ठीक योगाभ्यास के द्वारा साक्षात् देखने वाले योगी जन को (कः) क्या
(मोहः) मोह और (कः) क्या (शोकः) क्लेश (अभूत्) होता है।
भावार्थ-जो विद्वान् संन्यासी लोग परमात्मा के सहचारी प्राणी-मात्र को अपने आत्मा के समान समझते हैं, अर्थात् जैसा अपना
हित चाहते हैं वैसे अन्य प्राणियों के साथ वर्ताव करते हैं, एक (अद्वितीय) परमात्मा की शरण को प्राप्त हो चुके हैं, उन्हें मोह,
शोक, लोभ आदि दोष कभी भी प्राप्त नहीं होते। और जो अपने आत्मा को ठीक-ठीक जानकर परमात्मा को जानते हैं, वे सदा
सुखी रहते हैं।
भाष्यसार-कौन अविद्यादि दोषों को छोड़ते हैं-परमात्मा, ज्ञान, विज्ञान वा धर्म के विषय में विशेष रूप से जानने वाले विद्वानों
के लिए सब प्राणी अपने आत्मा के समान हो जाते हैं। वे विद्वान् संन्यासी परमात्मा के साथ विद्यमान सब प्राणियों को अपने
आत्मा के तुल्य जानते हैं। जैसे अपने आत्मा का हित चाहते हैं वैसे ही वे सब के प्रति व्यवहार करते हैं। वे एक (अद्वितीय)
परमात्मा की शरण को प्राप्त हो चुके होते हैं। परमात्मा में स्थित, योगाभ्यास से परमात्मा को साक्षात् देखने वाले योगी लोगों
को अविद्यादि दोष प्राप्त नहीं होते। वे मोह, शोक, लोभादि दोषों को छोड़ देते हैं। वे अपने आत्मा को यथावत् जानकर
परमात्मा को जान लेते हैं और सदा सुखी रहते हैं।
अन्यत्र व्याख्यात-(विजानतः) विज्ञानयुक्त संन्यासी का (यस्मिन्) जिस पक्षपातरहित धर्मयुक्त संन्यास में (सर्वाणि,
भूतानि) सब प्राणी मात्र (आत्मैव) आत्मा ही के तुल्य जानना अर्थात् जैसा अपना आत्मा अपने को प्रिय है, उसी प्रकार का
निश्चय (अभूत्) होता है (तत्र) उस संन्यासाश्रम में (एकत्वमनुपश्यतः) आत्मा के एक भाव को देखने वाले संन्यासी को (को
मोहः) कौन सा मोह और (कः शोक) कौन सा शोक होता है, अर्थात् न उसको किसी से कभी मोह और न शोक होता है। इसलिए
संन्यासी मोह, शोकादि दोषों से रहित होकर सदा सबका उपकार करता रहे। (संस्कारविधि, संन्यासाश्रम प्रकरण)।।
वेद वा उपनिषदों के उपर्युक्त मंत्रों में ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि विषयक गहन व गम्भीर ज्ञान भरा पड़ा है जो सृष्टि के किसी
मत व सम्प्रदाय के ग्रन्थ का अध्ययन करने पर प्राप्त नहीं होता। यह ज्ञान यथार्थ ज्ञान है परन्तु विश्व में सर्वत्र लोग इस ज्ञान

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की उपेक्षा करते हुए प्रतीत होते हैं और स्वयं को बन्धनों में डालकर जीवन व मृत्यु के चक्र में फंसते हैं। जीवन व मृत्यु के दुःखों
से मुक्त होने का एकमात्र मार्ग वेदों के ज्ञान को प्राप्त कर योगाभ्यास द्वारा उपासना व सभी प्राणियों के कल्याण के लिए
यथासम्भव कार्य करना ही है। यह उदात्त ज्ञान किसी मनुष्य, महापुरुष, विद्वान व ईश्वर के सन्देश वाहक द्वारा दिया गया न
होकर सृष्टि के आरम्भ में स्वयं ईश्वर ने चार ऋषियों के द्वारा दिया था। यदि ईश्वर वेदों का ज्ञान न देता और ऋषियों द्वारा
इसकी रक्षा व प्रचार न किया जाता, तो आज हम ईश्वर, जीव आदि के यथार्थ ज्ञान से वंचित होते हैं और मत-मतान्तरों की
मिथ्या शिक्षाओं में अपने जीवन को नष्ट करते। ईश्वर व ऋषि दयानन्द के हम व सारा संसार वेदों का ज्ञान व सत्य अर्थों को
अवगत कराने के लिए ऋणी हैं। बिना वेदों के रहस्यों को जाने व इन्हें अपने व्यवहार में लाये बिना मनुष्य का कल्याण
असम्भव है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। हमने इस लेख व पूर्व के लेखों की सामग्री पंडित राजवीर शास्त्री जी के
सम्पादन में आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ ‘उपनिषद भाष्य’ से ली है। उनका आभार सहित
धन्यवाद है। ओ३म् शम्।

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