ईश्वर से क्या व कैसी प्रार्थना करें?

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मनमोहन कुमार आर्य

प्रार्थना अपने से अधिक सामथ्र्य व क्षमतावान सत्ता से किसी आवश्यक व उपयोगी वस्तु को मांगने व याचना करने को कहते हैं।  मनुष्य शिशु के रूप में माता-पिता से इस पृथिवी पर जन्म लेता है। उसे अपने शरीर का समुचित विकास और ज्ञान व बुद्धि सहित सत्कर्मों की प्रेरणा की अपेक्षा रहती है जिससे वह अपने उद्देश्य, लक्ष्य व उनकी प्राप्ति के उपायों को जान सके। इस कार्य में उसके माता-पिता व आचार्य सहित ऋषि महर्षियों के पूर्ण विद्या व अज्ञान से रहित ग्रन्थ सहायक होते हैं। हमारे माता-पिता, आचार्य व सभी ऋषि-मुनि भी वेदों वा ईश्वर से ही ज्ञान प्राप्त करते थे। ईश्वर एक सत्य, चित्त, आनन्दस्वरुप, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सृष्टि की रचना, पालन व लय करने वाली सत्ता है जो हमारे इस जीवन व अनेकानेक पूर्व जीवनों से पूर्व से ही हमारे साथ है और हर पल व हर क्षण हमारे साथ रहती है व रहेगी। अतः हमें प्रातः व सायं उसकी संगति वा उपासना कर उसकी स्तुति व प्रार्थना करनी चाहिये जिससे हमें सभी श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति सुगमता से हो सके। महर्षि दयानन्द सच्चे व सिद्ध योगी थे और वेदों के मर्मज्ञ व अपूर्व विद्वान थे। उनके अनेक ग्रन्थों का मार्गदर्शन हमें प्राप्त है जिससे हम अपने जीवन को सुखी व सफल बना सकते हैं। ईश्वर से प्रार्थना करने से मनुष्य का अहंकार दूर होकर निरभिमानता उत्पन्न होती है और प्रार्थना के अनुरुप ईश्वर से पदार्थों की प्राप्ति होती है। हमें केवल अपनी सभी इन्द्रियों को वश व नियन्त्रण में रखते हुए अपने अन्तःकरण को स्वच्छ व पवित्र रखना है। यही ईश्वर को प्रसन्न व उससे प्राप्त हो सकने वाले पदार्थों की प्राप्ति के लिए आवश्यक पात्रता है। आज इस लेख में महर्षि दयानन्द द्वारा ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना विषयक वेद मन्त्रों के आधार पर की गई कुछ प्रार्थनायें प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें भी नित्य प्रति इसी प्रकार की व ऐसी ही प्रार्थनायें सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक परमात्मा से करनी चाहिये।

 

प्रार्थना आरम्भ करने से पूर्व उपासक को अपने शरीर की शुद्धि कर अपने मन को सांसारिक बातों से हटाकर सुखासन आदि किसी एक आसन में बैठकर एकाग्र चित्त होकर ईश्वर का ध्यान करते हुए मौन रहकर अपने मन से इन व इस प्रकार की प्रार्थनाओं को करना चाहिये। पहले यह मन्त्रपाठ करें, ‘ओ३म् सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीय्र्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।। ओ३म्  शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।’ हे सर्वशक्तिमान् ईश्वर ! आपकी कृपा, रक्षा और सहाय से हम लोग परस्पर एक-दूसरे की रक्षा करें, हम सब लोग परमप्रीति से मिलके सबसे उत्तम ऐश्वर्य अर्थात् चक्रवर्तिराज्य आदि सामग्री व आपके अनुग्रह से आनन्द को सदा भोगें। हे कृपानिधे ! आपके सहाय से हम लोग एक-दूसरे के सामथ्र्य को अपने-अपने पुरुषार्थ से सदा बढ़ाते रहें, और हे प्रकाशमय सब विद्या के देने वाले परमेश्वर ! आपके सामथ्र्य से ही हम लोगों का पढ़ा और पढ़ाया सब संसार में प्रकाश को प्राप्त हो और हमारी विद्या सदा वृद्धि को प्राप्त होती रहे। हे प्रीति के उत्पादक ! आप ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे हम लोग परस्पर विरोध कभी न करें, किन्तु एक-दसरे के मित्र होके सदा वर्तें। हे भगवन्! आपकी करुणा से हम लोगों के तीन ताप-एक ‘आध्यात्मिक’ जो कि ज्वरादि रोगों से शरीर में पीड़ा होती है, दूसरा ‘आधिभौतिक’ जो दूसरे प्राणियों से कष्ट व पीड़ा होती है, और तीसरी ‘आधिदैविक’ जो कि मन और इन्द्रियों के विकार, अशुद्धि और चंचलता से क्लेश होता है, इन तीनों तापों को आप शान्त अर्थात् निवारण कर दीजिये जिससे हम वेदों का ज्ञान प्राप्त कर तदनुकूल आचरण करते हुए अपना व अन्य सभी मनुष्यों का उपकार कर सकें। यही हम आपसे चाहते हैं सो कृपा करके हम लोगों की सब दिनों में सहायता कीजिये।

 

प्रार्थना के लिए यजुर्वेद का 30/3 मन्त्र ‘ओ३म् विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आसुव।।’ भी एक श्रेष्ठ मन्त्र है। इससे इस प्रकार प्रार्थना करें कि हे सत्यस्वरुप ! हे विज्ञानमय ! हे सदानन्दस्वरुप ! हे अनन्तसामर्थ्ययुक्त ! हे परमकृपालो ! हे अनन्तविद्यामय ! हे विज्ञानविद्याप्रद ! हे परमेश्वर ! आप सूर्यादि सब जगत् का और विद्या का प्रकाश करने वाले हैं तथा सब आनन्दों के देने वाले हैं, हे सर्वजगदुत्पादक सर्वशक्तिमन् ! आप सब जगत् को उत्पन्न करने वाले हैं, हमारे सब जो दुःख हैं उनको और हमारे सब दुष्ट गुणों को कृपा से आप दूर कर दीजिये, अर्थात् हमसे उनको और हमको उनसे सदा दूर रखिये, और जो सब दुःखों से रहित कल्याण है, जो कि सब सुखों से युक्त भोग है, उसको हमारे लिए सब दिनों में प्राप्त कीजिये। सो सुख दो प्रकार का है–एक जो सत्य विद्याओं की प्राप्ति में अभ्युदय अर्थात् चक्रवर्ति राज्य, इष्ट मित्र, धन, पुत्र, स्त्री और शरीर से अत्यन्त उत्तम सुख का होना, और दूसरा जो निःश्रेयस् सुख है कि जिसको मोक्ष कहते हैं ओर जिसमें ये दोनों सुख होते हैं उसी को भद्र कहते हैं। उस सुख को आप हमारे लिये सब प्रकार से प्राप्त कीजिए।  हे  परमेश्वर ! आपकी कृपा व सहाय से सब विघ्न हमसे दूर रहें कि जिससे कि वेदाध्ययन व वेदाचरण का हमारा व्रत सुख से पूरा हो। इससे हमारे शरीर मे आरोग्य, बुद्धि, सज्जनों का सहाय, चतुरता और सत्यविद्या का प्रकाश सदा बढ़ता रहे। इस भद्रस्वरूप सुख को आप अपनी सामथ्र्य से ही हमको दीजिये, जिस आपकी कृपा के सामर्थ्य से हम लोग सत्य विद्या से युक्त जो आपके बनाये वेद हैं उनके यथार्थ अर्थ से युक्त भाष्य को सुख से विधान करें कि जिसके प्रचार व मनुष्यों द्वारा आचरण से मनुष्यमात्र लाभान्वित हो।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में उर्युक्त मन्त्रों सहित अन्य अनेक महत्वपूर्ण मन्त्रों को भी प्रस्तुत कर उनके संस्कृत व हिन्दी में भावार्थ दिये हैं। कुछ अन्य मन्त्रों के भावार्थ इस प्रकार हैं। जो परमेश्वर एक भूतकाल जो व्यतीत हो गया है, दूसरा जो वर्तमान है और तीसरा जो होने वाला भविष्यत् कहलाता है, इन तीनों कालों के बीच में जो कुछ होता है उन सब व्यवहारों को वह ईश्वर यथावत् जानता है। जो सब जगत् को अपने विज्ञान से ही जानता, सब जगत् व पदार्थों की रचना, पालन, लय करता और संसार के सब पदार्थों का अधिष्ठाता अर्थात् स्वामी है, जिस का सुखरूप ही केवल स्वरूप है, जो कि मोक्ष और व्यवहार व सुख का भी देने वाला है, सबसे बड़ा सब सामथ्र्य से युक्त ब्रह्म जो परमात्मा है उसको अत्यन्त प्रेम से हमारा नमस्कार हो। ईश्वर कि जो सब कालों के ऊपर विराजमान है, जिसको लेशमात्र भी दुःख नहीं होता, उस आनन्दघन परमेश्वर को हमारा नमस्कार प्राप्त हो। जिस परमेश्वर ने अपनी सृष्टि में पृथिवी को पादस्थानी रचा है, अन्तरिक्ष जो पृथिवी और सूर्य के बीच में आकाश है सो जिसने उदरस्थानी किया है और जिसने अपनी सृष्टि से दिव अर्थात् प्रकाश करने वाले सूर्य आदि पदार्थो को सबके ऊपर मस्तकस्थानी किया है अर्थात् जो पृथिवी से लेके सूर्यलोकपर्यन्त सब जगत् को रच के उसमें व्यापक होके, जगत् के सब अवयवों में पूर्ण होके सबको धारण कर रहा है, उस परब्रह्म को हमारा अत्यन्त नमस्कार हो।

 

हे जगदीश्वर ! आपने नेत्रस्थानी सूर्य और चन्द्रमा को रचा है तथा कल्प-कल्प के आदि में आप ही सूर्य और चन्द्रमादि पदार्थों को वारम्वार नये-नये रचते हैं। आपने ही मुखस्थानी अग्नि को उत्पन्न किया है। आपको हम लोगों का नमस्कार हो। हे सृष्टिकर्ता परमेश्वर ! आपने ब्रह्माण्ड के वायु को प्राण और अपान के समान किया है तथा जो प्रकाश करने वाली किरण है उसे चक्षु के समान रची हैं अर्थात् सूर्य के प्रकाश से ही रूप का ग्रहण होता है। दश दिशाओं को जिसने सब व्यवहारों को सिद्ध करने वाली बनाई हैं, ऐसा जो अनन्तविद्यायुक्त परमात्मा सब मनुष्यों का इष्टदेव है, उस को निरन्तर हमारा नमस्कार हो।

 

उपर्युक्त लेख में हमने महर्षि दयानन्द के द्वारा उनके ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ से ईश्वर से की जाने वाली श्रेष्ठ प्रार्थनाओं की एक झलक प्रस्तुत की है। वैदिक सन्ध्या वा पंचमहायज्ञविध, आर्याभिविनय, संस्कार विधि, सत्यार्थप्रकाश, वेदभाष्य आदि उनके अन्य ग्रन्थों में भी इसी प्रकार के उत्तमोत्तम विचार मिलते हैं। विश्व के धार्मिक व सामाजिक साहित्य में इस प्रकार की प्रार्थनायें उपलब्ध नहीं होती। अतः जीवन का कल्याण चाहने वाले सभी मनुष्यों को महर्षि दयानन्द व वेद की शरण में आकर वेदाध्ययन आदि के द्वारा सत्य वैदिक रीति से सन्ध्योपासना, अग्निहोत्र आदि के द्वारा प्रार्थनायें करके सभी अभिलषित पदार्थों की प्राप्ति करनी चाहिये। ईश्वर व जीवात्मा की सत्तायें सत्य है जो वेद के प्रमाणों सहित तर्क व युक्ति से भी सिद्ध है। ईश्वर सर्वऐश्वर्यसम्पन्न व इसका स्वामी है, वह सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक है तथा जीवों को कर्मानुसार सुख व दुःख तथा पदार्थों को प्राप्त कराता है, अतः ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखकर समर्पित होकर ईश्वर का ध्यान, चिन्तन व प्रार्थना कर अपने सभी उचित मनोरथ सिद्ध करने चाहिये। हम आशा करते हैं कि पाठक ईश्वर से उपुर्यक्त प्रार्थनाओं को करके लाभान्वित होंगे।

 

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