‘इस्लामिक द्विराष्ट्रवाद एवं संविधान

0
122

जब भारत स्वतन्त्र होने की प्रक्रिया से निकल रहा था तभी भारत के लिए संविधान निर्माण हेतु संविधान सभा का गठन हो गया था। 9 दिसम्बर 1946 से 26 नवम्बर 1949 तक 2 साल 11 महीने 18 दिन में बनकर यह संविधान तैयार हुआ था। हमारे संविधान निर्माताओं के सामने देश में द्विराष्ट्रवाद के सिद्घान्त से उपजे घृणात्मक और विखण्डनकारी परिवेश की परिणति भयंकर रूप में खड़ी थी। इसलिए उनसे ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि वे पुन: ऐसे उपबन्ध् संविधान में या तो डाल दें या उनकी वकालत करें कि जिनसे द्विराष्ट्रवाद की गन्ध आये। किन्तु इसके उपरान्त भी ऐसा हुआ कि जिससे ये दोनों आशंकाएं बलवती हुईं। संविधान और संवैधानिक व्यवस्था के उन छिद्रों का लाभ हमारे यहाँ मुस्लिम नेताओं ने पुन: ‘द्विराष्ट्रवाद’ की ओर बढऩे के रूप में उठाना चाहा जो किसी भी प्रकार से उन्हें इस दिशा में बढऩे के लिए प्रेरित करते हैं या अपनी मौन सहमति प्रदान करते हैं। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस केउपरान्त इमाम बुखारी ने कहा था- ‘मुसलमानों की मांग भारत के भीतर मुसलमानों के लिए एक नया गृहराज्य स्थापित करने की है।’डॉ. बसु यूनिफ़ोर्म सिविल कोड में लिखते हैं कि ‘मुसलमान चाहते हैं कि यदि सम्भव हो तो इस्लामी राज्य की स्थापना की जाये।’

दलवई कहते हैं ‘हम मुस्लिम पहले हैं और भारतीय बाद में हैं। भारत की मुख्यधारा मुस्लिम संस्कृति है और अन्य लोगों को चाहिए कि वे उसमें जुड़ जायें।’

अल्पंसख्यकों केप्रति विभेद का निवारण और उनके संरक्षण पर संयुक्त राष्ट्र के उप आयोग का संकल्प: 1950, है कि ‘अल्पसंख्यकों को रक्षोपाय देने का एकमात्र उद्देश्य यह था कि जो बहुसंख्यक समुदाय प्रतिनिधि लोकतन्त्र प्रणाली के अधीन देश का प्रशासन कर रहा है, वह उनके साथ विभेद न करे। किन्तु इसमें शर्त यह है कि अल्पसंख्यक उस राष्ट्र के प्रति निष्ठावान बने रहें जिसके वे राष्ट्रिक हैं और अपनी स्थिति का लाभ उठाकर राज्य के भीतर राज्य न बनाएं।’

हमारे देश में संविधान निर्माताओं का भी यही उद्देश्य था। हर अल्पसंख्यक समुदाय (वास्तव में तो भारत में कोई अल्पसंख्यक है ही नहीं) को अपने सम्प्रदाय, मत, पन्थ की स्वतन्त्रता को हर परिस्थिति में सुरक्षित रखने की गारण्टी देने का प्रयास हमारे संविधान निर्माताओं ने किया, हम ये मान लेते हैं। किन्तु इसी प्रयास का अनुचित लाभ हमारे देश का मुस्लिम समुदाय उठाना चाहता है।

हमें यह भी ध्यान देना चाहिए कि हमारे संविधान निर्माताओं ने कहीं भी द्विराष्ट्रवाद यहाँ तक कि दोहरी नागरिकता की भी की वकालत नहीं की। किन्तु संविधान ने जिन्हें अल्पसंख्यक माना उनके विषय में यह कहीं भी प्राविधान नहीं किया कि ये अल्पसंख्यक अनिवार्यत: भारत के प्रति निष्ठावान बने रहेंगे, अन्यथा उनकी अल्पसंख्यक होने के नाम पर मिलने वाली सुविधाओं का हनन कर लिया जायेगा। कहने का अभिप्राय ये है कि जहाँ हमने अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग किया है वहीं उसकी परिभाषा के साथ-साथ उसमें राष्ट्र की अपेक्षाओं का उल्लेख भी अनिवार्यत: हमें करना चाहिए था। राष्ट्र की उसके प्रति अपेक्षाएं ही उसके अल्पसंख्यक समुदाय का सदस्य होने की अर्हताएँ मानी जातीं।

यदि ऐसा हो गया तो इस देश का अन्न खाकर भी इसे ‘मादरेवतन’ या वन्देमातरम् कहने पर आपत्ति करने वाला यहाँ कोई नहीं होगा। हमें पूर्व सोवियत संघ के1977 के संविधान के अनुच्छेद 62 की ओर ध्यान देना चाहिए। जिसमें कहा गया है कि संघ केप्रत्येक नागरिक का यह पुनीत कत्र्तव्य है कि समाजवादी मातृभूमि की रक्षा करे। मातृभूमि के प्रति द्रोह से अधिक गंभीर कोई अपराध् नहीं है।’

इसी प्रकार रूसी परिसंघ 1993 का संविधान यह कहता है-

‘अनुच्छेद 59.1-पितृभूमि की रक्षा करना, रूसी परिसंघ का कत्र्तव्य और बाध्यता है।’

चीनी गणतन्त्र के1982 के संविधान का अनुच्छेद 55 इसी प्रकार कहता है-प्रत्येक नागरिक का यह पावन कत्र्तव्य है कि वह ‘मातृभूमि की रक्षा करे और आक्रमण का प्रतिकार करे।’

इसी प्रकार टर्की के एक दल का नाम मातृभूमि दल है और बांग्लादेश रेडियो पर प्रसारित होने वाले एक देश भक्ति के गीत के शब्द हैं-’ओ माँ बांग्लादेश…..।’

हमारे संविधान को भी राष्ट्र के प्रति निष्ठा और मातृभूमि के प्रति सच्ची श्रद्घा को विधिक घोषित करना चाहिए। संविधान का इस विषय पर मौन ही व्यवस्था का वह गंभीर छिद्र है जो सारी व्यवस्था को ही डुबाने के लिए पर्याप्त है।

हमारा यह संविधान वन्देमातरम् सहित किसी भी गीत या राष्ट्रीय प्रतीक के प्रति प्रत्येक नागरिक पर बाध्यकारी प्रभाव नहीं डालता। हमारे संविधान की इस दशा को देखकर लगता है कि हमारे संविधान निर्माता दोहरी मानसिकता से ग्रसित थे। एक ओर यदि वह राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को हर परिस्थिति में बनाये रखने के लिए कृतसंकल्प थे, तो दूसरी ओर नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता के नाम पर कुछ ऐसी छूट भी प्रदान कर रहे थे जो उनकी इस प्रकार की स्वतन्त्रता को स्वच्छन्दता में परिवर्तित कर देगी।

आज स्वच्छन्दता के आधार पर ही राष्ट्र में द्विराष्ट्रवाद के उपासक पुन: सिर उठा रहे हैं। उनकी यह मांग संविधान विरोधी है। संविधान ने ऐसी किसी मांग का समर्थन कहीं नहीं किया है कि जिससे इस राष्ट्र को विखण्डन की प्रक्रिया से पुन: निकलना पड़े। उसकी ओर से प्रदत्त धार्मिक स्वतन्त्रता के नाम पर जो कुछ छूट देने वाले प्राविधान रखे गये हैं वह भी पुन: संशोधन करने की सीमा तक ही आपत्तिजनक हैं। जिनका दुरूपयोग कुछ अलगाववादी शक्तियों केद्वारा किया जा रहा है। द्विराष्ट्रवाद के सिद्घांत को मानने वाले लोग इस देश से 1947 में ही चले गये थे। उसके पश्चात जो लोग यहाँ रहे वह ‘एक राष्ट्र’ के उपासक ही हैं, यह धारणा बलवती होनी चाहिए थी। एक राष्ट्रवाद की धारणा की चूलें ढीली करने वाले लोग हमें 1947 की ओर ले जाना चाहते हैं जबकि उस व्यतीत हुए दशकों की धरोहर को हम यदि आज भी ढ़ो रहे हैं तो सोचना पड़ेगा कि हमने अतीत से शिक्षा नहीं ली।

संविधान की मूल भावना के अनुसार हमें देश में हिन्दू-मुस्लिम भारतीय बन्धुता का प्रसार करना चाहिए। बगीचा का हर फू बगीचे पर और बगीचा अपने हर फूल पर जब गर्व करता है तभी दोनों की गरिमा बढ़ती है। फूल यदि बगीचे को उपेक्षित करेगा या बगीचा किसी फूल को उपेक्षित करेगा तो दोनों ही आभाहीन हो जायेंगे। इसलिए अतिवादी दृष्टिकोण उचित नहीं है। देश की ऊर्जा का अपव्यय करने का अर्थ होगा स्वयं को प्रगति से हटाकर दुर्गति केपथ पर डाल देना। हमें संविधान निर्माताओं की भावना का सम्मान करना सीखना होगा यदि संविधान के किसी अनुच्छेद का अनुचित लाभ लेने का प्रयास किया गया तो उसके परिणाम किसी के लिए उचित नहीं होंगे।

26 नवंबर को हम प्रति वर्ष अपने संविधान के पूर्ण होने की वर्षगांठ मनाते हैं। हमारा संविधान 26 नवंबर 1949 को बनकर तैयार हो गया था। जबकि 26 जनवरी 1950 से इसे लागू किया गया, संविधान की मूल भावना, मूल उद्देश्य और मूल विचारधारा को समझना और राष्ट्र के वर्तमान के साथ उसका सामंजस्य स्थापित करना राष्ट्रवासियों का काम होता है। किसी भी संविधान की समीक्षा उतनी ही आवश्यक है जितनी धर्म की आवश्यक होती है, यदि धर्म बिना समीक्षा के पाखंडी हो सकता है तो संविधान बिना समीक्षा के शिखण्डी हो सकता है। इस बात को दृष्टिगत रखकर हमें 26 नवंबर के दिन को संविधान की समीक्षा का दिन और राष्ट्र के अंतरावलोकन का दिन घोषित करना चाहिए।

 

Previous articleहाथ पांव अपने हैं दिल दिमाग़ गिरवीं हैं…..
Next articleऔर क्या चाहिये…
राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here