इसरो ने रचा इतिहास

संदर्भः- इसरो ने एक साथ 104 उपग्रह अंतिरक्ष में प्रक्षेपित किए

प्रमोद भार्गव

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) ने एक साथ 104 उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करके विश्व इतिहास रच दिया है। दुनिया के किसी एक अंतरिक्ष अभियान में इससे पूर्व इतने उपग्रह एक साथ कभी नहीं छोड़े गए हैं। इस प्रक्षेपण से इसरो की वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पूरी दुनिया में धाक जम गई है। इसरो का अपना स्वयं का कीर्तिमान एक साथ 20 उपग्रह प्रक्षेपित करने का हैं। किंतु 2016 में किए गए इस अजूबे के बाद यह जो चमत्कार किया है, उससे दुनिया का विज्ञान जगत हैरान हैं। इन उपग्रहों में तीन भारत के हैं, शेष अमेरिका, इजराइल, कजाकिस्तान, नीदरलैंड स्विट्जरलैंड, पाकिस्तन और संयुक्त अरब अमीरात के हैं। इसरो के अध्यक्ष एएस किरण कुमार ने कहा है कि इनमें से एक उपग्रह का वनज 730 किलोग्राम हैं, बांकि दो 19-19 किलोग्राम के हैं। इनके अलावा हमारे पास 600 किग्रा वजन और भेजने की क्षमता थी, इसलिए 101 दूसरे उपग्रह प्रक्षेपित करने का अहम् फैसला लिया गया। ये सभी उपग्रह आंघ्र प्रदेश के श्री हरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से धु्रवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान, यानी पोलर सेटेलाइट लाँच व्हीकल (पीएसएलबी) से छोड़े गए। इसके पहले भारत गूगल और एयरबस के भी उपग्रह भेज चुका है। इस सफलता से भारत की अंतरिक्ष में उपग्रह प्रक्षेपण व्यापार के क्षेत्र में धाक जम गई हैं। कालांतर में भारत खरबों डाँलर इस व्यापार से कमाएगा। अकेले इस अभियान से इसरो ने करीब एक अरब रुपए कमाए हैं।

मनुष्य का जिज्ञासु स्वभाव उसकी प्रकृति का हिस्सा रहा है। मानव की खगोलीय खोजें उपनिषदों से शुरू होकर उपग्रहों तक पहुंची हैं। हमारे पूर्वजों ने शून्य और उड़न तश्तरियों जैसे विचारों की परिकल्पना की थी। शून्य का विचार ही वैज्ञानिक अनुसंधानों का केंद्र बिंदु है। बारहवीं सदी के महान खगोलविज्ञानी आर्यभट्ट और उनकी गणितज्ञ बेटी लीलावती के अलावा वराहमिहिर, भास्कराचार्य और यवनाचार्य  ब्रह्मांण्ड के रहस्यों को खंगालते रहे हैं। इसीलिए हमारे वर्तमान अंतरिक्ष कार्यक्रामों के संस्थापक वैज्ञानिक विक्रम साराभाई और सतीश धवन ने देश के पहले स्वदेशी उपग्रह का नामाकरण आर्यभट्ट के नाम से किया था। अंतरिक्ष विज्ञान के स्वर्ण-अक्षरों में पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री के रूप में राकेष शर्मा का नाम भी लिखा गया है। उन्होनें 3 अप्रैल 1984 को सोवियत भूमि से अंतरिक्ष की उड़ान भरने वाले यान ‘सीयूज टी-11 में यात्रा की थी। सोवियत संघ और भारत का यह साझा अंतरिक्ष कार्यक्रम था। तय है, इस मुकाम तक लाने में अनेक ऐसे दूरदर्शी वैज्ञानिकों की भूमिका रही है, जिनकी महत्वाकांक्षाओं ने इस पिछड़े देश को न केवल अंतरिक्ष की अनंत उंचाईयों तक पहुंचाया, बल्कि अब धन कमाने का आधार भी मजबूत कर दिया। ये उपलब्धियां कूटनीति को भी नई दिशा देने का पर्याय बन रही हैं।

दरअसल प्रक्षेपण तकनीक दुनिया के चंद छह-सात देशों के पास ही है। लेकिन सबसे सस्ती होने के कारण दुनिया के इस तकनीक से महरूम देश अमेरिका,रूस,चीन,जापान का रुख करने की बजाय भारत से अंतरिक्ष व्यापार करने लगे हैं। इसरो इस व्यापार को अंतरिक्ष निगम एंट्रिक्स कार्पोरेषन के जरिए करता है। इसरो पर भरोसा करने की दूसरी वजह यह भी है कि उपग्रह यान की दुनिया में केवल यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी को छोड़ कोई दूसरा ऐसा प्रक्षेपण यान नहीं है,जो हमारे पीएसएलवी-सी-37 के मुकाबले का हो। दरअसल यह कई टन भार वाले उपग्रह ढोने में दक्ष है। इसलिए व्यावसायिक उड़ानों को मुंह मांगे दाम मिल रहे हैं। यही वजह है कि अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे विकसित देश अपने उपग्रह छोड़ने का अवसर भारत को दे रहे हैं। हमारी उपग्रह प्रक्षेपित करने की दरें अन्य देशों की तुलना में 60 से 65 प्रतिशत सस्ती हैं। यहां उल्लेखनीय है कि अमेरिकी अंतरिक्ष संगठन नासा ने जो राॅकेट 67 करोड़ डाॅलर में भेजा था,उसे इसरो ने मात्र 7.3 करोड़ डाॅलर में भेजा है। बावजूद भारत को इस व्यापार में चीन से होड़ करनी पड़ रही हैं। मौजूदा स्थिति में भारत हर साल 5 उपग्रह अभियानों को मंजिल तक पहुंचाने की क्षमता रखता है। जबकि चीन की क्षमता दो अभियान प्रक्षेपित करने की है। बाबजूद इस प्रतिस्पर्धा को अंतिरक्ष व्यापार के जानकार उसी तरह से देख रहे हैं, जिस तरह की होड़ कभी वैज्ञानिक उपलब्धियों को लेकर अमेरिका और सोवियत संघ में हुआ करती थी।

भारत ने अंतरिक्ष यात्रा की शुरूआत 21 नवंबर 1963 को की थी। इस दौर में भारत की विडंबना यह थी कि राॅकेट को साइकिल पर लादकर प्रक्षेपण स्थल तक लाया गया था। ’नाइक अपाचे’ नामक इस राॅकेट को अमेरिका से लिया था। इसे छोड़ने के लिए नारियल के पेड़ों के बीच लांचिंग पेड़ और तबेले में प्रयोगशाला बनाई गई थी । इसके बाद 20 नवंबर 1967 को भारत में बना पहला राॅकेट रोहिणी-75 प्रक्षेपित किया । इसे देश की राॅकेट क्षमता आंकने के लिए लांच किया गया था। 19 अप्रैल 1975 को भारत का पहला उपग्रह आर्यभट्ट छोड़ा गया । 1981 में छठा उपग्रह एपल छोड़ा गया । भारी होने के कारण इस उपग्रह को पैलोड तक लाने के लिए बैल-गाडी का इस्तेमाल किया गया था। इस तरह से साइकिल और फिर बैल-गाड़ी से शुरू हुआ इसरो का यह सफर अब धु्रवीय यान पीएसएलवी- 37 तक आते-आते विश्व की सबसे बड़ी उपलब्धि बन गया हैं। 60 के दशक में जो काम महाशक्तियां करती थीं, वही काम भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश ने कर दिखाया है। गोया, इसे प्रौद्योगिकी के स्वदेशी विकास और उसके अंतरराष्ट्रीय हस्तांतरण के सकारात्मक पहलू के रूप में्र देखा जाना चाहिए। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में और उम्मीद जताते हुए इसरो के पूर्व अध्यक्ष जी माधवन नायर ने कहा भी है कि हमारे पास ऐसी राॅकेट प्रणाली है, जो एक साथ 400 सूक्ष्म उपग्रह छोड़ने की क्षमता रखती है।

दूसरे देशों के छोटे उपग्रहों को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करने की शुरूआत 26 मई 1999 में हुई थी और जर्मन एवं दक्षिण कोरिया के उपग्रह टब सेट के साथ भारतीय उपग्रह ओशन सेट भी अंतरिक्ष में स्थापित किए थे। इसके बाद पीएसएलवी सी-3 ने 22 अक्टूबर 2001 को उड़ान भरी। इसमें भारत का उपग्रह बर्ड और बेल्जियम के उपग्रह प्रोबा शामिल थे। ये कार्यक्रम परस्पर साझा थे, इसलिए शुल्क नहीं लिया गया। पहली बार 22 अप्रैल 2007 को धु्रवीय यान पीएसएलवी सी-8 के मार्फत इटली के ‘एंजाइल‘उपग्रह का प्रक्षेपण शुल्क लेकर किया गया। हालांकि इसके साथ भी भारतीय उपग्रह एएम भी था, इसलिए इसरो ने इस यात्रा को संपूर्ण वाणिज्यिक दर्जा नहीं दिया। दरअसल अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार व्यावसायिक उड़ान वही मानी जाती है,जो केवल दूसरे उपग्रहों का प्रक्षेपण करे। इसकी पहली शुरूआत 21 जनवरी 2008 को हुई, जब पीएसएलवी सी-10 ने इजारइल के पोलरिस उपग्रह को अंतरिक्ष की कक्षा में छोड़ा। इसके साथ ही इसरो ने विश्वस्तरीय मानकों के अनुसार उपग्रह प्रक्षेपण मूल्य वसूलना भी शुरू कर दिया। यह कीमत 5 हजार से लेकर 20 हजार डाॅलर प्रति किलोग्राम पेलोड ;उपग्रह का वजनद्ध के हिसाब से ली जाती है।

सूचना तकनीक का जो भूमंडलीय विस्तार हुआ है,उसका माध्यम अंतरिक्ष में छोड़े उपग्रह ही हैं। टीवी चैनलों पर कार्यक्रमों का प्रसारण भी उपग्रहों के जरिए होता है। इंटरनेट पर बेबसाइट, फेसबुक, ट्विटर, ब्लाॅग और वाॅट्सअप की रंगीन दुनिया व संवाद संप्रेशण बनाए रखने की पृश्ठभूमि में यही उपग्रह हैं। मोबाइल और वाई-फाई जैसी संचार सुविधाएं उपग्रह से संचालित होती है। अब तो शिक्षा,स्वास्थ्य,कृशि, मौसम, आपदा प्रबंधन और प्रतिरक्षा क्षेत्रों में भी अपग्रहों की मदद जरूरी हो गई है। इसीलिए दुनिया में व्यवसायिक उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करने का व्यापार बढ़ रहा हैं। दरअसल अनेक देशों की मोबाइल और इंटरनेट कंपनियां उच्च संचार की सुविधाएं प्राप्त करने के लिए कोशिश में है। भारत भी आपदा प्रबंधन में अपनी अंतरिक्ष तकनीक के जरिए पड़ोसी देशों की सहयता करने का इच्छुक है। इसीलिए अब भारत दक्षिण भारतीय एशियाई देशों के लिए उपयोगी उपग्रह इसी साल मार्च और अप्रैल में भेजेगा। इनसे टेलीकाॅम, टेलिमेडिसिन और मानसून समेत विभिन्न क्षेत्रों में लाभ मिलेगा। हालांकि यह कूटनीतिक इरादा कितना व्यावहरिक बैठता है और इसके क्या नफा-नुकसान होंगे,यह अभी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन इसमें काई संदेह नहीं कि इसरो की अंतरिक्ष में आत्मनिर्भरता बहुआयामी है और यह देश को भिन्न-2 क्षेत्रों में अभिनव अवसर हासिल करा रही है। चंद्र और मंगल अभियान इसरो के महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष कार्यक्रम के ही हिस्सा हैं। 2018 तक चंद्रयान-2 मिशन पूरा किया जाएगा। अब इसरो शुक्र ग्रह पर भी यान उतारने की तैयारी में है।

बावजूद चुनौतियां कम नहीं हैं, क्योंकि हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने अनेक विपरीत परिस्थितियों और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद जो उपलाब्धियां हासिल की हैं,वे गर्व करने लायक हैं। गोया, एक समय ऐसा भी था,जब अमेरिका के दबाव में रूस ने क्रायोजेनिक इंजन देने से मना कर दिया था। दरअसल प्रक्षेपण यान का यही इंजन वह अष्व-शक्ति है,जो भारी वजन वाले उपग्रहों को अंतरिक्ष में पहुंचाने का काम करती है। फिर हमारे पीएसएलएसवी मसलन भू-उपग्रह प्रक्षेपण यान की सफलता की निर्भरता भी इसी इंजन से संभव थी। हमारे वैज्ञानिकों ने दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया और स्वेदेशी तकनीक के बूते क्रायोजेनिक इंजन विकसित कर लिया। अब इसरो की इस स्वदेशी तकनीक का दुनिया लोहा मान रही है। हालांकि एक समय ऐसा भी था, जब अमेरिका ने हमारे राॅकेट रोहिणी-75 के प्रक्षेपण को बच्चों का खिलौना कहकर उपहास उड़ाते हुए कहा था कि भारत कभी भी राॅकेट नहीं बना सकता है। यही नहीं अमेरिकी सीनेट ने दावा किया था कि अमेरिका भारतीय भूमि से किसी भी उपग्रह का प्रक्षेपण नहीं कराएगा। लेकिन वैज्ञानिकों के जुनून और जिदद् ने अमेरिका के कथनों को झुठला दिया। आज न केवल भारत राॅकेट बनाने में सक्षम हुआ है, बल्कि इसका क्रायोजनिक इंजन भी बना लिया है। नतीजतन अमेरिका ही नहीं तमाम विकसित देश भारत से अपने उपग्रह प्रक्षेपित कराने के लिए पंक्ति में खड़े हुए हैं। इसलिए भारत अब तक 226 उपग्रह छोड़ चुका हैं। बुधवार 15 फरवरी 2017 को एक साथ 104 उपग्रह छोड़ने की जो कामयाबी भारत ने हासिल की है, उसमें 96 उपग्रह अमेरिका के हैं।

धु्रवीय राॅकेट की यह नई उपलब्धि 39वीं सफलता है। हालांकि पीएसलवी के जरिए एक अभियान नाकाम भी हो चुका है। धु्रवीय राॅकेट का भार 320 टन और ऊंचाई 44.4 मीटर है। यह धु्रवीययान चार चरणीय हैं। इसके पहले और तीसरे चरण में ठोस और दूसरे तथा चैथे चरण में द्रवीय ईंधन का उपयोग होता है। इसके मानक नमूने के पहले चरण में संलग्न 6 बूस्टरों में नो टन ठोस ईंधन भरा जाता है, लेकिन पेलोड अधिक होने पर राॅकेट को अधिक ताकत देने के लिए प्रत्येक बूस्टर में 12 टन ईंधन प्रयुक्त किया जाता है। इसी राॅकेट का चंद्र और मंगल मिशन में उपयोग किया गया था।

नई और अहम् चुनौतियां रक्षा क्षेत्र में भी हैं। क्योंकि फिलहाल इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने की दिशा में हम मजबूत पहल ही नहीं कर पा रहे हैं। जरूरत के साधारण हथियारों का निर्माण भी हमारे यहां नहीं हो पा रहा है। आधुनिकतम राइफलें भी हम आयात कर रहे हैं। इस बद्हाली में हम भरोसेमंद लड़ाकू विमान, टैंक विमानवाहक पोत और पनडुब्यिों की कल्पना ही कैसे कर सकते हैं ? हमें विमान वाहक पोत आइएनएस विक्रमादित्य रूस से खरीदना पड़ा है। जबकि रक्षा संबंधी हथियारों के निर्माण के लिए ही हमारे यहां रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान ;डीआरडीओ काम कर रहा हैं,परंतु इसकी उपलब्धियां गौण हैं। इसे अब इसरो से प्रेरणा लेकर अपनी सक्रियता बढ़ाने की जरूरत है। क्योंकि भारत हथियारों का सबसे बड़ा आयातक देश है। रक्षा सामग्री आयात में खर्च की जाने वाली धन-राशि का आंकड़ा हर साल बढ़ता जा रहा है। भारत वाकई दुनिया की महाशक्ति बनना चाहता है तो उसे रक्षा-उपकरणों और हथियारों के निर्माण की दिशा में स्वावलंबी होना चाहिए। अन्यथा क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक के बाबत रूस और अमेरिका ने जिस तरह से भारत को धोखा दिया था,उसी तरह जरूरत पड़ने पर मारक हथियार प्राप्त करने के परिप्रेक्ष्य में भी मुंह की खानी पड़ सकती है।

यदि देश के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालय का भी इसी तरह के वैज्ञानिक आविश्कार और व्यापर से जोड़ दिया जाए तो हम हथियार निर्माण के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो सकते है। दरअसल अकादमिक संस्थान दो तरह की लक्ष्यपूर्ति से जुड़े होते हैं, अध्यापन और अनुसंधान। जबकि विवि का मकसद ज्ञान का प्रसार और नए व मौलिक ज्ञान की रचनात्मकता को बढ़ावा देना होता है। लेकिन समय में आए बदलाव के साथ विवि में अकादमिक माहौल लगभग समाप्त हो गया है। इसकी एक वजह स्वतंत्र अनुसंधान संस्थानों की स्थापना भी रही है। इसरो की ताजा उपलब्धियों से साफ हुआ है कि अकादमिक समुदाय,सरकार और उद्यमिता में एकरूपता संभव है। इस गठजोड़ के बूते शैक्षिक व स्वतंत्र शोध संस्थानों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। बषर्ते इसरो की तरह विवि को भी अविश्कारों से वाणिज्यिक लाभ उठाने की अनुमति दे दी जाए। इसी दिशा में पहल करते हुए डाॅ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग सरकार सरकारी अनुदान प्राप्त बौद्धिक संपत्ति सरंक्षक विधेयक 2008 लाई थी। इसका उद्देश्य विवि और शोध संस्थानों में अविष्कारों की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करना और बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों को सरंक्षण तथा उन्हें बाजार उपलब्ध कराना है। इस उद्यमशीलता को यदि वाकई धरातल मिलता है तो विज्ञान के क्षेत्र में नवोन्मेशी छात्र आगे आएंगे और अविष्कारों के नायाब सिलसिले की शुरूआत संभव होगी। क्योंकि तमाम लोग ऐसे होते हैं,जो जंग लगी शिक्षा प्रणाली को चुनौती देते हुए अपनी मेधा के बूते कुछ लीक से हटकर अनूठा करना चाहते हैं। अनूठेपन की यही चाहत नए व मौलिक अविष्कारों की जननी होती है। गोया, इस मेधा को पर्याप्त स्वायत्तता के साथ अविष्कार के अनुकूल वातावरण देने की भी जरूत है। ऐसे उपाय यदि अमल में आते है तो हम स्वावलंबी तो बनेंगे ही, विदेशी मुद्रा कमाने में भी सक्षम हो जाएंगे।

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