‘इट हैपेन्स ओनली इन इंडिया’…

0
229

bridge
तनवीर जाफ़री
वैसे तो भीषण दुर्घटनाओं व जानलेवा हादसों का विश्वव्यापी इतिहास है। रेलगाडिय़ों की परस्पर भिड़ंत,पुलों का बह जाना, विमान दुर्घटनाएं अथवा समुद्री जहाज़ का डूबना जैसे हादसे संसार में कहीं न कहीं पहले भी होते रहे हैं और भविष्य में भी इनकी संभावनाओं ये इंकार नहीं किया जा सकता। ज़ाहिर है विज्ञान व तकनीक का विकास एवं विनाश दोनों ही के साथ गहरा नाता है। परंतु हमारे देश में कुछ दुर्घटनाएं तो ऐसी होती हैं जिन्हें देखकर यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि कहीं ऐसे हादसे केवल भारतवर्ष की भाग्यरेखा में ही तो नहीं लिखे गए हैं? यदि हम अपने देश में होने वाली इस प्रकार की अनेक दुर्घटनाओं पर नज़र डालें तो ऐसे हादसों की दूसरी मिसाल अपने देश के सिवा शायद ही कहीं और देखने को मिले। मिसाल के तौर पर पिछले दिनों मुंबई-गोवा राजमार्ग पर रायगढ़ जि़ले के अंतर्गत् मुंबई से मात्र 84 किलोमीटर की दूरी पर सावित्री नदी पर बने एक प्राचीन पुल के ढह जाने की घटना को ही ले लीजिए।
हालांकि लगभग एक शताब्दी पूर्व अंग्रेज़ों के शासनकाल में बनाया गया यह पुल नदी में बाढ़ के कारण पैदा हुए तेज़ बहाव के कारण बह गया है। परंतु इस पुल से जुड़े कुछ तथ्य ऐसे हैं जो निश्चित रूप से हमारे देश की लापरवाह शासन व्यवस्था की पोल तो खोलते ही हैं साथ-साथ यह सवाल भी खड़ा करते हैं कि यहांं आम नागरिकों की जान की कोई कीमत है भी अथवा नहीं? बरसात के दिनों में छोटे-मोटे पहाड़ी पुल विभिन्न पहाड़ी क्षेत्रों में अक्सर बहते सुने गए हैं। परंतु किसी राजमार्ग पर बने पुल का इस प्रकार अंधेरी रात में बह जाना और बसों व कारों का इस दुर्घटना में लापता हो जाना इस बात का सुबूत है कि पुल की मज़बूती व इसके टिकाऊपन को लेकर शासन किस क़द्र लापरवाह था। समाचारों के अनुसार ब्रिटिश अधिकारियों ने दो वर्ष पूर्व ही सरकार को यह चेतावनी दे दी थी कि उनके द्वारा निर्मित यह पुल अत्यंत कमज़ोर, पुराना तथा असुरक्षित हो गया है। इस पुल पर पेड़ उगने शुरु हो गए हैं। लिहाज़ा इसे जनता के आवागमन हेतु अयोग्य करार देते हुए इसे बंद कर दिया जाना चाहिए। परंतु बड़े आश्चर्य की बात है कि ब्रिटिश अधिकारियों की दो वर्ष पूर्व दी गई इस चेतावनी के बावजूद मात्र दो माह पूर्व महाराष्ट्र की फडऩवीस सरकार द्वारा इस पुल को यातायात हेतु पूरी तरह से सुरक्षित घोषित कर दिया गया। मुंबई-गोवा राजमार्ग पर जहां कि पर्यट्कों के आवागमन का तांता लगा रहता हो ऐसे मार्ग पर इस प्रकार के कमज़ोर तथा खतरनाक पुल का चालू रहना यह सोचने के लिए काफी है कि हमारे देश का शासन व प्रशासन इंसानी जानों के प्रति किस कद्र लापरवाह है।
यह तो रायगढ़ का पुल था जिसने ध्वस्त होने के बाद सरकार की लापरवाही की पोल खोलकर रख दी। परंतु इस पुल के अतिरिक्त भी भारत में अभी भी ब्रिटिश शासनकाल के बनाए गए दर्जनों ऐेसे पुल हैं जिनकी सेवा अवधि समाप्त हो चुकी है। यहां तक कि कई पुलों की तो सेवा अवधि समाप्त हुए पचास वर्ष से भी अधिक का समय बीत चुका है। इसके बावजूद ऐसे कई पुल अभी भी इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं। ऐसे ही दो पुलों में एक पुल तो देश की राजधानी दिल्ली में स्थित है। जिसे शाहदरा के पुराने पुल के नाम से जाना जाता है। यमुना नदी पर लाल िकले के साथ बने इस दो मंजि़ला पुल पर ऊपरी हिस्से में रेलगाडिय़ों का आवागमन रहता है जबकि नीचे की मंजि़ल पर अन्य वाहन चलते हैं। ठीक इसी डिज़ाईन का एक दूसरा पुल इलाहाबाद शहर के मध्य स्थित है जिसे नैनी पुल के नाम से जाना जाता है। यमुना नदी पर बने इस पुल की बनावट भी दिल्ली के पुराने पुल की ही तरह है। इन दोनों ही पुलों पर रेलगाडिय़ों व छोटे दोपहिया व चार पहिया वाहनों का ज़बरदस्त आवागमन रहता है। परंतु कई दशक पूर्व यह दोनों पुल भी अपने परिचालन की सीमा अवधि पूरी कर चुके हैं। यह दोनों पुल कब किसी बड़े हादसे का शिकार हो जाएं कुछ कहा नहीं जा सकता। परंतु ऐसा लगता है कि हमारे देश की लापरवाह शासन व्यवसथा भी संभवत:किसी बड़े हादसे के बाद ही इन पुलों के स्थान पर नए पुलों का निर्माण कराने की प्रतीक्षा में है।
इसके अलावा भी हमारे देश में अनेक ऐसी आश्चर्यजनक दुर्घटनाएं होती रहती हैं जिन्हें देखकर यही महसूस होता है कि संभवत: भारतवर्ष ही एक ऐसा देश है जहां इस प्रकार की निरालीक़िस्म की दुर्घटनाएं होती हैं। उदाहरण के तौर पर एक ही रेल ट्रैक पर आमने-सामने से आती हुई दो रेलगाडिय़ों में भिड़ंत हो जाना। या फिर दो विमानों की आसमान में आमने-सामने से टक्कर हो जाना या फिर सडक़ों पर बैठे हुए जानवरों से वाहनों का टकरा जाना जैसी घटनाएं शायद ही अन्य देशों में कहीं होती हों। परंतु हमारा देश ऐसी बेमिसाल दुर्घटनाओं का देश तो है ही। 15 दिसंबर 2004 को पंजाब के होशियारपुर जि़ले में मुकेरियां के समीप एक बड़ा ट्रेन हादसा उस समय पेश आया था जबकि जम्मूतवी-अहमदाबाद एक्सप्रेस की भिड़ंत इसी रेल ट्रैक पर सामने से आ रही दूसरी पैसेंजर ट्रेन से हो गई। इस दुर्घटना में 35 रेल यात्री मारे गए थे। जबकि पांच बोगियां बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई थीं। रेल अधिकारियों द्वारा इस हादसे का कारण सिगनल प्रणाली का फ़ेल हो जाना बताया गया था जिसके कारण सिंगल लाईन पर दोनों ओर की रेलगाडिय़ों को एक ही समय में छोड़ दिया गया। इस दुर्घटना में क़ुसूर किसी का भी हो परंतु उन बेकुसूर रेलयात्रियों का तो कतई नहीं जो अपने देश की रेल व्यवस्था तथा यहां की तकनीक पर विश्वास करते हुए सुरक्षित रेल यात्रा की उम्मीद करते हैं?
पंजाब में ही इसी प्रकार के एक रेल हादसे में 110 से अधिक लोग उस समय मारे गए थे जबकि खन्ना के समीप एक बड़ा हादसा पेश आया था। इन मृतकों में 40 लाशें तो हमारे देश के उन सैनिकों की थीं जो छुट्टी पर कोलकाता जा रहे थे। इस हादसे में गोल्डन टैंपल मेल में कुछ डिब्बे पटरी से उतर गए थे कि इसी बीच स्यालदाह एक्सप्रेस दूसरी तरफ से गुज़री और पटरी से उतरे हुए उन डिब्बों से जा टकराई। हरियाणा में दिल्ली के समीप चरख़ी दादरी नामक स्थान के आकाश पर 12 नवंबर 1996 को दो अंतर्राष्ट्रीय विमानों की भिड़ंत को तो देश के लोग कभी भुला ही नहीं सकते। यह हादसा उस समय दरपेश आया था जबकि सऊदी अरेबियन एयर लाईंस का बोईंग 747-100बी विमान जोकि दिल्ली से तेहरान (सऊदी अरब)की उड़ान पर था इसकी आमने-सामने की टक्कर कज़ाकिस्तान एयरलाईन्स के उस विमान से हो गई जो कज़ाकिस्तान से दिल्ली आ रहा था। इस हादसे में 349 यात्री मारे गए थे। चश्मदीदों के अनुसार आसमान से यात्रियों की लाशें आग के गोले की तरह खेतों में इधर-उधर गिर रही थीं। कई किलोमीटर तक विमान का मलवा तथा जली हुई लाशों का ढेर फैला हुआ था। कई जली हुई लाशें तो पेड़ों में भी फंसकर रह गई थीं। इस हादसे का कारण यह बताया गया था कि एयर ट्रैिफक कंट्रोल द्वारा जो सिगनल संदेश विमान चालकों को दिए जा रहे थे भाषा के अंतर के चलते वे उसे ठीक से समझ नहीं सके जिसके कारण यह दोनों ही विमान समान ऊंचाई पर आ गए। परिणामस्वरूप ऐसी भयंकर दुर्घटना सामने आई। इस दुर्घटना को दुनिया की सबसे ख़तरनाक हवाई दुर्घटनाओं में गिना जाता है। दु:ख का विषय है कि यह दुर्घटना भी हमारे ही देश की धरती पर घटित हुई थी।
यदि आप देश के किसी महानगर से लेकर किसी छोटे कस्बे तक के सडक़ मार्ग से गुज़रें तो दिन हो या रात किसी भी समय गायों अथवा सांडों का झुंड आपको सडक़ पर लावारिस बैठा दिखाई दे जाएगा। यदि वाहन चालक चौकस नहीं है और उसने ज़रा सी भी लापरवाही की या उसका ध्यान इधर-उधर भटका तो वाहन की भिड़ंत उन आज़ाद पशुओं से हो सकती है। देश में आए दिन ऐसे तमाम हादसे होते रहते हैं। परंतु इन्हें नियंत्रित करने का भी किसी सरकार या प्रशासन के पास संभवत: कोई उपाय नहीं है। ज़ाहिर है जहां इंसानों की जान की कोई कीमत न हो वहां पशुओं की परवाह आिखर कौन करे? हां यदि गाय अथवा गौवंश के रूप में यही पशु किसी दल अथवा संगठन विशेष को कोई राजनैतिक लाभ पहुंचा रहे हों फिर तो इनका मूल्य इंसानों की जान की कीमत से भी अधिक आंका जा सकता है। वह भी केवल ज़ुबानी या बयानबाज़ी तक ही सीमित रखने के लिए। जैसाकि इन दिनों हमारे देश में गौरक्षा के नाम पर होने वाले तमाम हंगामों को देखकर प्रतीत होता है। बहरहाल, चाहे गोवंश की रक्षा के ढोंग के नाम पर सांप्रदायिकता की भड़ास निकालते हुए इंसानों की हत्या करना हो या फिर मानवीय भूल अथवा लापरवाही के चलते हमारे देश में होने वाले विचित्र हादसे हों इन्हें देखकर तो यही कहा जाना चाहिए कि ‘इट हैपेन्स ओनली इन इंडिया’।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here