अल्पसंख्यक, आरक्षण और शिक्षा

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कुमार प्रत्युष

भारत की राजनीति में अल्पसंख्यक और धर्मनिरपेक्ष शब्द का जितना ज्यादा प्रयोग या दुरूपयोग हुआ है, संभवतः अन्य किसी शब्द का ना हुआ हो! हर स्वार्थ्य को साधने का एकमात्र, आसान सा तीर है की उसे अल्पसंख्यकों के भलाई से जोड़ दिया जाए! मेरे मन में ये प्रश्न हमेशा से रहा है की ‘अल्पसंख्यक’ की परिभाषा क्या है? क्या हम, २० करोड़ से भी ज्यादा के किसी समुदाय को अल्पसंख्यक कह सकते हैं? क्या पूर्ण जनसँख्या के २० प्रतिशत को हम अल्पसंख्यक कह सकते हैं? और अगर कहते हैं तो क्या ये उस समुदाय का अपमान नहीं हुआ एक प्रकार से? अच्छा, अगर हम ऐसा कहते और समझते भी हैं तो उनका क्या जो वास्तव में अल्पसंख्यक हैं – अंडमान निकोबार की कुछ जन जातियां, छोटानागपुर के जंगलों और पहाड़ों पर रहने वाली कुछ जनजातियाँ, पारसी धर्मावलम्बी इत्यादी? शायद उनका कोई महत्व नहीं है क्योंकि वो राजनीति को तो प्रभावित करने से रहे, अपने अस्तित्व को बचाने में ही व्यस्त हैं! बीते कुछ दिनों में धार्मिक वैमनष्य निरंतर बढ़ता जा रहा है, मैं नीचे उनके कारणों और उपायों पर अपने विचार रख रहा हूँ –

  • कुछ भी कहने से पहले एक मूल बात कहना चाहूँगा – मैंने बहुत कोशिश की, लेकिन ऐसे भारत की कल्पना नहीं कर पाया, जिसमे, अबुल कलाम आज़ाद, अमर शहीद वीर अब्दुल हमीद, पूर्व राष्ट्रपति डॉ कलाम, खिलाडी ज़हीर खान, मजरुह सुल्तानपुरी, अभिनेता आमिर खान जैसे लोग हमारे समाज के विभिन्न क्षेत्रों में ना हो! अगर हमें बिरजू महाराज पर गर्व है तो उतना ही नाज़ भारत रत्न उस्ताद बिस्मिलाह खान पर भी है! तो अगर कोई भी, द्वि राष्ट्र के असफल सिद्धांत (Two Nation Theory) के बारे में सोच भी रहा है तो उसे तुरंत अपने दिमाग और आत्मा की शुद्धि का उपाय करना चाहिए.
  • जब तक एक समुदाय को एक भिन्न अंग की तरह देखा जाएगा, तब तक वो भारत के बाकी अन्य समुदायों और लोगों से भिन्न ही बने रहेंगे. क्या बिना किसी धर्म, जाति, लिंग का भेद भाव किये बिना, हम भारत के गरीब और पिछड़े हुए लोगों के उत्थान के लिए कुछ नहीं कर सकते?
  • नेतागण प्रयासरत हैं की कुछ भी करके, विभिन्न समितियों के आकलन को आधार बना कर यह प्रमाणित किया जाए की एक समुदाय पिछड़ा है और राष्ट्रीय संसाधनों पर अधिकतम अधिकार इस कथित पिछड़े समुदाय का है. सबसे पहली बात यह है की, इस समुदाय की तुलना अनुसूचित जाति और जनजातियों से करना पुर्णतः अप्रासंगिक और अनुचित है. अनुसूचित जाति और जनजातियों को सैकड़ो वर्षों से दबाया गया है, सुविधाओं से वंचित रखा गया है, भेद भाव पूर्ण व्यवहार किया गया है और अगर उनमे से किसी ने प्रगति करने का प्रयास भी किया है तो उसे रोकने की कोशिश की गई है. अब इस सन्दर्भ में, प्रतिशोध की भावना से किसी का कुछ भला नहीं होने वाला है, इनको प्रगति करने के हरसंभव सुविधाएं दी जानी चाहिए (इसके बारे में नीचे के विन्दुओं में विस्तार से लिखा है). दूसरी तरफ, मुसलमान भारत की सत्ता में लगभग हज़ार वर्षों तक किसी न किसी रूप में भागीदार रहे हैं, इसलिए उनको शोषित वर्ग में होने का प्रश्न ही नहीं है. उनको सारे बराबरी के अधिकार मिले हुए हैं, बल्कि थोड़े ज्यादा ही. प्रगति करना या नहीं करना बहुत कुछ उनके अपने प्रयास और विचार पर निर्भर रहा है. या फिर प्रगति की उनकी और अन्य लोगों की परिभाषा में कहीं कुछ अंतर रहा है!
  • एक परिचर्चा में, प्रोफ़ेसर नजीब जंग जो की जामिया मिलिया विश्विद्यालय के कुलपति हैं, भारत सरकार में शिक्षा से जुडी कई समितियों के सदस्य हैं और पहले भारतीय प्रसाशनिक सेवा के अधिकारी रह चुके हैं, ने विचार प्रकट किये की, मुसलमान की प्रगति बहुत ज्यादा नहीं होने या फिर राष्ट्रीय सेवाओं में उनके कम प्रतिनिधित्वा इसलिए है क्योंकि उन लोगों लोगों ने शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया. जीवन के हर क्षेत्र में उनका प्रतिनिधित्व है, कहीं भी किसी भेद भाव का सामना नहीं करना पड़ा, प्रगति करने के उतने ही मौके इनके पास भी थे और हैं जितने की किसी दुसरे के. खेल, राजनीति, संगीत, सिनेमा हर जगह मुसलमान भाई ऊँची जगहों पर पहुँच चुके हैं और आगे भी योग्य लोग, बिना किसी भेद भाव के पहुँचते रहने चाहिए. सभी भारत वर्ष के लोगों के लिए सामान प्रकार की शिक्षा पद्यति होनी चाहिए और सबको को सामान प्रकार की शिक्षा का अधिकार होना चाहिए. अभी अगर ऐसी परिस्थिति है की कुछ विशेष वर्ग के लोग जहाँ रहते हैं वहां ज्यादा गन्दगी है, मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं, और ऐसी ही कई समस्याएँ हैं, तो निसंदेह भारत के हर स्थान पर, जहाँ भारतवासी रहते हैं, उसका विकास होना चाहिए, लेकिन इसके लिए आप किसी और को दोषी नहीं कह सकते हैं. मुगलों के शाशनकाल से ही, जो शहर के सबसे अच्छे क्षेत्र थे वहां इन्हें रहने की व्यवस्था की गई थी, चाहे दिल्ली का चांदनी चौक, जामा मस्जिद हो या फिर हैदराबाद का चार मीनार के आस पास का क्षेत्र, ये सभी अपने समय में मुख्य बाजार हुआ करते थे, अगर कालांतर में इनकी स्थितियां बुरी हो गईं तो यहाँ रहने वालों को आत्मावलोकन करना चाहिए न की किसी और को दोष देना चाहिए!

मेरे विचार से, कुछ कार्य किये जाने चाहिए, जो की हमारे देश और समाज की प्रगति में सहायक होंगे –

अल्पकालिक (short-term)

 

सकारात्मक संदेशों का प्रचार

सोशल, इलेक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया का प्रयोग करके सामाजिक समरसता और सद्भाव का सन्देश ज्यादा से ज्यादा प्रसारित और प्रचारित करें. नकारात्मक संदेशों को फ़ैलाने के लिए इसका बहुत प्रयोग हुआ है, उसी का प्रयोग सकारात्मक संदेशों के लिए भी करने हेतु एक अभियान चलाना चाहिए.

 

आम सहमति

सारे राजनीतिक दलों की बैठक बुला कर इस पर आम सहमति बनानी चाहिए की अभी वो ऐसे कुछ भी बयान नहीं देंगे जिस से देश का माहौल खराब हो. अगर कोई ऐसा करता है, तो उस पर अवश्य कारवाई होनी चाहिए. और हाँ ये कार्य बिना किसी भेद-भाव के होना चाहिए. अगर इसमें थोड़ी सी भी भेद-भाव की गई तो इसके और नकारात्मक प्रभाव होंगे. दिग्विजय सिंह, आज़म खान, रजा अकादमी, ठाकरे परिवार, प्रवीण तोगड़िया, ओवैसी आदि जैसे लोगों पर खास नजर रहनी चाहिए. गड़बड़ी पैदा करने वालों से बहुत कड़ाई से निपटाना चाहिए, आसाम जैसी घटना की पुनरावृति न हो लेकिन साथ में आज़ाद मैदान जैसी घटना से भी सख्ती से निपटना चाहिए!

 

स्थानीय सद्भाव समितियां

जिला और ब्लाक स्तर पर ऐसी छोटी समितियां प्रशासन द्वारा गठित की जानी चाहिए जिसमे सभी धर्मों के स्थानीय गणमान्य प्रतिनिधि हों, जो सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने में सहयोग कर सके. यहाँ भी बहुत ध्यान रखना होगा की ऐसी समितियां सरकार या सरकार में रहनी वाली पार्टी के लिए काम न करके देशहित में काम करे.

 

मूलभूत सुविधाएं

सड़क, बिजली, पानी इत्यादि मूलभूत सुविधाएं, हर क्षेत्र में प्रदान करनी चाहिए, जो क्षेत्र इन चीज़ों में अधिक पिछड़े हैं, उनको प्राथमिकता देनी चाहिए. अब अगर सच्चर या ऐसी ही दूसरी समितियों की रिपोर्ट सही है, तो उन क्षेत्रों का विकास पहले हो जायेगा, जो सबसे पिछड़े होंगे.

मध्यम कालिक (Medium-term)

 

शिक्षा, शिक्षा और शिक्षा

जैसाकीमैंनेऊपरभीलिखा है, मुसलमानों ने शिक्षा पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया है. प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा पर बहुत ज्यादा काम करने की आवश्यकता है. यही समस्या हमारे दलित भाइयों और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों के साथ भी है. इसमें दलितों को मैं अलग श्रेणी में रखता हूँ, क्योंकि उनके साथ वर्षों से अच्छा व्यवहार नहीं हुआ है, और उनको ऊपर आने के लिए अभी भी आरक्षण की आवश्यकता है. लेकिन मुसलमानों और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण की आवश्यकता नहीं है. ऐसे भी, जो वास्तव में पिछड़े लोग हैं, उनको आरक्षण का लाभ अभी तक नहीं पहुँच पाया है, क्योंकि वो बेचारे नौकरियों में इसका लाभ तो तब उठा पायेंगे, जब वो पढेंगे! अब पढने जाएँ या फिर कुछ परिश्रम कर अपने और अपने परिवार का पेट भरने में योगदान करें? और फिर अगर पढने जाएँ भी तो सरकारी विद्यालय में ही जा पाएंगे, जहाँ अधिकतर विद्यालयों की हालत दयनीय है.

   सरकार और समाज का ये दायित्व है की वो भारतवर्ष के हर बच्चे को, बिना किसी भेदभाव के, समान उच्च स्तर की शिक्षा प्रदान करे! पुरे भारत में एक ही पाठ्यक्रम लागू हो और पढ़ाई की एक ही व्यवस्था हो.                                              

   अगर सरकारी विद्यालयों की व्यवस्था ठीक होनी बहुत कठिन लगती हो तो कुछ ऐसी व्यवस्था हो जिस से की गरीब बच्चे भी अपनी इच्छानुसार किसी भी अच्छे सरकारी या नीजी विद्यालय में जा कर पढ़ सकें. कक्षा १२ के बाद की पढ़ाई के लिए भी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवार के बच्चों को आरक्षण मिले, किसी धर्म या जाती या धर्म के आधार पर नहीं. जब तक समान शिक्षा की व्यवस्था ना हो जाए तब तक अनुसूचित जातियों और जनजातियों को भी आरक्षण का लाभ मिलता रहे, लेकिन राजपत्रित अधिकारियों, विधायकों, सांसदों आदि के बच्चों को नहीं.                                                              

एकीकरण और समावेश

जबसेमुसलमानशासकोंने भारत पर शासन करना प्रारंभ किया, उनलोगों ने पहले बहुत लोगों का धर्मान्तरण कराया और फिर दोनों समुद्याओं को अलग रखने का प्रयास किया. कुछ राजाओं जैसे फ़िरोज़ शाह तुगलक आदि के शासन काल में, दिल्ली या बाकी भी अच्छे शहरी क्षेत्रों में रहने के लिए हिन्दुओं को अनुमति नहीं थी, या फिर कर दे कर रह सकते थे. कालांतर में यही चीज़ बढती चली गई, बाद में नेताओं और सरकारों ने अपना स्वार्थ्य साधने के लिए कभी भी दोनों समुदायों को एक करने की कोशीश नहीं की. यही समस्या कुछ सरकारों ने दलितों के साथ भी की. कांशीराम, इंदिरा आवास आदि सभी बिलकुल अलग से बनाए गए, इसका मतलब ये हुआ की ये समुदाय के बाकी लोगों से अलग होते चले गए. मैं गरीबों को आवास देने के विरुद्ध नहीं हूँ परन्तु व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए की हर क्षेत्र में दलित, अगड़ी और पिछड़ी जातिओं के लोग रहें, और इनका अनुपात भी नियंत्रित होना चाहिए.    

  

राष्ट्रीयता की भावना का संचार

येअत्यन्तमहत्वपूर्णहैऔरये सरकार और समुदाय दोनों को मिल कर करना होगा. हर किसी को ये समझना होगा की भारत में रहने वाले सभी भारतीय हैं और भारत के हित में ही उनका हित है. अगर फिलिस्तीन या फिर अरब देशों में मुसलमानों के साथ या फिर श्रीलंका में तमिलों के साथ कुछ होता है तो ये उनकी समस्या है, हमें अपने देश में हिंसक प्रदर्शन कर के कुछ नहीं मिलने वाला है. हमें अपने राष्ट्र के प्रगति के लिए कार्य करना है और उसी में हमारा भला है. हाँ अगर किसी भारतीय के साथ विश्व में कहीं भी  कुछ बुरा होता है तो फिर हमें जरुर कुछ प्रयास करना चाहिए. इस देश में हर क्षेत्र में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व है, जिसने भी परिश्रम किया है आगे बढ़ने के लिए, किसी ने उसमे अवरोध नहीं डाला है!

 

दीर्घकालिक (Long-term)

 

धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक स्वतंत्रता और धर्मान्तरण

हमारे संविधान के प्रस्तावना में ही धर्मनिरपेक्षशब्द का समावेश किया गया है, और देश उसी रूप में ही रहना चाहिए. हर भारतीय को अपने धर्म को मानने, धार्मिक आयोजनों को करने और धार्मिक उत्सवों को मनाने का पूर्ण अधिकार है और रहना चाहिए. दुर्भाग्यवश, आज धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा परिवर्तित हो गई है, आज बहुसंख्यक समुदाय को गाली देना, उनके अराध्य का अपमान ही धर्मनिरपेक्षता है. इसके दीर्घकालिक परिणाम बहुत बुरे हो सकते हैं. मैं एक साधारण सी बात कहना चाहूँगा एक परिवार में अगर दो भाई हैं, एक बड़ा और दूसरा छोटा, तो माँ बाप का ये कर्तव्य है की वो छोटे की देखभाल अच्छे से करें, जब तक वो भी बड़ा न हो जाए और अपने पैरों पे खड़ा न हो जाए. ये तो मेरे ख्याल से से सभी मानेंगे, और ये उचित भी है, लेकिन यहाँ ध्यान देने वाली एक और बात है अगर आपने हमेशा छोटे लड़के को सारा लाड प्यार दे दिया ये कह के की छोटे को इसकी जरुरत है, और बड़ा तो पहले ही बड़ा हो चूका है, तो इससे बड़े के दिमाग में कुंठा आ जायेगी, इसी मौके पर अगर किसी ने अगर बड़े की कुंठा को बहका कर क्रोध में बदल दिया तो मौका देखते ही, माँबाप की नजर बचा के बड़ा छोटे को नुकसान भी पहुंचा सकता है. अब ये जिम्मेवारी माँबाप की है, की वो दोनों के बीच एक सामंजस्य और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का समबन्ध स्थापित करवाने का प्रयास करें. हमारे देश की बदकिस्मती ऐसी है, की यहाँ माँबाप (सरकार और नेतागण) ही दोनों बच्चों को लड़ाने पर आमादा है! और हाँ, दोनों को अलग कमरे दे देना, दोनों की सारी चीज़ें अलग कर देना, ये तात्कालिक समाधान हो सकता है, लेकिन पूर्णकालिक नहीं! जितना ज्यादा दोनों साथ रहेंगे, साथ खेलेंगे, एक दुसरे के लिए समझ बढ़ेगी और आपसी सामंजस्य बढेगा. देश के कई हिस्सों में धार्मिक वैमनस्य का एक कारण लालच दे कर या धोखे से कराया गया धर्मान्तरण भी है. हर धर्मावलम्बी को अपने धर्म के प्रचार की छूट है लेकिन उसका गलत प्रयोग करना और लालच दे कर भोले भाले लोगों का धर्मांतरण करना अपराध है, देश में इस तरह के कानून बनाने चाहिए (हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु आदि में है) जिससे की इस तरह के धर्मान्तरण रुकें, और सामाजिक सद्भाव बना रहे. मैं एक बहुत ही व्यवहारिक बात कहूँगा यह समझना अत्यंत आवश्यक है की भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है क्योंकि देश का बहुसंख्यक समाज ऐसा चाहता है. इसलिए कुछ वोटों के लिए तुष्टिकरण की ऐसी नीति नहीं बनानी चाहिए जिससे की बहुसंख्यक समाज कुंठित होने लगे और अपने धर्मनिरपेक्षता की नीति पर पुनर्विचार करने लगें. धार्मिकसंस्थाएं

भारत में धर्म पर आधारित बहुत सारी संस्थाएं हैं, इन सभी संस्थाओं को सरकारी सहायता देना तुरंत बंद कर देना चाहिए. चाहे वो किसी भी धर्म से जुडी हों. हज, अमरनाथ यात्रा या ऐसे ही किसी चीज़ पर दी जा रही सरकारी सहायता देना बंद होना चाहिए. कुछ शैक्षिक संथायें भी हैं जो सरकार से वित्तीय अनुदान तो लेती हैं लेकिन, सिर्फ अक धर्म के लोगों को उसका लाभ मिल पता है या फिर नामांकन में एक धर्म के लिए आरक्षण है (अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी), काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के नाम में तो हिन्दू है लेकिन धार्मिक आधार पर यहाँ कोई आरक्षण नहीं है. धर्मं के आधार पर भेदभाव धार्मिक आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव नहीं होनी चाहिए और इस का पालन पूरी कठोरता से हो ये सुनिश्चित करने का काम सरकार का है. 

 

अंत में यही कहूँगा की सरकार और नेतागण तो अपना कार्य करें लेकिन सामाजिक सद्भाव अंततः यह हमारे समाज का, हमारा और आपका, सामूहिक उत्तरदायित है!

2 COMMENTS

  1. सही बोला, क्रिस्चियन समुदाय हिन्दुओं से कई मायने में ज्यादा आगे है, अगर भारत में भेद-भाव इतना होता तो फिर च्रिस्तिंस इतनी तरक्की कैसे करते? आ. क अन्तोंय , रक्षा मंत्री, एयर चीफ मार्सल ब्रोव्ने और भी कई लोग टॉप positions पर हैं . आरक्षण तो मज़ाक बन कर रह गया है.. आज जो जातियां ताकतवर हैं वो अपने को जितनी हो सके उतनी पिछड़ी जाती होने की मांग कर रही हैं… जैसे जाट OBC में जगह बना चुके हैं और राजस्थान के मीना जाती तो OBC से भी खुश नहीं है और वो अनुसूचित जाती का हिस्सा बनने पर आन्दोलन कर रहे हैं, अब भला इन सबको क्या कहेंगे ?

    मुजहे अपने गाँव का पता है जहाँ वाकई गरीब अनुसूचित जाती के लोगों को उनकी ही जाती के पढे लिखे ताकतवर और सरकारी नौकरी वाले लोग जाती प्रमाण पत्र नहीं लेने देते और कारन ये बताते हैं की अगर सबको मिल जाएगा तो फिर उनके (पढे लिखे ताकतवर और सरकारी नौकरी वाले अनुसूचित जाती के लोगों के) बच्चों की नौकरी में ये लोग compete करेंगे….

    मुझे यकीन है की बाबा साहेब डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर ने ये सब कभी नहें सोचा होगा… और वो अगर ये सब देखते तो शायद आज दूसरा ही संविधान बनाते…

    • टिपण्णी के लिए धन्यवाद. ईसाईयों का आपका उदाहरण बिलकुल सही है. किसी समुदाय कि प्रगति में उनका खुद का भी योगदान होना चाहिए और शिक्षा ही सफलता कि कूंजी है.

      केवल अपना उल्लू सीधा करने के लिए कई लोग ये कहने से भी नहीं चूक रहे कि भारत के मूल निवासी OBC और अनूसूचित जाति के लोग हैं और बाकी लोग आर्यन हैं! मूर्खता कि पराकाष्ठा है. अब जबकि आर्यन इनवेजन थ्योरी गलत साबित हो चुकी है, इस तरह की बाते करना निंदनीय है.

      Pratyush

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